नई किताबें

>> रविवार, 13 दिसंबर 2009

समीक्षा
रेत(उपन्यास)
लेखक : हरजीत अटवाल
अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशक : यूनीस्टार बुक्स प्राइवेट लिमिटेड
एस सी ओ 26-27, सेक्टर -37 ए
चण्डीगढ़-160022
पृष्ट- 322, मूल्य : 400 रूपये।




बनते - बिगड़ते संबन्धों की कहानी
रूपसिंह चन्देल

प्रवासी भारतीय साहित्यकारों की विशेषता यह है कि वे अपनी जमीन से जुड़े अनुभवों के साथ-साथ नई जमीन के अनुभवों को भी अपनी रचनात्मकता का आधार बना रहे हैं। दूसरे शब्दों में उनका अनुभव क्षेत्र व्यापक है और पूरी कलात्मकता और प्रामाणिकता के साथ रचनाओं में उद्धाटित हो रहा है। हिन्दी, पंजाबी और उर्दू साहित्य पर चर्चा करते समय प्रवासी लेखकों के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
प्रसंगत: एक बात कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। विदेशों में बसे भारतीयों को यह शिकायत है कि उन्हें अमुक भाषा का प्रवासी साहित्यकार कहा जाता है। उनका प्रवासी होना एक वास्तविकता है। किसी भाषा के साहित्यकार की चर्चा के समय उसकी क्षेत्रीय पहचान बताना जब अपरिहार्य हो तब यह उल्लेख शायद अनुचित नहीं, लेकिन जब भाषा विशेष के साहित्य की चर्चा का प्रश्न हो तब यह उल्लेख अनावश्यक ही नहीं अनुचित भी है, क्योंकि साहित्यकार किसी भाषा विशेष का होता है।

एक बात और। यह आवश्यक नहीं कि हिन्दी, पंजाबी या उर्दू में लिखने वाला भारतवंशी ही हो। वह किसी भी देश का मूल निवासी हो सकता है। जापान, रूस, जर्मनी आदि कई देशों के अनेक विद्वानों ने हिन्दी में भी लिखा और उन्होंने जो कुछ भी हिन्दी में लिखा वह हिन्दी साहित्य का अकाटय अंश है। एक विद्वान कई भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन कर सकता है। अनेक विद्वानों ने किया भी है। अत: उन भाषाओं में लिखी उनकी चीजें उन भाषाओं के साहित्य को समृद्ध कर रही होती हैं। यहां यह विचारणीय हो सकता है कि अनेक भाषाओं में समान रूप से कार्य करने वाला सभी भाषाओं का साहित्यकार माना जाएगा या नहीं। प्राय: विभिन्न भाषाओं में अपना साहित्यिक योगदान देने के बाद भी लेखक अपनी मातृभाषा का ही रचनाकार माना जाता है। इसका कारण यह है कि अपनी मातृभाषा में ही वह अपनी रचनात्मकता को सार्थकता प्रदान कर सकता है। लेकिन कामिल बुल्के जैसे विद्वान इसका अपवाद भी हैं।
उपरोक्त बातें मैंने लंदन प्रवासी पंजाबी लेखक हरजीत अटवाल के उपन्यास 'रेत' के संदर्भ में कहीं हैं, जिसका अनुवाद हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार- कवि सुभाष नीरव ने किया है। 'रेत' इंदर और कंवल के माध्यम से ब्रिटेन, विशेषरूप से लंदन और उसके आसपास बसे पंजाबी परिवारों की कहानी कहता है। इंदर अर्थात रवि (उपन्यास की नायिका कंवल उसे इसी नाम से पुकारती है) की आकांक्षा विदेश जाकर कुछ कर गुजरने की थी। भारत में जीवन संघर्ष उसे परेशान करता था और वह ऐन-केन प्रकारेण विदेश जाना चाहता था। वह एक ऐसे पंजाबी युवक के प्रतिनिधि के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है जिसकी चाह बाहर जाकर न केवल पैसा कमाने की है बल्कि वहीं बस जाने की भी है। परिवार की आर्थिक स्थितियां भी उसे विवश करती हैं और इसका उसे अवसर भी सहजता से मिल जाता है जब उसके समक्ष लंदन में रह रही कंवल के साथ विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है। विवाह के पश्चात लंदन में उसे ससुराल में रहना पड़ता है, जबकि वह रहना नहीं चाहता। पैर जमते ही वह पत्नी के साथ अलग रहने का निर्णय करता है, लेकिन कंवल मां-पिता का घर छोड़ना नहीं चाहती। यहीं से दोनों के मध्य द्वंद्व(टकराव) की स्थिति उत्पन्न होती है। संबन्धों में रेत की किरकिराहट उत्पन्न हो जाती है जो तलाक पर जाकर समाप्त होती है। यहीं से प्रारंभ होता है इंदरपाल का चारित्रिक स्खलन। बीटर्स, जूडी सहित कुछ औरतों का उसके जीवन में आगमन होता है। बीटर्स का साथ उसे भाता है। उसे सुकून देता है। लंदन में व्यवस्थित होने के बाद वह अपने भाई प्रितपाल को बुला लेता है। दोनों में एक समानता है .... शराब दोनों को पसंद है। औरत इंदरपाल की जहां कमजोरी बन जाती है उसके भाई का आचरण लेखक ने उसके विपरीत चित्रित किया है। सुबह उठने के साथ दोनों शराब पर टूटते हैं और रात देर तक वे पीते रह सकते हैं। दोनों, भाई से अधिक एक दूसरे के साथ मित्र-सा व्यवहार करते हैं। प्रितपाल इंदरपाल के सभी अवैध संबन्धों के विषय में जानता है और अनेकश: उसे इस बात के लिए समझाता है। अंतत: प्रितपाल के सुझाव और घरवालों के दबाव में इंदरपाल पुन: भारत आकर किरन नाम की लड़की से दूसरा विवाह कर लेता है। दूसरी पत्नी किरन से उसे एक पुत्री और एक पुत्र की प्राप्ति होती है, जबकि कंवल से भी उसे एक बेटी प्रतिभा अर्थात परी थी।

