रेखाचित्र/संस्मरण

>> रविवार, 3 जनवरी 2010



सुखवंत कौर मान पंजाबी की प्रख्यात कहानीकार हैं। 'भखड़े दे फुल्ल', 'इस दे बावजूद', 'मोह मिट्टी', 'चादर हेठला बंदा', 'उह नहीं आउणगे' आदि इनकी प्रमुख कथाकृतियाँ हैं। एक उपन्यास ‘जजीरे’ प्रकाशित हुआ है। इन पर उनकी समकालीन कथाकार बलजीत कौर बली द्वारा लिखा एक बेबाक रेखाचित्र पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका ''शबद'' के रेखाचित्र विशेषांक में अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यहाँ प्रस्तुत है उसका हिन्दी अनुवाद...


भखड़े¹ के फूल
बलजीत कौर बली

''यह भौंखड़ा क्या होता है बलजीत ?'' एक दिन अकस्मात् मेरी सहेली सुदर्शन ने मुझसे पूछा।
''भौंखड़ा ?... अरे ! मैंने तो कभी सुना नहीं यह शब्द।''
''वो होता है न, जिसके कांटे भी होते हैं छोटा-सा।''
''भखड़ा कह फिर, भौंखड़ा क्या हुआ। तुझे क्या ज़रूरत पड़ गई भखड़े की ?'' मैंने कहा।
''मुझे किसी ने बताया कि भौंखड़ा शरीर के दर्द के लिए बहुत अच्छा होता है। कहते हैं, तेरे गांव की तरफ बहुत होता है।''
''हाँ, होता है। तू बता, क्या करना है ?''
''जब तू उधर जाए तो पता करना। हो सके तो लेकर भी आना।''
''तूने क्या भखड़ा नहीं देखा ?''
''मैंने कहाँ देखा यार ! शहर में रहते मुद्दत हो गई। मुझे तो किसी ने बताया कि इस तरह का होता है।''
''मैं बताऊँ फिर ? भखड़े की एक बारीकी सी पत्ती वाली धरती पर बिछी छोटी-सी बेलनुमा झाड़ी होती है। पहले इसे छोटे-छोटे फूल लगते हैं। शायद फीके जामुनी रंग के होते हैं, पर अब पूरी तरह याद नहीं। फिर उन फूलों से भखड़ा बनता है। मुझे तो बचपन में भखड़े के बहुत कांटे चुभे हैं। हम छोटे-छोटे बच्चे नंगे पांव सारा दिन खलिहान में खेलते रहते थे।''
''कहते हैं, इसके कांटे बड़े खराब होते हैं।''
''हाँ, उल्टे जो होते हैं। इसलिए खराब और खतरनाक होते हैं। मेरी एक सहेली है-सुखवंत। बहुत पहले उसने अपनी कहानियों की किताब का नाम 'भखड़े दे फुल्ल' रखा था। पर इस नाम की कहानी पुस्तक में कोई नहीं थी। मुझे बड़ा अजीब लगा था।''
''यह क्या नाम हुआ भला ?'' उसने स्वाभाविक ही कह दिया।
''पहली बार यह नाम मुझे भी रूखा और अजीब-सा लगा था। पर अब नहीं।'' कहते हुए मैं मानो इसके अर्थों में गुम हो गई।
पच्चीस-छब्बीस बरस पहले वाली सुखवंत मान मानो मेरे सामने आ खड़ी हुई। सचमुच, यह नाम मुझे उस वक्त अच्छा नहीं लगा था। मैंने उसे धीरे से कह भी दिया था, ''यह नाम मुझे बड़ा रूखा और अजीब-सा लगा है, जैसे भखड़ा कहीं मेरे पैरों में चुभ गया हो।'' उस वक्त, वह मेरी बेसमझी पर ज़ोर से हँसी थी। उस समय तक मैं किसी प्रतिनिधि कहानी के नाम पर ही पुस्तक का नाम रखने की कायल थी। यह बात 1982 की है। इससे पहले उसी साल मेरा दूसरा नॉवल 'ठरी रात' चर्चा में आ चुका था। लेकिन सुखवंत कौर मान साहित्यिक परचों में मुझसे दस बरस पहले से छपने के कारण एक कहानीकार के तौर पर स्थापित हो चुकी थी। मेरे उपन्यास 'ठरी रात' और मान के कहानी संग्रह 'भखड़े दे फुल्ल' का अच्छा मेल हुआ। मुझे याद है, ढींडसा ने तब 'सांस्कृतिक मंच' की ओर से इस पुस्तक पर गोष्ठी भी करवाई थी और 'सिरजना' में इसका रिव्यू भी किया था।

उन दिनों सुखवंत ने अपना सफ़र बड़ी तेजी से शुरू किया हुआ था। साहित्यिक सफ़र के साथ-साथ उसने गोष्ठियों आदि में जाने-आने का सफ़र भी तेज कर रखा था। जहाँ कहीं देखते, वह पहुँची होती। चण्डीगढ़ और पटियाला वह आम साहित्यिक फंक्शनों में विचरती। झोले में अपनी नई छपी पुस्तक की चार प्रतियाँ डालती और तुरन्त ऐसी जगहों पर पहुँच जाती जहाँ वह कुछ परिचित और कुछ अपरिचित साहित्यिकारों को किताबें बांटती।
धीरे-धीरे हमारी मुलाकातें बढ़ने लगीं। कभी यह मेरे पास पटियाला में आकर ठहर जाती। कभी मैं इसके पास फेज़-सात, मोहाली में पहुँच जाती। न इसने मेरे पहुँचने पर कभी माथे पर शिकन डाली थी, न मैंने इसके आने पर। जब भी मिलतीं तो साहित्य की, सभाओं की और साहित्यिकारों की ही बातें किया करतीं। न मैंने इसके घर-परिवार के बारे में पूछा था, न इसने मुझे कुछ बताया था। जो कुछ एक दूसरे के बारे में हमें पता चला था, वह लोगों से ही सुना था जिनमें किरपाल कज़ाक(पंजाबी के जाने माने कथाकार) अपना महत्वपूर्ण रोल निभा चुका था।
शुरू-शुरू में एक बार जब मैं इनके सात फेज़ वाले घर में गई तो शाम को यह मुझे अपनी दस फेज़ में बन रही कोठी दिखाने ले गई। उस समय शायद दस फेज़ वाला पुल नहीं बना था। सात फेज़ से दस फेज़ तक पैदल का काफी लम्बा रास्ता है। उस दिन मुझे और भी लम्बा लगा। जब यह मुझे उखड़ी-पुखड़ी ऊँची-नीची और वीरान सी जगहों में से लेकर जा रही थी तो नदी के किनारे वाले रास्ते में से निकलते हुए मैं इसके बारे में सोच रही थी, 'कितनी दिलेर औरत है ये ? पैदल चलने की कितनी हिम्मत है इसमें।' अगर सच पूछो तो यह आज भी मेरे हाथ नहीं आती। उम्र के इन वर्षों में भी उसकी चाल में एक रवानी है। तेज कदमों में चलती हुई तो वह यूँ लगती है जैसे पानी पर मुरगाबी तैर रही हो। उस दिन देर तक हम दोनों ताज़ी बनी दीवारों को पानी का छिड़काव भी करती रहीं और अपने सुख-दुख भी खंगालती रहीं। वे किस तरह की बातें थी हमारी, अब पूरी तरह याद नहीं पर तिड़के घरों की दास्तान दख़ल ज़रूर देती रही। थोड़ा बहुत एक दूजे के बारे में पूछा गया था कि कौन किसके साथ मज़बूरी में रह रहा है। बहुत कुछ तो कज़ाक ने पहले ही एक दूसरे के बारे में बता रखा था। इससे आगे बढ़ने की मेरी भी इच्छा नहीं थी। सुखवंत ने भी अधिक बात न बढ़ाई, क्योंकि उन दिनों मैं भी घर से उखड़ी हुई होने के कारण संताप भोग रही थी। उस दिन हमारी जो भी बातचीत हुई, उसके बाद मैंने जैसे अचेत ही सुखवंत को अपनी बड़ी बहन की तरह तस्लीम कर लिया था। जैसा बड़ी बहनों के संग व्यवहार किया जाता है, वैसा ही मैं इसके संग करने लग पड़ी।
उसके बाद आहिस्ता-आहिस्ता मुलाकातें बढ़ती गईं। कई गांठें खुलती गईं। हम एक दूजे की दुखती रंगों पर भी हाथ रखती रहीं। कभी मरहम भी लगते रहे और कभी रगें चीसती भी रहीं। ज़रूरतें, तंगी-तुर्शियों के संसार में विचरते हुए शायद दोनों को गर्माहट भरी और बेगर्ज साथ की ज़रूरत थी जिस कारण हमारा आना-जाना काफी बढ़ गया।
एक दिन साहस-सा करते हुए मैं सुखवंत से कज़ाक द्वारा उसके विवाह के बारे में बताई कहानी की बात कर बैठी कि कज़ाक ने तेरे विवाह के बारे में मुझे कुछ और ही बताया था। उसने उत्सुकता से पूछा कि ,''मुझे बता, उसने क्या बताया था ?'' जो बात करनी पहले मुझे कठिन लग रही थी, इसकी उत्सुकता देखकर आसान हो गई। ''उसने यह बताया था कि तुम्हारे पति ने पहली रात तुम्हारे साथ कोई ऐसा अमानवीय व्यवहार किया कि तुम डर गईं। रात में जब वह सो रहा था, तुम कोठे पर से कूद कर रातों रात दौड़ते हुए अपने घर पहुँच गई थीं।'' शर्मिंदा-सी मुस्कराहट लाकर वह बोली, ''सब बकवास ! मैं जानती हूँ कज़ाक को, कहानी अच्छी गढ़ लेता है। तरखाण (बढ़ई) जो ठहरा।'' इसके बाद वह चुप हो गई। मैंने फिर पूछा, ''कज़ाक की कहानी की बात छोड़ो, तुम अपनी आपबीती बाताओ।''
''मैं क्या सुनाऊँ। मैं कुछ दिन वहाँ रही थी, फिर वापिस आ गई। लौट कर फिर मैं गई ही नहीं वहाँ।''
''क्यों नहीं गई वहाँ ?'' पूछने की मेरी हिम्मत न पड़ी। अगर पूछती भी तो उसने कह देना था, ''मार गोली, तूने मुर्दे ज़रूर उखाड़ने हैं कब्रों से ?'' उसके पश्चात् हम कुछ पल अपने अपने संसार में खोई हुई बैठी रहीं। ''क्यों ?'' वाला प्रश्न तलवार की भांति सिर पर लटका हुआ था। अचानक मुझे शरारत-सी सूझी। मैंने मज़ाकिया लहज़े में कहा, ''कज़ाक की बात छोड़ परे। पर अड़िये, यह तो बता दे मुझे कि जीजा का नाम क्या था ? कहाँ रहता था और काम क्या करता था ?''
''यहीं कहीं इसी शहर में फलाने दफ्तर में... अब पता नहीं कहाँ होगा।''
''रूठा किस बात से था ?'' मेरे सवाल का जवाब देने के बजाय वह तमक कर बोली, ''तेरा भजन सिंह किसलिए रूठा था ? तू बता सकती है ?''
मैंने कहा, ''कहाँ दादी का मरना और कहाँ ओकड़ू बैल ?''
''ना, ओकड़ू बैल कैसे हुआ ? मैं क्यों नहीं पूछ सकती ?'' वह झट से बोली।
''पूछ सकती है, पर पहले मैंने पूछा था। चल पूछ, मेरे बारे में क्या पूछना है। मेरा तो ओपन सीक्रेट है। चन्न(चाँद) चढ़ा, सबने देखा। बल्कि ऐड़ियाँ उठाकर देखा। चाँद चढ़े कहीं छिपे रहते हैं भला ?''
वह खूब हँसी। हँसते-हँसते उसकी आँखें सजल हो उठीं। शायद उसे मुझसे इतनी दिलेरी की आस नहीं थी। उसे खुश देख मेरा हौसला और बढ़ गया। मैंने उसे दोनों कंधों से पकड़कर प्यार से झकझोरते हुए कहा, ''सुन लिया ना ? मैं तेरी तरह नखरे नहीं करती। अब बता बच्चू, कैसे बीती...।'' मैंने वाक्य पूरा कर दिया था।
''तू बडी बेशर्म है।'' उसने मुझे धौल जमाते हुए कहा।
''बेशर्म तो मैं ज़रूर हूँ, पर बेईमान नहीं। मैं तेरी तरह खुलकर बात करने से नहीं डरती।''
''अब तू मुझे नंगा करेगी ?'' उसने दूधिया दांतों की हँसी हँसते हुए शरमा कर कहा। उसके अगले पले ही मैंने सोचा, 'छोड़ रे मन, मुझसे बड़ी है। थोड़ी ओट ही अच्छी होती है। किसी दूसरे को नंगा करने से पहले अपने आप को भी निर्वस्त्र करना पड़ता है।'
''चल छोड़ परे।'' कहकर मैं सहज सी होकर बैठ गई। उसने भी जैसे सुख की साँस ली। सारी बात ढकी की ढकी रह गई। अब सोचती हूँ, अगर थोड़ा-सा संकोच और उतारा होता या थोड़ा-सा उसे और गुदगुदाया होता तो मेरे कई प्रश्नों के उत्तर मुझे मिल गए होते।
विवाह के विषय में प्रश्न अभी अधूरे पड़े थे कि मेरे जेहन में उसकी बीमारी वाली बात उभर आई। असल में, मैंने अपनी ज़िन्दगी में ऐसी बीमारी कभी देखी-सुनी नहीं थी कि किसी को इस तरह बिजली के करंट जैसे झटके लगते हों और वह किसी से कोई वस्तु न पकड़ सकता हो। न किसी को स्पर्श कर सकता हो, पर ओट में जाकर काम सारे कर सकता हो। दिमागी तौर पर पूर्ण चेतन भी हो। मैं उस लहर-सी के बारे में सोचती कि यह कहाँ से उठती है और शरीर को झकझोरती हुई शरीर के किस हिस्से में जाकर ठहरती होगी। इस तरह मैं मन ही मन उस बीमारी के कारण तक पहुँचने के लिए व्यर्थ कोशिश करती रहती। मन ही मन खीझती रही। जब किसी परिणाम पर न पहुँच पाती तो अपने आप से कहती, ''तू कोई चिकित्सक है जो इतनी दरयाफ्त करती है। छोड़ परे।'' सवाल बेशक आज भी ज्यों का त्यों मेरे जेहन में लटका हुआ है, पर मैं चुप हूँ। इसका एक ही कारण है कि हम असलियत से बहुत दूर है। जो कुछ हमें दिखलाई देता है, या जो कुछ हम सुनते हैं, देखते हैं, सच उससे कोसों दूर किसी ओट में मुँह छिपाये बैठा होता है। इन सारे प्रश्नों के बावजूद मैं सुखवंत को कभी यह शो नहीं होने देती कि मैं उसकी बीमारी के विषय में क्या सोचती हूँ।
उम्र का तकाजा था या बीमारी का ज़ोर, बीमारी के झटके उन दिनों लगते भी बहुत थे। किसी से कोई चीज़ हाथ में पकड़ नहीं सकते थे। किसी के सामने कुछ खा नहीं सकते थे। मर्द तो क्या कोई औरत का हाथ भी नहीं लगने देते थे। तुरन्त इसे करंट लग जाता था। आम तौर पर तब ये परायों की तरह दूसरों की ओर देखते, रुक-रुक कर बात करते। इनकी दृष्टि में भी किंचित-सा फ़र्क़ आ जाता। आँखों की पुतलियाँ फैल जातीं। इस संबंध में मुझे एक छोटी-सी घटना याद आ रही है। यह उन दिनों की बात है जिन दिनों में कृष्ण कुमार रत्तू जालंधर टी.वी. पर लगा हुआ था और वह पंजाबी साहित्यकारों की मुलाकातें करवाया करता था। मैं और ढींडसा एक-दो बार जालंधर टी.वी. पर हो आए थे। वहाँ सुखवंत कौर मान की बात चली तो रत्तू ने सुखवंत को टी.वी. पर प्रोग्राम देने के लिए बहुत उत्सुकता दिखलाई और उसे लेकर आने की हमारी डयूटी लगा दी। हमने भी इसे भले का काम समझते हुए स्वीकार कर लिया। मुफ्त में एक साहित्यकार को ओबलाइज़ करने का मौका जो मिला था। इसलिए हमें अच्छा लगा।
हमने सुखवंत मान को प्रोग्राम के बारे में बताया तो वह जालंधर टी.वी. पर जाने के लिए तुरन्त मान गई। हम उत्साहित से टी.वी. सेंटर पहुँचे, मानो बहुत बड़ा काम करने जा रहे हों। रत्तू सुखवंत को देखकर बहुत खुश हुआ। जैसे तैसे सुखवंत ने आधा-अधूरा मेकअप करवा लिया। उधर रत्तू साहब ने भी सैट तैयार कर रखा था। हम तीनों कुर्सियों पर विराजमान हो गए। आवाज़ टैस्ट होने लगी। तीसरे नंबर पर सुखवंत ने बोलकर दिखाना था। सुखवंत एकदम हिल-सी गई। बीमारी के करंट बार बार आने लगे। माइक हिल-हिल जाता था। रत्तू ने हौसला फिर भी न छोड़ा। थोड़ा रुक रुक कर उसने यत्न किए। सुखवंत पसीने-पसीने हो गई थी। आखिर प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा। शायद उस दिन सुखवंत के स्थान पर रत्तू को अपने किसी अन्य साहित्यकार मित्र को बुलाना पड़ा था। अब अच्छी तरह याद नहीं। इस बात का सभी को दुख था। उसकी बेबसी देखकर हमदर्दी थी कि इतनी बढ़िया साहित्यकार किस नामुराद बीमारी का शिकार है। पर मुझे दुख और हमदर्दी के साथ साथ सुखवंत से गिला-सा भी था कि हमें तो उसकी बीमारी के बारे में अधिक जानकारी नहीं थी, पर उन्हें तो अपने बारे में पता था। उन्होंने आने के लिए 'हाँ क्यों की ? क्यों इतनी उत्सुकता दिखाई ?
इसी तरह शुरू शुरू में सुखवंत मान पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला में किसी फंक्शन पर आई। फंक्शन के बाद हमें उसे घर लेकर जाना था। उन दिनों ढींडसा के पास राजदूत मोटरसाइकिल हुआ करता था। हम तीनों ने मोटरसाइकिल पर जाना था। यह सोचकर कि सुखवंत पीछे बैठकर कहीं गिर ही न पड़े, हमने उसे बीच में बिठाने का फैसला लिया। वह बैठ भी गई। हम धीरे-धीरे चल पड़े। पुल पर पहुँचते ही अचानक इन्हें बीमारी का ऐसा दौरा पड़ा कि रुकने का नाम ही न ले। हारकर मोटरसाइकिल रोकना पड़ा। उतर कर मैं बीच में बैठी और ये पीछे कैरिअर को पकड़कर बैठ गए।
घर जाते हुए मुझे इसने अपनी बीमारी का एक नुक्ता समझाया कि जब मुझे ऐसा अटैक पड़े तो तुम मेरा कंधा टच कर दिया करो। इससे करंट कम(अर्थ) हो जाता है। मैंने सोचा शायद इसी कारण कई बार वह खुद ही कंधों पर हाथ रख लेती है। शायद इसी कारण कई बार वह अजीब सी लगती है। पर जैसे जैसे समय बीत रहा है, उम्र बढ़ रही है तो इन करंट के झटकों की रफ्तार भी धीमी पड़ गई है। संख्या कम हो गई है। कई बार कितनी कितनी देर बैठकर नार्मल व्यक्ति की तरह हमसे बातें करती रहती है। उस समय मैं उन पिछले समयों को भूल जाती हूँ। इस नामुराद बीमारी को तन पर झेलने के बावजूद यह एक अच्छी कहानीकार है। साहित्यिक जगत में इसका स्थान है। पाठकों में मान-सम्मान है। बहुत सारे पाठक इसके चहेते हैं। यह साहित्यि उद्देश्य के प्रति जागरूक है। इरादे की पक्की और विचारधारा के तौर पर स्पष्ट है। वैसे हर साहित्यिक व्यक्ति इसकी बीमारी से बेलाग रह कर इस के साथ आदर के साथ बात करता है। अब उसके हाथ में चाय का कप कोई नहीं पकड़ाता। वह स्वयं ही ओट-सी करके उठा लेती है। पीठ करके पी भी लेती है। पहले तो अनेक बार वह भीड़ में कुछ खाती-पीती भी नहीं थी।
आज तक मुझे न कभी इस बीमारी का कारण समझ में आया और न सुखवंत ने खुलकर ही मुझे बताया है कि कब, कैसे और किन स्थितियों में ऐसा होना घटित हुआ। या फिर इसका कहाँ से इलाज चला। सारी जिज्ञासा के बाद बस एक बात का पता चला है कि इन्हें दस-बारह बरस की उम्र में बुखार चढ़ा था और उसके बाद से ही ऐसा होने लगा। एक दिन इनकी छोटी बहन रमन से भी मैंने इनकी बीमारी के बारे में पूछा तो उसने भी मुझे यही उत्तर दिया। एक दिन अकस्मात् ऐसा मौका बना कि हम किसी ऐसे विषय पर बात कर रही थीं जिसका संबंध किशोर उम्र के सैक्स से था। बात चलते-चलते सैक्स-विकृति पर पहुँच गई। फिर उनके कारणों की खोज की ओर चल पड़ी। मैंने पढ़ी-पढ़ाई और सुनी-सुनाई बातों का जिक्र करते हुए कई झूठी-सच्ची, मनगढंत और कुछ आँखों देखी (जैसे इस उम्र में दौरे पड़ना, छाया का होना आदि) बीमारियों का जिक्र किया। साथ ही, बचपन में घटित हादसों की प्रतिक्रिया के बारे में बातों की जुगाली होने लगी। मुझे लगा, कहीं मैं किसी की पदचाप नापते नापते तो नहीं चली जा रही कि अचानक सुखवंत ने कोई दूसरी ही बात शुरू कर दी। मुझे लगा जैसे मेरा सजा सजाया मंच उखड़ गया हो। बुरे के घर तक जाने की मेरी भी हिम्मत न पड़ी। न ही मैंने दिलेरी दिखाई। अपने आपसे कहा, 'छोड़ रे मन, तू किस राह पर चल पड़ा।' मैंने बात का पीछा ही छोड़ दिया। पर मुझे इतना भर समझ में आ गया था कि कि सुखवंत न कभी अपने विवाह के बारे में, न बीमारी के बारे में और न ही प्रेम संबंधों के बारे में खुलकर नहीं बताने वाली। क्योंकि यह सहज होकर बात ही नहीं कर सकती। या यह कह लो- 'जट्ट मचला खुदा को ले गए चोर।' वैसे वह शरारती मूड में कभी कभी अपने चहेतों की बात छेड़ तो बैठती है पर फिर बात बीच में ही अधूरी छोड़ देती है। बात को किसी किनारे पर नहीं लगाती।
एक दिन दवी के घर बैठे प्रेम संबंधी बातें चल पड़ीं। बात असल में मेरी कहानी 'रुत्त कुरुत्ती' को लेकर चली थी। इसने कहा कि 'ऐसा अहसास मेरे पास नहीं। मुझे तेरे से ईर्ष्या होती है।' मैंने कहा, ''तू अपने आप को गुप्त रखती है। कई तरह के छिपाव करती है और मैं अपने आप का जुलूस निकालती हूँ।'' मैंने और दवी ने फिर चटखारा लेते हुए कहा, ''तेरे बारे में हमें सब मालूम है। अगर तू नहीं बताती तो हम तुझे तेरे बारे में बता देती हैं।'' वह बोली, ''बताओ फिर...।'' मैंने उससे कहा, ''सुन फिर... मैं जब इंग्लैंड गई थी तो हरजीत अटवाल(पंजाबी कथाकार-उपन्यासकार) ने मुझसे तेरा रिश्ता मांगा था।''
''चल! बेशरम न हो तो।''
''बेशरमी की कौन सी बात है। सच बात है यह। उसे तेरे किसी चाहने वाले ने कहा था कि यार, तू सुखवंत से मेरा विवाह करवा दे। और हरजीत ने मुझसे तेरे बारे में पूछा था कि क्या मान राजी हो सकती है ? मैंने कहा कि विवाह करवाने वाले को सुखवंत की उम्र और उसकी बीमारी का पता है ? उसने कहा- हाँ। वह आदमी चण्डीगढ़ से ही इंग्लैंड गया था। शायद उसने कोई टैक्सट बुक बोर्ड का ही कोई व्यक्ति बताया था जो किसी समय तेरा फैन रहा होगा। यह तू जानती होगी कि वह कौन था। वह भी लगभग तेरी उम्र का ही है। उसकी पत्नी मर चुकी है। पर मैंने हरजीत से कहा- मुश्किल लगता है। इस उम्र में वह सारे कामकाज कैसे कर सकेगी ?''
''चल, भांजी मार न हो तो। '' उसने बड़े ध्यान से बात सुनने के बाद मुझे कहा और फिर कहने लगी, ''मेरे घर का काम तू कर देती है ना ? मैं ही करती हूँ। बहन का काम भी मैं ही करती हूँ। मुझे पता करके बता, वह बंदा कौन था ?''
मैंने देखा, बात करते समय वह बुरी तरह ब्लश कर रही थी मानो सचमुच विवाह करने के लिए तैयार बैठी हो। उसके बाद कई बार उसने इस बात का मुझे उलाहना भी दिया कि तूने भांजी मारी। आम तौर पर वह ऐसी जज्बाती चाहतों की बात शुरू तो कर बैठती है, पर बाद में उसे निकलने का रास्ता नहीं सूझता, फिर या तो कहेगी, 'वह मेरा फैन था', या कहेगी, 'वह मुझसे बहुत छोटा था। बस, चिट्ठी-पत्तरी होता था।' कहकर पीछा छुड़ा लेगी। या फिर कहेगी, 'चल, बेशरम ना हो तो...।' और कई बार तो वह बात को हिलोरा भी नहीं देती है। उस बैठक से इसे यह लाभ हुआ कि उसके बाद इसने प्यार संबंधी कुछ सूक्ष्म पलों के अहसास भोगते हुए 'शंख' मैग़जीन में खुशबू सी सतरें लिखीं। दवी ने मुझे पढ़कर सुनाते हुए कहा, ''देखो तो कैसे अपनी बातों को पेश किया है ? बड़ी चुस्त है बुढ़िया।''
'बुढ़िया' शब्द से एक बात और स्मरण हो आई है। पाकिस्तान दौरे के समय यह मेरे संग गई थी। एक दिन इसका ध्यान कहीं और था। यह कार में से उतर ही नहीं रही थी। कुछ देर इंतज़ार करने के बाद मैंने इसके करीब जाकर कहा, ''बुढ़िया, अब उतर भी आ।'' यह मेरे गले पड़ गई। इसने मेरी वो हालत की कि तुम सोच भी नहीं सकते। मुझे हाथ जोड़कर माफी मांगनी पड़ी और कहना पड़ा, ''ले भई, तू मुझे सौ बार बुढ़िया कह ले।'' इस पर कहने लगी, ''मैं तुझे क्या बुढ़िया कहूँगी, तू है ही बूढ़ी।'' मैंने मिन्नतें करके उस दिन बुढ़िया को कार से बाहर उतारा। वैसे यह इन तीन बातों के बारे में खुलकर या सहज होकर बात नहीं कर सकती। पर मैं हैरान हूँ, साहित्य सृजन के समय यह सहज कैसे रहती है। बन-ठन कर जब यह बाहर निकलती है तो निरी तितली बनी होती है। कपड़ा पहनने का सलीका है, पसन्द सचमुच सरदारी है। अगर काम करते हुए देखो तो एक साधारण व्यक्ति से अधिक काम करती है। बहन रमन के अधिकतर कामकाज यही करती है। वैसे बहुत सी बातों में बेझिझक है। कोई कम्पलैक्स नहीं इसे। अपने हित की बात यह खुलकर दूसरे से कर सकती है। कई ईनाम, सम्मान प्राप्त कर चुकी है। मेरे से कहीं अधिक जुगाड़ी है।
एकबार इसके घर गई तो इसने बताया, ''इसबार भाषा विभाग का ईनाम मुझे मिलते मिलते रह गया। किसी ने मेरे नाम की जगह फलांने बंदे का नाम प्रपोज कर दिया। मैं भाषा विभाग का बॉयकाट करूँगी।'' इस संबंध में इसने एक पैंफलिट भी निकाला। मुझे संग लेकर यह भाषा विभाग के फंक्शन में गई। समारोह में इसने बॉयकाट वाला पैंफलिट बहुतों को बांटा। मुझे भी बांटने के लिए कहती रही, पर मेरे लिए ऐसा कर सकना संभव नहीं था। मैंने मना कर दिया।
इसके पश्चात् हमारी मेल-मुलाकातें लगभग कम हो गईं। मैं अपने कामधंधों में व्यस्त हो गई और यह तेजी से सृजन प्रक्रिया से जुड़ गई। हम एक दूजे से लगभग टूट ही गईं। हमने फैक्ट्री एरिया वाला घर बेचकर अर्बन एस्टेट में बना लिया। मैं स्कूल से यूनिवर्सिटी में आ गई। एक दिन गर्मियों की एक दोपहर यह मेरे घर आ धमकी। 'धमकी' शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कह रही हूँ कि इसका घर में प्रवेश हमेशा उतावला, बेचैनी भरा और धमाके की तरह ही होता है। मैं हैरान की हैरान रह गई कि इसने मेरा घर ढूँढ़ कैसे लिया। अब पूरी तरह याद नहीं कि इसने घर कैसे खोजा। शायद, कज़ाक ही इसे मेरे घर छोड़कर नीचे से ही लौट गया था। यह चुपके से अन्दर घुसी, फिर तेजी से सीढ़ियाँ चढ़कर मेरे पास आ खड़ी हुई। उस समय मैं कुछ लिख रही थी। बोली, '' हूँ....। लिख रही हो ? क्या लिख रही हो ?'' इसने यूँ कहा मानो मैं इससे चोरी कुछ लिख रही होऊँ। उन दिनों मैं अपनी कहानियों की किताब 'एक पैर वाला घर' तैयार कर रही थी। मैंने कहा, ''कहानियों की किताब।'' ''अच्छा !'' इसने उभर कर कहा। '' क्या नाम रखा है ?'' इसने छूटते ही पूछा। मैंने कहा, ''एक पैर वाला घर।''
''अच्छा नाम है। मुझे ऐसे नाम नहीं सूझते।''
''जो तुझे सूझता है, वह मुझे नहीं सूझता - 'भखड़े दे फुल्ल'’ 'जजीरे', 'वो नहीं आएंगे'। मैं ऐसे नामों के बारे में सोच भी नहीं सकती।''
''अच्छा !'' इसने कहा। इसका आना मुझे यूँ लगा मानो यह मेरे साथ काई खुन्नस निकालने आई हो। वैसे भी, दूसरे साहित्यकारों के बारे में खुन्नस निकालना इसके स्वाभाव में शामिल है कि कोई क्या लिख-पढ़ रहा है। या किस ईनाम के लिए ताबड़ तोड़ यत्न कर रहा है। उस दिन भी मुझे ऐसा लगा था मानो यह विशेष तौर पर मेरे बारे में कुछ जानने की तमन्ना से ही आई है कि देखूं, मैं साहित्यिक क्षेत्र में कितनी सक्रिय हूँ।
दो दिन यह मेरे पास ठहरी। दूसरे दिन सोचा, क्यों न मैं इससे अपनी फाइनल की गई कहानियाँ पढ़वा लूँ और इसकी राय भी ले लूँ। मुझे अपने लिए फुर्सत निकालने और इसे बिजी रखने का भी एक रास्ता मिला था। मैंने इससे पूछा तो झटपट बोली, ''ला पढ़ा।'' इसकी उत्सुकता देख मैंने इसे पहली पाँच कहानियाँ जिन्हें मैं दुरस्त कर चुकी थी, थमा दीं। साथ ही, यह भी कहा कि ये पाँचों कहानियाँ पढ़कर तुम्हें अपनी राय ज़रूर देनी है। यह झट अपना झोला-सा उठाकर दूसरे कमरे में चली गई। लंच तक इसने पाँचों कहानियाँ पढ़ डालीं। पढ़ने के बाद यह अपने कंधों पर हाथ रखते हुए रुक रुक कर बोलते हुए कहने लगी, ''ले, पढ़ लीं मैंने तेरी कहानियाँ।''
''कैसी लगीं ?''
''अच्छी लगीं। तू बहुत गहरी है। बड़ी चीज़ है तू। अपने बारे में बताती नहीं, अन्दर ही अन्दर किताब तैयार कर छोड़ती है।''
मैंने कहा, ''तुम नहीं करते ?''
बोलीं, ''मैं चार किताबें लिखे बैठी हूँ। कोई ढंग का प्रकाशक ही नहीं मिल रहा।''
''तुम्हें तो बहुत मिल जाएंगे, मेरी बात करो।''
''तुम्हें मान जो टकरा हुआ है।'' इसने मजाकिया लहजे में कहा।
''वह प्रकाशक नहीं है न। वह मेरी कहानियाँ पढ़नी तो एक तरफ रहीं, चिमटे से भी नहीं उठाता। कहता है, फिजूल की कहानियाँ लिख रही हो। ये कहानियाँ उसे बिलकुल पसन्द नहीं।''
''नहीं, यह बात तो नहीं। तू अच्छा लिखने लग पड़ी है।'' इसने जब यह कहा तो मुझे लगा मानो यह बात डॉ. दलीप कौर टिवाणा मुझसे कह रही हों।
''अच्छा फिर, तुम मुझे इन कहानियों पर अपनी राय लिखकर दो।''
लंच के बाद यह फिर पहले की तरह दूसरे कमरे में जाकर बैठ गई। ढाई तीन पृष्ठ लिखकर यह मेरे पास आई, ''ले पकड़। तू भी क्या जानेगी ?'' मैंने काग़ज़ पकड़े, पढ़े और मुझे सुखवंत द्वारा की गई टिप्पणी अच्छी लगी। 'ठरी रात' के बाद इसने दूसरी बार मेरी कहानियों को धैर्य से पढ़ा था और मुझे लगा मानो पहलीबार इसने मुझे कहानीकार के तौर पर तस्लीम किया हो। मुझे सुखवंत की टिप्पणी पढ़कर पहलीबार ही यह भी लगा कि सुखवंत को कहानियों को देखने-परखने का भी ढंग आता है। सुखवंत की टिप्पणी पढ़कर अचानक मुझे एक ख़याल आया कि क्यों ने इस टिप्पणी को किताब के बैक पर छपवा लिया जाए। साथ ही, कुछ अन्य समकालीन लेखकों की टिप्पणियों को भी छापा जाए। 'हाँ, बिलकुल ठीक है। आइडिया नया है।' मैंने अपने आप से कहा। बहुत खूब रहेगा और बग़ैर किसी से सलाह किए मैंने अपने विचार को वास्तविक रूप दे दिया। लेकिन इस बात का मुझे बाद में पता चला कि यह मेरी बहुत बड़ी गलती थी। बेशक मैंने इस गलती को उस समय नहीं स्वीकार किया था। आलोचकों को तर्क देती रही थी कि मैं ठीक हूँ।
मेरे बहुत से करीबी लोगों ने हालांकि इस बात का बुरा मनाया। जो मेरी कहानियों को पहले सूंघते भी नहीं थे, वे भी मुझे बड़ी लेखिका सिद्ध कर रहे थे। मेरे एक चाहनेवाले आलोचकनुमा साहित्यकार ने तो यहाँ तक कह दिया था कि 'अगर तूने फलांनी लेखिका की टिप्पणी न दी होती तो मैं तुझे इस पुस्तक पर ईनाम दिलवा देता।' खैर ! मैं अपनी बात पर डटी हुई थी। अपने आप को ठीक सिद्ध करती रही। एक तरफ तो मैं ऐसे कच्चे-पक्के साहित्य प्रेमियों, करीबी लोगों से बहसों में घिरी हुई थी, दूसरी तरफ मुझे सुखवंत मान के गुस्से का भी शिकार होना पड़ा। मैं हैरान रह गई जब वह 'एक पैर वाला घर' के लोकापर्ण समारोह के समय पुस्तक के बैक पर छपे अपने शब्द देखकर छटपटा उठी थी। उसका व्यवहार बदल गया था। एकदम उछल कर बोली, ''यह तूने क्या किया ? मैंने ऐसा कब लिखा था ?'' उसके बदले हुए व्यवहार को देखकर मैं दंग रह गई। यह कैसा व्यवहार था उसका ? मैं तो यह सोच रही थी कि सहेली-बहन सरीखी सुखवंत अपने लिखे शब्द पढ़कर खुश होगी, क्योंकि मैंने उसे पहली बार प्रमुखता दी थी। पहले तो मुझे कुछ नहीं सूझा। फिर मैंने कहा, ''हद हो गई तुम्हारी भी सुखवंत ! तुम्हारी हाथ की लिखी टिप्पणी अभी भी मेरे पास है। मैं अभी भी तुम्हें दिखा सकती हूँ। एक भी शब्द नहीं बदला।'' उसने फिर कहा, ''तू बड़ी चालाक है।''
''हाँ।'' मैंने कहा, ''मैं चालाक हूँ पर बेईमान नहीं। क्योंकि मैंने तेरी लिखी बातों में से वही बातें चुनकर लिखीं जो मेरे हक में जाती थीं। तू यह सोचती है कि तेरे इन शब्दों से मुझे अधिक मान्यता मिल जाएगी।'' मैं भी जैसे ताव में आ गई थी। एक बार तो मेरा मन हुआ कि अपने मुँह पर स्वयं ही थप्पड़ मार लूँ और कहूँ, ''फिटे मुँह ! तेरे नये आइडिये के बलजीत।'' खैर ! यह नाराज सी होकर दूर चली गई। पर मैंने इसकी जाते हुए सफेद आँख देख ली थी। मेरे मन में चुभन बरकरार रही। गोष्ठी के बाद बाहर से आए मुख्य वक्ताओं और कुछ अपने खास लोगों को खाने के लिए प्रैस क्लब लेकर जाना था। मैंने जानबूझ कर सुखवंत को प्रैस क्लब जाने के लिए नहीं कहा। इसने जाने के लिए इधर-उधर कई प्रयत्न किए। जाने वाली कई सवारियों से साथ जाने के लिए पूछती रही। मैं इसे ऐसा करते चोरी-चोरी देखती रही और गुस्से को मन ही मन झेलती रही। जब मैं अपने परिवार सहित प्रैस क्लब पहुँची तो मैं दंग ही रह गई। मुझसे पहले यह वहाँ पहुँची हुई थी और बैठी भी मेरे वाले टेबिल पर थी। चल रही बातों में दख़ल भी देती रही। मैंने संग बैठी किसी लेखिका से बात साझा करते हुए पुस्तक के बैक पर लिखे सुखवंत के शब्द दिखाए और साथ ही वे बिन्दू भी दिखाए जहाँ से बात छोड़कर अगली बात आरंभ की गई थी। वह उछलकर बोली, ''बात का पीछा भी छोड़ अब।'' ऐसे वह बात का पीछा छोड़ भी देती है। ज़रूरत पड़ने पर बात को जल्द भुला भी देती है। शायद इस बात में वह मुझसे 'बड़ी' है।
वहाँ मैंने इसे इस बात का भी ताना मारा कि ''तू अपनी गोष्ठी में मुझे जानबूझ कर नहीं बुलाया करती है। क्या तू मुझे जानती नहीं ? मेरे सामने तू सरवमीत को किताब देने गई। मैंने किताब मांगी तो तूने कहा- एक ही कॉपी लेकर आई थी। जबकि तेरा झोला इस बात की गवाही दे रहा था कि उसमें और भी पुस्तकें थीं। क्योंकि तू जानती थी मेरे बारे में कि बलजीत भी किसानी परिवार से आई है और बोलते समय बात बोल भी जाती है। लेकिन तुझे तो वो बात करनी होती है कि मावां धीआं सीरा रिद्धा, मिट्ठा भैणे मिट्ठा( माँ-बेटी ने सीरा बनाया, बोलीं-मीठा बहन मीठा।)''
खैर, इन उलाहनों-शिकवों के बाद भी पता नहीं क्यों उसने एक बार के अलावा मुझे अपनी किसी गोष्ठी में नहीं बुलाया। और जिस गोष्ठी में उसने मुझे बुलाया था, उसमें मैं खामोश बैठी रही थी।
सुखवंत में एक गुण अधिक है। वह जहाँ चाहे पहुँच जाती है, उसे न कोई थकान होती है, न ऊब और न ही कोई दिक्कत। वह न किसी का इन्तज़ार करती है, न किसी के साथ की इच्छा रखती है। पर जहाँ ज़रूरत समझे, वहाँ ऐसा कर भी लेती है। उसकी हड्डियों में अभी पूरी नहीं तो पौनी जान ज़रूर है। मैं जब उसे इस बारे में बताती हूँ तो वह कहती है, ''देखना, नज़र न लगा देना।'' या फिर कहेगी, ''तू मेरी दुश्मन नंबर एक है।'' मैं हँसकर कह छोड़ती हूँ, ''काश मेरी नज़र लगती होती तो मैं कइयों को डंक देती।'' वह किसी किस्म की औपचारिकता से मुक्त है। वह जो है, सो है। अर्बन एस्टेट वाले घर में जाने से भी पहले यह एक बार मेरे फैक्ट्री एरियावाले घर में भी अचानक आई थी। दोपहर का समय था, हम लेटे हुए थे। बाहर वाले बड़े गेट की कुंडी अड़ा रखी थी। कभी कभी बाहर जाकर कुंडी खोलने से बचने के लिए हम कुंडी पूरी तरह नहीं अड़ाते थे ताकि घंटी बजाने वाले परिचित को खिड़की से झांक कर देखने के बाद कह सकें कि उंगली से कुंडी ऊपर उठाकर अन्दर आ जाओ। बहुत से परिचितों को यह भेद पता भी था। वे अक्सर बेल भी देते और कुंडी ऊपर उठाकर अन्दर भी आ जाते। जो अनजान होते, उनका भी कुंडी उठाने-गिराने का खटका हमें सुनाई पड़ जाता। पर यह ? तौबा ! बिलकुल जाग रहे थे। न इसने बैल दी, न कुंडी का कोई खटका होने दिया और न ही इसके पैरों की आवाज़ हमें सुनाई दी। आगे, कमरे की कुंडी भी नहीं लगी हुई थी। कमरे में घुसते हुए यह खांसी भी नहीं। कमरे के बीचोबीच खड़े होकर जब इसने 'अच्छा...' कहा तो मैं चकित रह गई। समझ में नहीं आया कि इसे क्या कहूँ या क्या पूछूँ कि उसने हमारे बारे में क्या जानना चाहा था। मुझे गुस्सा तो बहुत आया पर मैं पी गई क्योंकि ऐसा करना मेरी सोच का हिस्सा नहीं था। मैं बहुत करीबी व्यक्ति के घर में घुसने से पहले उसका नाम लेती हूँ या किसी तरह की बाहर से ही कोई बात करती हूँ। उस दिन ईश्वर का शुक्र मनाते हुए मैं झटपट उठ खड़ी हुई और अपना गुस्सा छिपाते हुए मैंने अपनी हैरानी ज़ाहिर की, ''कमाल कर दिया ! कैसे दबे पांव अन्दर आ घुसे हो जैसे बिल्ली शिकार पकड़ने के लिए घात लगाती है।'' मुझे अपने आप पर भी अफ़सोस हुआ कि मैं कितनी आलसी हूँ। खैर ! यह बहुत पुरानी बात थी। अब सुखवंत मेरे घर कम ही आती है। वह जानती है, कई खटी-मीठी सुननी पड़ेंगी। उसकी छिलाई भी होगी। कई ताने-उलाहने भी सुनने पड़ेंगे। पर सच्ची बात यह है कि ताने-उलाहने देने में वह मुझसे अधिक होशियार है। मुझसे बड़ी और तीखी बात कह जाती है। नहले पर दहला ज़रूर फेंकेगी। पता नहीं, यह कैसा रिश्ता है जो फूलों जैसा भी है और कांटों जैसा भी। मुझे उसकी कुछ बातें चुभती रहती हैं। पर यह सोच कर कि ज़िन्दगी भी कितनी रह गई है या वक्त की कमी करके भुला देती हूँ। भुला तो वह मुझसे भी ज्यादा देती है पर बात बात पर मुझे 'शैतान' या 'चालाक' ज़रूर कहती रहती है। पर मुझे मेरी शैतानी का पता नहीं चला। अगर छोटी मोटी करती भी हूँ तो वह मुझे पकड़ लेती है। चालाकी उसे मुझसे ज्यादा आती है। पकड़ मैं भी लेती हूँ लेकिन बाहर कम निकालती हूँ। जब कहीं मौका मिले तो कोई कसर भी नहीं रहने देती। अजीब रिश्ता है हमारा, बहनों वाला भी है और... दूसरा आप स्वयं ही समझ लो। कुछ लेखकों को हमारा यह निरा औपचारिक-सा रवैया हैरानीजनक लगता है। पर हमें नहीं।
भाषा विभाग की ओर से जब सुखवंत को बाल साहित्य लेखन का श्ररोमणि अवार्ड मिला तो मैंने कई दिनों के बाद बधाई दी। बड़ी खुश थी। कह रही थी, ''पैरों के नीचे बटेर आ गया।'' मैंने कहा, ''यह सारी तेरे द्वारा बांटे गए पैंफलिट की मेहरबानी से हुआ है।''
''हाँ, हो सकता है पर इसबार उन्होंने मुझे देना ही देना था। मेरा नाम कई सालों से पीछे हटाया जा रहा था।''
मैं पुरस्कार वितरण समारोह में विशेष तौर पर गई। मुझे हालांकि भाषा विभाग की तरफ से निमंत्रण मिला था पर मेरे साथ की कई सहेलियाँ भी जाने के लिए तत्पर थीं। लेकिन वहाँ सुखवंत ने मेरे साथ आँख नहीं मिलाई। जब अन्त में वह मुझसे टकरा ही गई तो मैंने बधाई दी। बोली, ''यह कैसी बधाई। तुझे भी मिल जाएगा। पर मुझे पुरस्कार गलत मिला है। कहानीकार के तौर पर मिलना चाहिए था, वैसे लिखा तो मैंने बच्चों के लिए भी बहुत है। मेरी चौदह-पंद्रह किताबें छप चुकी हैं।'' उसकी पैंफलिटों जैसी चौदह-पंद्रह किताबों में से तो मैंने एक भी नहीं पढ़ी थी, इसलिए मुझे अपनी बेसमझी पर भी अफ़सोस हुआ।
''क्या लेखक को अपनी नुमाइश आप लगानी चाहिए ?'' यह सवाल मेरे जेहन में खड़ा हो गया। एक अन्य समर्थ लेखक को जब मैंने बधाई दी तो उन्होंने शर्मिन्दगी सी महसूस करते हुए सिर झुका लिया। सोचा, हमारे साहित्यकारों की ज़मीर अभी थोड़ी-बहुत जागती है।
इसी तरह एक बार फिर सुखवंत से उलझने का मौका बना। एक दिन पाँच सात साहित्यकार सहेलियाँ मेरे घर पर एकत्र हुईं। सुखवंत भी उत्साह में भरकर पहुँची। बहुत सारी बातें करने के पश्चात् हम सबने मिलकर सुखवंत से ईनाम की पार्टी मांगी, पर यह किसी बात पर आए ही नहीं। आनाकानी सी करती रही। हमने बहुत च्यूटियाँ काटीं पर यह टस से मस न हुई। आखिर में बोली, ''मुझे इस ईनाम की कोई खुशी नहीं।'' हमने कहा कि हमें तो बहुत खुशी हुई है। तुम्हें क्यों नहीं हुई ?'' इस पर बोली, ''यह ईनाम मुझे पंद्रह साल पहले मिलना चाहिए था।'' हम अपना सा मुँह लेकर चुप हो गईं।
उस दिन मैंने सुखवंत को यह भी बताया कि भई, मैंने तेरे बारे में कुछ लिखना है, पर ईनाम मिलने के कारण नहीं, मैं किसी और परपज़ के लिए लिख रही हूँ। झट बोली, ''पढ़वा लेना मुझे।'' ''अच्छा।'' तो मैंने कह दिया, फिर तुरन्त सोचा, ''तू बात कहकर तो झट भूल जाती है। समय पर मुकर भी जाती है, क्या करूँगी तुझे पढ़ाकर। तू तो कह देगी, यह बात तो हुई ही नहीं थी। बेशक बाद में यह कह दे- भई, अब मेरी स्मरण शक्ति कम हो गई है। या बात को बदलकर कह दे कि तूने गलत समझा है। तुझे मेरी समझ ही नहीं आई। कई बार मौका पड़ने पर कुछ और बात भी बना सकती है। कहेगी - सच, मुझे बातें भूल भी जाती हैं।
पिछले तीन वर्षों से मेरे मोहाली रहने के कारण हमारे मिलने जुलने के सबब बढ़ गए हैं लेकिन अब हम एक दूजे के घर पहले की तरह अचानक नहीं जा धमकतीं। फोन करके आती जाती हैं। पर अनेक बार जब मैं इसे फोन करती हूँ तो यह अक्सर घर नहीं मिलती। कहीं गई होती है। मैंने कितनी बार कहा है कि मोबाइल फोन ले ले। शायद इसे मोबाइल फालतू की मुसीबत लगता है। अगर मैं कभी इसे घर में न होने का उलाहना देती हूँ तो तुरन्त कहेगी, ''तू तो खाली है, मुझे तो घर के छत्तीस काम करने होते हैं।'' फिर अपने काम गिनाने लग पड़ेगी। मोबाइल वाली बात पर अनजान सी बन जाएगी। या कहेगी, ''तू जानबूझ कर फोन उस समय करती है, जब में घर में नहीं होती।'' खैर ! कहा करते हैं न - 'या वाह (वास्ता) पड़े या राह पड़े।'
इत्तेफाक से हम दोनों को एक साथ पाकिस्तान जाने का अवसर मिला। हमारे साथ हालांकि कुछ अन्य लोग भी थे पर मैं, डा. परमजीत, सुखवंत और कुलदीप चारों का अलग ही ग्रुप था। सारंग लोग से चलते समय भेजने वालों ने सारी हिदायतें मुझे दीं। सारी पते-ठिकाने और फोन नंबर लिखवाए, जहाँ जाकर ठहरा जा सकता था। या फिर जिन लोगों से मिलना था या जिन जगहों पर जाना था, वे ब्यौरे भी दिए गए थे। हम चारों अनजान और अजनबी थीं। पहली बार चली थीं। हमारे साथ वाले लोग जिनसे मदद ली जा सकती थी, भी बिलकुल अनजान थे। अनजान जगहों पर घूमते हुए कुछ मुश्किलें आनी तो स्वाभाविक थीं, पर कुछ अपने अपने स्वभावों के टकराव के कारण घटित हुईं। जिसके कारण राह की अन्य दिक्कतों के साथ साथ बड़ी बदमगजी होती रही। हर जगह सफ़र के दौरान किसी न किसी बात पर हमारी बहस छिड़ जाती। सबसे बड़ी बीमारी इन्हें हर बात में इंटरप्ट करने की थी। अपना अहंकार जताने की। पहले बोलेगी नहीं, जब बोलेगी तो आगे बढ़कर अपनी बात करेगी। किसी के साथ मिलकर चलने की आदत नहीं। सफ़र के दौरान ग्रुप में चिलने का इसे बिलकुल कुछ पता नहीं कि सफ़र के दौरान दूसरे का भी ख़याल रखना होता है। अपने आप को पहल देते थे। जब भी कहीं का प्रोग्राम बनता तो यह उसमें शामिल न होती या शांत सी बैठी अपनी पोटली उलटती-पुलटती रहती। अगर उस प्रोग्राम में किसी तरह की कमीपेशी रह जाती तो झट कहती, ''मुझे तो पहले ही पता था। ऐसा ही होना था।'' या कहती, ''मुझे कौन सा तुम पूछती हो ?'' सुखवंत बहसने में मुझसे जितनी आगे है। टीच करने में उससे भी आगे। मुझे लगा मानो मैंने चालीस साल अध्यापक की नौकरी न की हो, सुखवंत ने की हो। भाषा के मसले पर तो हर समय पंगा पड़ा रहता और यह हमें दुरस्त करती रहती। यूँ हमारी बहुत सारी बातों पर बहस होती। टोका टाकी चलती रहती। पर हैरानी की बात तो यह थी कि थोड़ी देर चुप रहने के बाद यह झट वैसी ही हो जाती।
हम सबमें से परमजीत संधू शरारती थी। वह कई बार जानबूझ कर ऐसी बात छेड़ती जिस पर हमारे सींग फिर फंस जाते। नहले पर दहला गिरता। धीरे धीरे सभी बेगम बादशाह गिर पड़ते। आखिर में दोनों के हाथों में यक्के रह जाते तो यह ऊँची आवाज़ में बच्चों की भांति हँस पड़ती। परमजीत ताली बजा कर खूब हँसती। मैं कहती, ''मैंने भी तो बहन जी यही कहा था। हुई न अब मेरे वाली बात।'' कभी कभी हम इन बहसों में आनन्द भी लेतीं। यह कई छोटी बातें करके हमें हँसा भी देती। पर बहुत बार जब बचकाना सी हरकतें या बातें करती तो खास तौर पर मुझे खीझ आ जाती। खैर ! कई बार मान भी जाती है कि मुझे ग्रुप में विचरना नहीं आता। पर जब मैं दोबारा इसे यही बात कहूँगी तो तुरन्त पलटकर कहेगी, ''कौन कहता है ? मुझे बहुत मौके मिले हें। सोशल वर्क भी करती रही हूँ। मैं महिला संगठनों के साथ भी रही हूँ। पूछ क्या पूछती है ?'' और फिर सेखों, सुजान सिंह तथा अन्य कई लेखकों के चुटकले सुनाने लगेगी। बहुत बार वह अपनी बातें आप ही काट देती है। या बाद में वर्जन बदल लेती है। इस तरह इनकी शख्सीयत के बहुत सारे पहलू उघड़कर सामने आए। पर मैं सोचती हूँ, यह इनके वश में नहीं है। कुछ मनोवैज्ञानिक कारण हैं और कुछ बीमारी के कारण है। पहली बार मुझे यह अहसास हुआ कि सफ़र के दौरान मैंने सुखवंत के साथ कुछ ज्यादती की है। जिसके कारण उसके मन में मेरे प्रति खीझ और रोष है। मैंने यह महसूस करते हुए पुन: इसके घर जाने की पहल की। सॉरी भी कहा और अपनी जिम्मेदारी का अहसास भी करवाया। उसके बाद हमारा रिश्ता फिर पहले जैसा ही हो गया।
पुरस्कार मिलने के बाद एक दिन सारंग लोक में कुछ साहित्यकार स्त्रियाँ मिलने वाले ईनामों की चर्चा कर रही थी। उस दिन मैं उनमें शामिल नहीं थी। अचानक मेरी एक सहेली जिसने मेरा सारा साहित्य पढ़ा हुआ था, कह बैठी, ''इसबार बली जी को ईनाम मिलना चाहिए था।'' सुखवंत झट बोल पड़ी, ''बलजीत को ईनाम कैसे मिलेगा, उसने बोलकर तो कइयों को अपने खिलाफ किया हुआ है। कुछ ईनाम देने वाले इसके खिलाफ हैं, कुछ मान के।'' यूँ सुखवंत नहले पर दहला मारने से बिलकुल भी नहीं चूकती। मेरी साहित्यकार सहेली ने जब मुझे फोन पर बताया तो मैं खूब हँसी। और हँसते-हँसते मैंने उससे कहा, ''ये मेरे ही शब्द मेरे पास वापस लौट आए हैं।'' एक दिन मैंने ही ये शब्द सुखवंत से कहे थे जब उसने कई छोटे-मोटे ईनाम मुझे न मिलने पर अफसोस प्रकट किया था। यूँ सुखवंत को पता होता है कि कब, कहाँ, कौन सी तीखी बात करनी है, उसका निशाना चूकता नहीं जब कि मेरे निशाने कई बार चूक जाते हैं। हालांकि कई बार छक्का भी लगा लेती हूँ, उस वक्त उसे कुछ नहीं सूझता।
रेखा चित्र पूरा करके हटी थी कि अचानक शाम को सुखवंत का फोन आ गया। बोली, ''आज मुझे घंटे, डेढ़ घंटे के लिए तेरे पास आना है। मैं जानती हूँ, तू आ नहीं सकेगी। रात के समय वापस लौटते हुए तुझे दिक्कत होगी।''
मैंने कहा, ''ज़रूर आओ। पर इस वक्त कैसे ?''
उसने कहा, ''मुझे तेरा वो रेखा चित्र पढ़ना है जो तूने मेरे पर लिखा है।''
मैंने सोचा जो बदमगजी बाद में होनी है, वह अभी हो जाए। मैंने कहा, ''आ जा, आ जा। कर ले तसल्ली।''
कुछ देर बाद वह आ गई। आते ही इसने कहा, ''मैंने कुछ भी खाना पीना नहीं। सब खा-पी कर आई हूँ। बस, तू अपना लिखा मुझे पढ़ा दे।'' यह बैड पर ठीक से होकर बैठ गई और मैं टेबल लैम्प ऑन करके पढ़ने लगी। उसने आदत के अनुसार बीच में टोकना आरंभ कर दिया। मैंने कहा, ''बहन जी चुप ! चुप करके बैठो। जो कहना है, बाद में कहना, मैं सब सुनूँगी।''
सारा सुनने के बाद तुरन्त बोली, ''बहुत उथला लिखा है। बिलकुल बैलेंस नहीं।''
''बैलेंस कैसे नहीं कुछ, बताओ भी।''
''तूने मुझे समझा ही नहीं।''
''कैसे ?''
''बीमारी के बारे में कुछ ज्यादा ही लिख दिया है। यह कौन सा मेरे वश की बात थी।''
''तो मैंने कहाँ लिखा है कि तू जानकर एक्टिंग करती रही है। चलो, बीमारी के बारे में तो कम किया जा सकता है, पर यह बताओ, मैंने जो कुछ लिखा है वह सच है न ?''
''नहीं, बातें तो सच्ची हैं पर तूने कुछ टेढ़ी लिखी हैं।''
''फिर सीधी कैसे लिखती ? बताओ भी।''
''चल छोड़, तू कभी बैलेंस लिख ही नहीं सकती। तेरा लिखने का स्टाइल और है।''
''फिर भी पता तो चले। और क्या लिखना चाहिए था ?''
''अगर मैं तेरे बारे में लिखूँ, तू अश-अश कर उठेगी।''
''अश अश करने वाला बिलकुल न लिखना मेरे बारे में। चाहे जो मर्जी लिखना, मैं तेरी तरह पढ़ूँगी भी नहीं।''
''मेरी इतने लोगों ने इंटरव्यू की हैं, किसी ने तेरी तरह नहीं लिखा। तूने मेरे साहित्य के बारे में क्या लिखा ? इसे दुबारा लिख।''
''पहली बात बहन जी, यह इंटरव्यू नहीं। इसे रेखा चित्र कह लो या आर्टीकल। तुम्हारे साहित्य के बारे में कौन नहीं जानता। साहित्यकार होने के कारण ही तो यह लिखा गया है। और फिर, ऐसा आर्टीकल लिखने वाले को अपने दृष्टिकोण से लिखना होता है, हर विधा का अपना रंग होता है।''
''अ…च्छा...। गार्गी के रेखा चित्र क्या कमाल के थे।''
''पहली बात, मैं गार्गी नहीं। तुम्हें पता है गार्गी ने प्रिं. तेजा सिंह के बारे में क्या लिखा था ?''
''वह बात और है।''
''अच्छा, इसके नाम के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है।''
''नाम बहुत बढ़िया है।''
''अगर नाम बढ़िया है तो मैंने इसी नाम की व्याख्या की है।''
''अच्छा, मैं फिर चलती हूँ।'' कहकर वह उठ खड़ी हुई।
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1-कांटेदार फलों की बेल जो धरती पर बिछी रहती है और जिसका फल दवा के काम आता है। इसे भद्रकंट अथवा भटकटैइया भी कहते हैं।
बलजीत कौर बली
जन्म : 15 मई 1939, गांव-चाक बखरू, ज़िला - बठिंडा (पंजाब)
शिक्षा : एम.ए. (पंजाबी/हिंदी), एम.फिल., पी.एचडी.
प्रकाशित कृतियाँ : 'नक्श मिटदे गए', 'हादसे, हवाले ते सलीबां' 'इक पैर वाला घर', 'मरजाणी जीतो', 'रुत्त कुरुत्ती'(कहानी संग्रह)। 'आपणी छांवें', 'ठरी रात', 'धुप्प दी वाट', 'गुवाचे सूरज' और 'पैरां हेठली धरती'( उपन्यास)। रचनाओं के हिंदी, उर्दू और अन्य भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित।
सम्मान : 'सूरज छिप्पण तो पहिलां' कहानी पर भाषा विभाग, पंजाब की ओर से सर्वोत्तम कहानी पुरस्कार। लिखारी सभा, मोगा की तरफ से 'यथार्थवादी नावलकार' के तौर पर दलीप कौर संधू अवार्ड। पंजाबी अकेडमी, वुलवरहैमटिन(यू.के.) की ओर से कहानीकार के रूप में सम्मानित।
संप्रति : अध्यापन से सेवा निवृत्त।
सम्पर्क : 2656, फेज़-2, मोहाली
दूरभाष : 09888810218

3 टिप्पणियाँ:

PRAN SHARMA 4 जनवरी 2010 को 12:33 am बजे  

LEKH( REKHA CHITRA) MEIN BHASHA KEE
RWAANGEE HAI LEKIN BALJEET KAUR
BALEE KAA DRISHTIKON KAHIN-KAHIN
ZIADA HEE NAKAARAATMAK HO GYAA HAI.
AESE NAKAARAATMAK REKHACHITRA KABHI
MANTO AUR UPENDRA NATH ASHK LIKHA
KARTE THE.BALEE JEE NE EK JAGAH SUKHWANT KE BAARE MEIN UPEKSHA KEE
BHAVNA SE LIKHA HAI " WAH PAEE
JANIYE YA RAH PAEE JAANIYE " YAHEE
BAAT SUKHWANT BHEE BALEE JEE KE
BAARE MEIN KAH YAA LIKH SAKTEE HAIN. LEKHAK KO AESE LEKHAN SE
BACHNAA CHAHIYE.

रूपसिंह चन्देल 5 जनवरी 2010 को 11:20 pm बजे  

भाई सुभाष

बलजीत कौर बाली का संस्मरण पढ़ा. लेखिका ने इसे रेखाचित्र कहा है लेकिन यह रेखाचित्र नहीं है . इसे मैं संस्मरण कहूंगा . इसमें सुखवंत कौर मान की छवि को जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है वास्तव में वह नकारात्मक ही है. संस्मरण या रेखाचित्रों में नकारात्मकता से परहेज करने की आवश्यकता होती है. इसे यदि लेख कहा जाए --- एक परिचयात्मक लेख तो शायद सही होगा.

चन्देल

रूपसिंह चन्देल 6 जनवरी 2010 को 6:40 am बजे  

प्रिय सुभाष

सुखवंत कौर मान पर बलजीत कौर बली का रेखाचित्र पढ़ा जिसके बारे में लेखिका स्वयं असमंजस में रहकर यह तय नहीं कर पायीं कि उसे वह रेखाचित्र कहें या लेख. वास्तव में यह न तो रेखाचित्र बना और न ही लेख. इसे संस्मरण अवश्य कह सकते हैं जिसमें रचनाकार जिस पर लिख रहा है उसके साथ स्वयं को भी उतना ही उद्घाटित करता चलता है. रेखाचित्र के केन्द्र में पात्र के जीवन के एक एक रेखाओं को उभारा जाता है . इस लिहाज से महादेवी वर्मा के रेखाचित्र अतुलनीय हैं.

इस रचना में लेखिका जितना सुखवंत कौर पर बात करती हैं उससे अधिक अपने पर और यही इसे रेखाचित्र होने से रोकता है. हालांकि संस्मरण में भी मुख्य पात्र ; जिसपर संस्मरण लिखा गया हो ; केन्द्र में रहना होता है फिर भी लेखक अपने को उससे बचा नहीं सकता क्योंकि वह संस्मरण लिख इसलिए रहा होता है क्योंकि वह उससे जुंड़ा रहा होता है.

इस रचना की कमजोरी कहें या कि विशेषता कि इसमें बलजीत जी ने सुखवंत कौर की कमजोरियों पर विशेष प्रकाश डाला है उनकी विशेषताओं पर कम. अपने को अधिक प्रस्तुत किया है सकारात्मक रूप से जबकि सुखवंत कौर को नकारात्मक रूप में ही प्रस्तुत किया गया है. वैसे इतनी नकारात्मकता की स्थिति में संस्मरण लिखा ही नहीं जाना चाहिए---- ऎसा लगता है कि यह संस्मरण अच्छे भाव में नहीं लिखा गया.

लेखिका मेरी बात को अन्यथा न लेंगीं .

तुमने इसके लिए जो श्रम किया वह श्लाघनीय है.

रूपसिंह चन्देल
०९८१०८३०९५७

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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