कंवल का झुकाव ब्रैडफील्ड, जहां वह काम करती है, के अपने अंग्रेज सुपरवाइजर ऐंडी के प्रति होता है। वह उसके साथ डिनर पर जाती है और लौटते समय उसके फ्लैट में जाने के उसके प्रस्ताव को ठुकराकर उससे इसलिए अलग हो जाती है - ''क्योंकि ऐसा भारतीय संस्कार के विरुद्ध है .'' लेखक कुशलतापूर्वक कंवल के चारित्रिक पतन को बचा देता है। लेकिन उपन्यास में रानी चङ्ढा, रंजना बिजलानी जैसी भारतीय पात्र भी हैं जिनके भारतीय संस्कार उनके अवैध संबन्धों में बाधक नहीं होते। तरसेम फक्कर यदि कैथी के साथ संबन्ध बनाकर दैहिक सुख प्राप्त करता है तो उसकी पत्नी का भी का कोई ब्वॉय फ्रेंड है। एक प्रकार से उपन्यास शराब और सेक्स के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। भारतीय संस्कारों की दुहाई देनी वाली कंवल भी अपने स्खलन को रोक नहीं पाती। वह इंदरपाल को पुन: प्राप्त करना चाहती है और अपने प्रयास में सफल भी रहती है। इंदर की दूसरी पत्नी किरन से उसे सदैव के लिए अलग कर देने का प्रयास करती है और अपने प्रयास में वह सफल भी रहती है। उससे वह अपने लिए मकान, गाड़ी तथा अन्य आवश्यक चीजें उपलब्ध कर लेती है। रवि यानि इंदर कर्ज में डूब कर भी वह सब करता है लेकिन किरन और उसके बच्चों के प्रति उसका प्रेम और मोह कभी नहीं मरता। वह तिहरी जिन्दगी जीता है .... किरन, कंवल और बीटर्स के बीच फंसा इंदर तनावग्रस्त होता जाता है। व्यवसाय की स्थिति खराब हो जाती है और जब किरन को कंवल के साथ उसके संबन्धों की प्रामाणिक जानकारी हो जाती है, वह इंदर के लिए घर के दरवाजे सदैव के लिए बंद कर देती है। किरन और कंवल से दूर इंदर भयानक तनावपूर्ण जीवन जीने लगता है और अंतत: मैसिव हार्ट अटैक का शिकार होता है।

लेखक ने कंवल और किरन के चरित्रों को बहुत बारीकी से उद्धाटित किया है। कंवल अपनी शर्तों पर जीना चाहती है और जीती है। लंदन में पली-बढ़ी होने के कारण उसके भारतीय संस्कारों में आधुनिकता का प्रभाव स्पष्ट है। कहना उचित होगा कि कंवल आत्म-केन्दित चरित्र है जो केवल अपने विषय में सोचती है। एक उदाहरण ही पर्याप्त है। इंदरपाल के हार्ट अटैक की सूचना के बाद वह सोचती है : ''अगर रवि मर जाए तो मुझे कोई नफा-नुकसान नहीं होने वाला, विधवा होगी तो किरन होगी। मैं तो जो हूँ वही रहूंगी। हां , परी का नफा-नुकसान अवश्य उससे बंधा हुआ था। रवि की जायदाद में परी बराबर की हिस्सेदार थी। अगर रवि ने वसीयत करवा रखी होगी तो भी परी का नाम उसमें ज़रूर होगा। अगर नहीं होगा तो फिर भी वह हिस्सेदार है ही।''

लेकिन इसके विपरीत किरन विशुद्ध भारतीय संस्कारों में जीती है। इंदरपाल को बीटर्स के घर में रंगे हाथों पकड़ लेने के बाद भी कुछ समय की बेरुखी के बाद वह सामान्य हो जाती है। लेकिन अपने जीवन में इंदर की पहली पत्नी कंवल का हस्तक्षेप जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता है, तो वह अपने घर के दरवाजे उसके लिए बंद कर देती है। ऐसा वह तब करती है जब उसके पास जीने का कोई आधार नहीं है, मात्र इंदर द्वारा गुजारे के लिए दिए जाने वाले पोंड्स के अतिरिक्त। जबकि कंवल ब्रैडफील्ड में नौकरी करती है अर्थात आर्थिक रूप से सुरक्षित है।

लेखक ने इंदरपाल की वही स्थिति प्रस्तुत की है जो ऐसी स्थिति में ऐसे लोगों की होती है। अटवाल लंदन में बसे भारतीय परिवारों के जीवन की वास्तविक झांकी प्रस्तुत करने में पूर्णतया सफल रहे हैं। उनके शिल्प में नवीनता है, लेकिन यह नवीनता उपन्यास के विस्तार का कारण बनी है। एक ही घटना दो पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। शिल्प का यह प्रयोग पाठक को उस घटना की पुनरावृत्ति की अनुभूति दिलाता है।

सुभाष नीरव ने अनुवाद में जिस कौशल का परिचय दिया है, वह यह प्रतीति होने नहीं देता कि यह पंजाबी का अनुवाद है। भाषा पर उनका अधिकार है लेकिन प्रकाशक की लापरवाही के कारण सर्वत्र 'फ्' की अनुपस्थिति के कारण 'फ्लैट' ,'फ्लाइट' जैसे शब्द केवल 'लैट' और 'लाइट' होकर रह गए हैं। लंबे समय तक पाठक इस भ्रम में रहता है कि शायद लंदन में प्रचलित ये कुछ ऐसे शब्द हैं जिनसे वह परिचित नहीं। लेकिन ऐसे शब्दों की निरंतरता से जल्दी ही उसकी अक्ल के बंद दरवाजे खुल जाते हैं।

उपन्यास में एक प्रसंग हिन्दी वालों के लिए अटपटा हो सकता है जिसमें प्रितपाल अपने पिता के साथ मित्रों जैसा हंसी मजाक करता है जिसे अमर्यादित कहा जा सकता है। संभव है पंजाबी संस्कृति में ऐसा होता हो।

उपन्यास में किंचित सम्पादन से घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचा जा सकता था। लेकिन उपन्यास की भाषा में सहजता और प्रवाहमयता है और घटनाओं की एकरसता भी पाठक के औत्सुक्य को प्रभावित नहीं कर पाती। आद्यन्त उपन्यास पाठक को बांधे रखता है और आज जब किस्सागोई शिल्प मृतप्राय: स्थिति में है तब लेखक का यह शिल्प आश्वस्त करता है। कुल मिलाकर यह एक बेहद पठनीय उपन्यास है।
00
समीक्षक
संपर्क:
बी-3/230, सादतपुर विस्तार
दिल्ली-110 094
दूरभाष : 011-22965341
09810830957(मोबाइल)
ई-मेल :
roopchandel@gmail.com

3 टिप्पणियाँ:

बलराम अग्रवाल 15 दिसंबर 2009 को 7:40 pm बजे  

धैर्यपूर्वक लिखी गई स्तरीय समीक्षा। 'प्रवासी लेखक' आदि को लेकर की गई टिप्पणी आवश्यक प्रतीत होती है। इसे वस्तुत: अलग से भी एक बहस के रूप में लिखा जाना चाहिए। अन्त में --समीक्षक सम्पर्क-- के स्थान पर --अनुवादक सम्पर्क--चला गया है, ठीक कर लें।

सुभाष नीरव 15 दिसंबर 2009 को 9:19 pm बजे  

भाई बलराम, गलती इंगित करने के लिए शुक्रिया। गलती को सुधार दिया गया है।

बेनामी 15 मार्च 2012 को 7:09 pm बजे  

बहुत अच्‍छा कार्य कर रहे हैं आप। आपका योगदान प्रशंसनीय है...

आनंद

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

  © Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP