पंजाबी उपन्यास

>> शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

यू.के. निवासी हरजीत अटवाल पंजाबी के सुप्रसिद्ध कथाकार और उपन्यासकार हैं। इनके लेखन में एक तेजी और निरंतरता सदैव देखने को मिलती रही है। लेकिन यह तेजी और निरंतरता इनकी कृतियों को कहीं भी हल्का नहीं होने देतीं, वे पाठकों के सम्मुख अपनी पूरी रचनात्मकता और परिपक्वता के साथ प्रस्तुत होती हैं। छह कहानी संग्रह, एक सफ़रनामा, एक स्व-कथन की पुस्तकों के अलावा लगभग ग्यारह उपन्यास - ‘वन-वे’, ‘रेत’, ‘सवारी’, ‘साउथाल’, ‘ब्रिटिश बोर्न देसी’, ‘अकाल सहाय’, ‘गीत’, ‘मुंदरी डॉटकाम’, ‘मोर उडारी’, ‘आपणा’ और ‘काले रंग गुलाबां दे’ पंजाबी में छप चुके हैं। ‘अकाल-सहाय’ और ‘आपणा’ उपन्यास इनके ऐतिहासिक उपन्यास हैं। तीन उपन्यास ‘रेत’, ‘साउथाल’ और ‘सवारी’(थेम्स किनारे शीर्षक से) और ‘दस दरवाज़े’ नामक पुस्तक हिन्दी में मेरे अनुवाद में प्रकाशित हो चुकी हैं।
‘अकाल सहाय’ उपन्यास जहाँ महाराजा दलीप सिंह के लाहौर छोड़ने पर खत्म होता है, वहीं ‘आपणा’ उपन्यास महाराजा दलीप सिंह के लंदन पहुँचने से शुरू होता है। महाराजा दलीप सिंह का अंग्रेजों ने धोखे से धर्म परिवर्तन किया था और उसे ग्रंथ साहिब की जगह ‘बाईबल’ की तरफ जानबूझकर झुकाया गया और भ्रमों से भरपूर एक ज़िन्दगी जीने को दी। उसे ‘महाराजा’ का खिताब अवश्य दिया गया, पर असल में वह ‘महाराजा’ था ही नहीं। हरजीत अटवाल ने महाराजा दलीप सिंह के असमंजसता और दुविधाभरे द्वंदमयी जीवन को बेहद मार्मिक ढंग से रोचक कथा शैली का उपयोग करते हुए अपने इस उपन्यास में लिपिबद्ध किया है। इस उपन्यास को लिखने के लिए लेखक ने इतिहास का बहुत गहरा अध्ययन किया है जो उपन्यास पढ़कर साबित हो जाता है। इस ‘आपणा’ उपन्यास का हिन्दी अनुवाद ‘महाराजा दलीप सिंह’ शीर्षक के अधीन किया जा रहा है जो धारावाहिक रूप में आपसे यहाँ साझा किया जाता रहेगा।
-सुभाष नीरव


महाराजा दलीप सिंह
हरजीत अटवाल

अनुवाद
सुभाष नीरव

1
परायी धरती
(प्रथम भाग)
मई महीने की एक सुबह। साउथैम्पटन के बंदरगाह पर बहुत भीड़ थी। लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहने इधर-उधर घूम रहे थे। स्त्रियों ने भारी स्कर्ट पहन रखी थीं, गलों में तंग चुन्नटों वाले शॉल लपेट रखे थे और सिरों पर स्कॉर्फ बाँधे हुए थे। बहुत से पुरुषों ने लंबे कोट पहन रखे थे और वे हाथों में फैशनदार छड़ियाँ पकड़े टहल रहे थे। कभी कभी कोई जेब-घड़ी निकालकर वक्त भी देखने लगता। कई स्त्रियों की उंगलियाँ बच्चों ने पकड़ रखी थीं। ये लोग अपनों का स्वागत करने के लिए एकत्र हुए थे। मौसम बढ़िया था। मौसम तो कई दिनों से साफ़ चल रहा था। समुंदर भी शांत था। सबको आस थी कि जहाज़ ठीक समय पर लगेगा। बंदरगाह के कर्मचारी चबूतरे पर चढ़कर दूरबीन की मदद से समुद्री क्षितिज की तरफ देख रहे थे। बंदरगाह में उपस्थित लोगों का ध्यान उनकी तरफ ही था। उन्होंने जहाज़ के आने की सूचना देनी थी। जहाज के दिखाई देते ही बिगुल बज जाना था और लोगों ने खुश होकर चीखना शुरू कर देना था। हवा में उड़ते सीगल पक्षियों की बदलती रफ्तार से लगता था कि दूर समुंदर में कहीं हलचल अवश्य है। सीगल पक्षियों की चहचहाट वातावरण को और भी अधिक खुशगवार बना रही थी।
                इस भीड़ में करीब छह साल की मैडालीन भी थी। वह अपनी माँ के साथ आई थी। मैडालीन ने गुलाबी रंग की फ्रॉक पहन रखी थी और गुलाबी रंग का ही तिरछा-सा हैट सिर पर ले रखा था। वह आसमान में उड़ते सीगल पक्षियों को देख खुश हो रही थी। अचानक उसने आसमान में एक पंख उड़ता देखा। पता नहीं किस सीगल के परों में से झड़ा होगा। आसमान में से पंख धीरे-धीरे पूरी शान के साथ इस धरती की ओर बढ़ रहा था। मैडालीन ने दोनों हाथ फैला लिए मानो यह पंख उसकी ओक में ही आकर गिरने वाला था। मैडालीन की माँ कभी उसकी तरफ देखती तो कभी आसमान की तरफ जैसे जैसे पंख नीचे की ओर रहा था, वैसे वैसे मैडालीन उसके हिसाब से हिलती हुई उसकी सीध में रहने की कोशिश कर रही थी। पंख को लपक लेने के लिए मानो उसने पूरी तरह ठान लिया हो। उसकी माँ इस पंख को सौभाग्यशाली पंख समझती हुई उसकी सहायता करने लगी। आखि़र, मैडालीन ने पंख को लपक ही लिया और वह मारे खुश के तालियाँ बजाती हुई चीखने ही लग पड़ी मानो कोई बहुत बड़ा खजाना मिल गया हो। उसकी माँ ने पंख को पकड़कर उसके टोप में लगा दिया।
                बंदरगाह के चबूतरे से बिगुल बजा। सभी लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई और शोर-सा होने लगा। कई लोग एड़ियाँ उठा-उठाकर समुद्र की ओर देखने लगे, पर नंगी आँखों को अभी कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। बंदरगाह पर सरगरमियाँ बढ़ गईं। अचानक किसी तरफ से सिपाहियों की एक बड़ी टुकड़ी बंदरगाह में घुसी। सभी लोग हैरानी के साथ सिपाहियों की ओर देखने लगे। पहले तो कभी इतने सिपाही बंदरगाह पर देखने को नहीं मिले थे। कभी एक समय था जब नेपोलियन के साथ इंग्लैंड की जंग चल रही थी, हर बंदरगाह पर सिपाही तैनात रहते थे। परंतु अब तो यह बात पुरानी हो चुकी थी। अनुभवी लोग बातें करने लगे कि या तो फौज का कोई बड़ा अफ़सर रहा होगा, या फिर शाही परिवार का कोई विशेष सदस्य।
                फिर, जहाज़ के सायरन की हल्की-सी आवाज़ लोगों के कानों में पड़ी। सबके चेहरों पर रौनक छा गई। आहिस्ता-आहिस्ता क्षितिज में से जहाज छोटी-सी लकीर की भाँति प्रगट हुआ। लोग पंजों के बल उचक उचककर देखने लगे। जहाज़ पल पल करीब आता गया। उसने एक बार फिर सायरन बजाया। बंदरगाह के बाहर खड़ी स्टेजकोचों और घोड़ा-बग्घियों के चालक भी होशियार हो गए। समझदार घोड़े भी सिर हिलाकर तैयारी-सी करने लगे। इनमें से कई बग्घियाँ तो अपने मालिकों को लेने आई हुई थीं और कई मुसाफ़िरों के लिए भी थीं, जिन्हें इन्होंने अपना भाड़ा लेकर दूर-दराज पहुँचाना होगा। ये बग्घियाँ लंदन से लेकर त्तरी इंग्लैंड की ओर चलती थीं। कौन-सी बग्घी को किधर जाना था, यह उनके ऊपर लिखा हुआ था।
                जहाज़ नज़दीक आता गया। बंदरगाह के लोगों को हालाँकि अभी सवारियाँ नहीं दिख रही थीं, पर हाथ हिला-हिलाकर वे उनका स्वागत करने लगे। बंदरगाह के कर्मचारी वर्दियाँ पहने तत्पर खड़े थे। धीरे-धीरे जहाज़ की सवारियाँ दिखाई देने लगीं। सवारियों के हाथ भी हवा में लहरा रहे थे। जहाज़ के बादबान ढीले पड़ने लगे। मल्लाह डैक पर खड़े होकर लंगर फेंकने की तैयारी कर रहे थे। जहाज़ प्लेटफार्म के करीब गया। मल्लाहों ने ऊपर से रस्से फेंके। किनारे पर खड़े कामगारों ने पकड़ लिए और रस्से यूँ खींचने लगे मानो जहाज़ को ही खींच रहे हों। जहाज के फट्टे तो बढ़ा दिए गए थे, पर अंदर से कोई नहीं उतर रहा था। सभी समझ गए कि पहले विशेष सवारी उतरेगी। अब सब यह जानने के लिए उतावले थे कि कौन-सी होगी यह खास सवारी।
                जहाज़ में से वर्दीधारी कर्मचारी बाहर निकले। प्लेटफार्म पर खड़े अफ़सर उनकी तरफ बढ़े और सैल्यूट मारकर खड़े हो गए। उनके बीच कुछ बातचीत हुई। अफ़सरों ने आकर सिपाहियों को हुक्म दिए। सिपाहियों की एक टुकड़ी मार्च करती हुई जहाज़ की तरफ चल पड़ी। फौजी-बिगुल बजा। कुछ सिपाही जहाज़ के अंदर गए और फिर मार्च करते हुए बाहर गए। उनके पीछे पीछे भिन्न वर्दी वाले कुछ और सिपाही थे और उनके पीछे एक पंद्रह वर्षीय बालक चला रहा था। उसके सिर पर हल्के नीले रंग की बड़ी-सी पगड़ी थी। पगड़ी के ऊपर सुच्चे मोतियों की माला लपेटी हुई थी। पगड़ी के ऊपर कलगी भी लगी हुई थी। उसके गले में भी मोतियों की मालायें थीं। रेशम का पहरावा बता रहा था कि अवश्य यह किसी देश का राजकुमार है। उसके कंधों पर कश्मीरी शॉल था। उसके हाथ में सोने की तलवार तो उसके किसी देश के राजा होने की बात कर रही थी, पर राजा बनने की उसकी अभी उम्र नहीं प्रतीत होती थी। उसका गंदुमी रंग उसके हिन्दुस्तान के किसी देश का वासी होने की कहानी कह रहा था। कई लोगों को इस बात का अनुभव भी था क्योंकि इस बंदरगाह पर हिन्दुस्तान के ऐसे बहुत सारे राजा, राजकुमार उतरते रहते थे। उस राजकुमार के पीछे कुछ और लोग भी चल रहे थे। एक अंग्रेज जोड़ा भी था। राजकुमार बिना इधर-उधर देखे पूरे आत्मविश्वास के साथ चलता गया। उसके चेहरे पर सफ़र की थकावट झलक रही थी, परंतु एक अजीब किस्म का नूर भी था। बंदरगाह पर हाज़िर लोग इस काफ़िले को बड़े ध्यान से देख रहे थे, पर इस नए शहजादे को तो सभी एड़ियाँ उठा उठाकर देख रहे थे। कइयों को उसके वस्त्र पराये लगते थे। उसका गेहुंआ रंग भी बहुत पराया लग रहा था। कुछेक लोग ऐसे भी थे जिन्हें यह भी नहीं पता था कि इस धरती पर इस रंग के लोग भी होते हैं।
                यह सारा काफ़िला बंदरगाह से बाहर निकलकर घोड़ा-बग्घियों में बैठने लगा। सबसे आगे की बग्घी में सिपाही और उसके पीछे वाली में विशेष मेहमान, उसके कारिंदे ओर अंग्रेज जोड़ा। उसके बाद वाली बग्घी में कुछ अन्य सिपाही। एक बग्घी में सामान लादा जा रहा था। अंग्रेज स्त्री ने उससे पूछा -
                “युअर हाईनेस, आप ठीक हैं ?
                “हाँ मैम, मैं ठीक हूँ।
                “आराम में हो?
                “हाँ, शुक्रिया।
                “ठंड तो नहीं लग रही?
                “नहीं मैम, जहाज़ की बजाय यहाँ ठीक है। आप चिंता करो।
                उसने बड़े आराम के साथ कहा।
                बग्घियाँ आहिस्ता-आहिस्ता चल पड़ीं और शीघ्र ही सरपट दौड़ने लगीं।
                दोपहर हो रही थी। धूप छायी हुई थी। अंग्रेज स्त्री ने अपने साथ बैठे पुरुष से कहा, “जॉह्न, मौसम तो सुहावना है।
                “यॅस डार्लिंग, अगर ऐसा ही रहे तो। तुम तो जानती ही हो इस मुल्क के मौसम के बारे में। कहते हुए जॉह्न हँसने लगा। उसी समय जॉह्न को हिन्दुस्तान के मौसम का ख्याल हो आया। वहाँ तो इस समय बेइंतहा गरमी पड़ रही होगी।
                घोड़ा बग्घियाँ साउथैम्पटन को पीछे छोड़ती लंदन की ओर भाग रही थीं। रास्ता ऊँचा-नीचा था, पर मजबूत था। शाही मेहमान बाहर देख रहा था। अजीब-सी धरती थी। समतल तो बिल्कुल नहीं थी। पर खेतों में हरियाली पसरी हुई थी। गायें और भेड़ें घास चर रही थीं। ये खेत ही उसके अपने देश के खेतों से भिन्न नहीं थे, बल्कि गायें भी अजीब-सी थीं, गाढ़े रंग की ठिगनी-सी। कहीं कहीं घोड़े भी दिखाई दे जाते। घोड़ों को देखते ही शाही मेहमान की आँखों में चमक जाती। एक पल के लिए वह मन ही मन योजना बनाने लगा कि इस ऊँची-नीची धरती पर घोड़े को काबू में कैसे रखेगा। उसकी आँखों के अंदर की उत्सुकता देखकर अंग्रेज जोड़े में से कोई कोई उसको आसपास के बारे में बताने लगता।
                रास्ते में यह काफ़िला एक सराय में रुका। कुछ खाना-पीना हुआ और थोड़ा-सा आराम भी। शाम तक वे सभी लंदन पहुँच गए। यह काफ़िला लंदन की ब्रुक स्ट्रीट पर जा पहुँचा। यहाँ स्थित कालरिज़ नाम के एक होटल के सामने। होटल के कर्मचारियों की एक भीड़-सी इस काफ़िले के स्वागत के लिए जुट गई। सबको उनका इंतज़ार था। होटल के मैनेजर ने अंग्रेज जोड़े के साथ हाथ मिलाया और फिर झुककर शाही मेहमान का स्वागत किया और उन सबको राह दिखाता आगे ले चला। एक कमरे तक ले जाते हुए बोला, “युअर हाईनेस, यह आपकी रिहायशगाह होगी।
                मेहमान धन्यवाद करता और अपना शॉल संभालता अंदर चला गया। उसके पीछे ही उसके साथ के लोग भी। ये तीन कमरे थे। एक बैठक, एक सामान के लिए और एक शयन-कक्ष। इतने में एक अन्य अफ़सर-सा दिखाई देता व्यक्ति अंदर आया और उस जोड़े के साथ हाथ मिलाते हुए उन सभी को साझे तौर पर बोला-
                “मिस्टर एंड मिसेज लोगन, मैं आपका स्वागत करता हूँ। वैसे तो आपका अपना शहर है, पर आप इतने समय बाद लौटे हैं और आपने काम ही ऐसा किया है कि आपका भरपूर स्वागत करना हम सबका फर्ज़ बनता है, बेशक असली स्वागत तो बाद में होगा, पर मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें।
                “बहुत बहुत शुक्रिया मिस्टर टौवर।
                “मिस्टर लोगन, हम तो आपको निपुण डॉक्टर ही समझते थे, पर आप तो एक निपुण समाज शास्त्री भी हैं।”
                “ऐसी कोई बात नहीं मिस्टर टौवर, पर आपका शुक्रिया। हिज हाईनेस की देखभाल में मेरी पत्नी का बड़ा योगदान है।
                “मिसेज लोगन, आपको भी बहुत बहुत बधाई।
                “धन्यवाद मिस्टर टौवर।
                उनकी ओर से फुरसत पाकर मिस्टर टौवर नए मेहमान की ओर मुड़ा और बोला, “हिज हाईनेस, महाराजा डुलीप सिंह का इंग्लैंड में भरपूर स्वागत है। मैं यकीन दिलाता हूँ कि आपको किसी किस्म की तकलीफ़ नहीं होगी।
                मेहमान ने मुस्कराहट देते हुए धन्यवाद किया।
                मिस्टर टौवर मिस्टर लोगन को इशारा करके एक तरफ ले गया। मिसेज लोगन ने एक नौकर को समझाते हुए कहा -
                “नीलकंठ, गुसलखाने में देखो कि महाराजा के नहाने के लिए गरम पानी का इंतज़ाम है कि नहीं। फिर इनके नहाने के लिए कपड़े तैयार कर दो।
                नीलकंठ शीघ्रता के साथ अपने काम में जुट गया। मिसेज लोगन महाराजा से बोली, “युअर हाईनेस, हम साथ वाले कमरे में ही होंगे। आप नहा लें। जब तक कुछ खाने के लिए जाएगा। डिनर हम कुछ सरकारी कर्मचारियों और विशेष लोगों के साथ मिलकर करेंगे। एक पार्टी का प्रबंध पहले ही किया हुआ है।
                “शुक्रिया मैम, आप फिक्र करो और आराम करो।
                “मैं डिनर पर जाने के समय तक आपकी मदद के लिए जाऊँगी।
                “मैम, मैं तैयार हो जाऊँगा। आपको भी आराम भी ज़रूरत है। महाराजा ने प्यार से कहा।
                मिसेज लोगन के चले जाने के बाद एक बार तो महाराजा ने सोचा कि क्यों नहाने से पहले कुछ देर के लिए बिस्तर पर पड़ लिया जाए। उसका सारा बदन बग्घी के हिचकौले भरे सफ़र के कारण दुख रहा था, पर उसको यह भी पता था कि नहाये बिना थकावट दूर नहीं होगी। वह कपड़े उतारने लगा। नीलकंठ और एक अन्य कर्मचारी शाम दास उसकी मदद कर रहे थे।
                उसने गुसलखाने में जाकर देखायह एकदम अलग किस्म का था, हिन्दुस्तान के गुसलखानों से बिल्कुल अलग। एक बड़ा-सा पत्थर का टब था। साबुन और अन्य सामान के साथ साथ छोटे-छोटे तौलिये भी पड़े थे। उसे पता था कि अंग्रेज लोग टबों में बैठकर नहाने के आदी थे और नहाते समय ये छोटे छोटे-से तौलियों में साबुन लगाकर शरीर पर मला करते हैं जो उसे अच्छे नहीं लगते थे। उसे टब में बैठना पसंद नहीं था, पर वह धीरे-धीरे टब में जा घुसा।
                नहाकर बाहर निकला ही था कि एक कर्मचारी दूध का गिलास और बिस्कुट ले आया और खाने का मीनू भी। उसे भूख तो लगी हुई थी, पर खाने का मन नहीं था। उसने टमाटो सूप और ब्रेड मंगवा लिए। अधिक खाकर उसे नींद नहीं आती थी। वह चाहता था कि रात के खाने पर जाने से पहले घड़ीभर सो ले। एक बार आँख लग जाने के साथ ही सारी थकावट दूर हो जाएगी।
                वह बिस्तर पर बैठकर उसे महसूस करके देखने लगा। बिस्तर उसको पसंद रहा था। पलभर के लिए उसको अपने शाही महलों के बिस्तर की याद हो आई और फिर फतहगढ़ वाले बिस्तरों की भी। पिछले लंबे अरसे में वह कई प्रकार के बिस्तरों पर सोया था, सरायों में, होटलों के कमरों में भी और बाहर तंबुओं में भी। कई प्रकार के बिस्तरों पर सोने का अभ्यस्त होने के कारण उसको नींद आने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी। रास्ते में पानी के जहाज़ में हिचकौलों के बीच भी वह आराम से सोता रहा था। सोता वह चाहे कितने भी आराम से हो, पर उसकी नींद बड़ी कच्ची होती थी। हल्के-से खटके के साथ ही वह जाग उठता। गहरी नींद तो वह कभी माँ की गोद में ही सोया होगा। हर समय एक अनिश्चितता उसके मन में बनी रहती थी कि पता नहीं अगले पल क्या हो जाएगा। एक सुन्न-सी उसके मन में हर समय मंडराती रहती थी। मिस्टर लोगन और मिसेज लोगन के अलावा उसे किसी पर यकीन भी नहीं था। बचपन में वह तलवार सिरहाने रखकर सोता था। मिसेज लोगन इस बारे में उससे मजाक भी करती, पर उसकी यह आदत अभी तक कायम थी। कुछ देर बाद बैरा सूप और ब्रेड ले आया। सूप और ब्रेड लेने के बाद वह बिस्तर में जा घुसा। बिस्तर आरामदेह था। अगले ही पल वह नींद के आगोश में जा पहुँचा। आँख लगते ही समुंदर की ऊँची ऊँची लहरें उसके सामने खड़ी हुईं -
                ‘...समुंदर पूरे गुस्से में है। बड़ा-सा जहाज़ समुंदर की छाती पर छोटे-से खिलौने की भाँति डगमगा रहा है। लहरें डैक से भी ऊँची हो रही हैं। लोग लहरों से डरकर अपने कैबिनों में जा घुसते हैं, पर महाराजा खड़ा रहता है। एक लहर उसके सामने आकर तन जाती है। उसको लगता है कि लहर उससे कुछ कह रही है। वह भी लहर से कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पा रहा। लहर आहिस्ता-आहिस्ता वापस समुंदर में उतर जाती है।...
                वह घबराकर उठ बैठा। जेब में घड़ी निकालकर वक्त देखा। उसको सोये हुए को तो अभी घंटा भी नहीं हुआ था। वह सपने के बारे में सोचने लगा। ऐसी लहरें तो उसके समुद्री सफ़र के दौरान उठती रहती थीं, पर इतनी डरावनी नहीं होती थीं। जब भी समुद्र खौलता तो मिस्टर लोगन उसको उसकी कैबिन में छोड़ आया करता था। पूरे सफ़र के दौरान दोनों पति-पत्नी उसका खास ध्यान रखते रहे थे। मिस्टर लोगन उसका सुपरिंटेंड था। महाराजा के पालन-पोषण की उसकी जिम्मेदारी थी जिसके बदले में उसे तनख्वाह भी मिलती थी, पर उसको डर रहता कि समुद्री सफ़र पहली बार कर रहा होने के कारण कहीं महाराजा बीमार ही पड़ जाए। उल्टियाँ तो आम लोगों को भी लग जाया करती थीं, पर महाराजा का करीब चार सप्ताह का सफ़र बहुत बढ़िया बीता था। यद्यपि यह सफ़र उतना रोमांचक नहीं था जितना उसके दोस्त टॉमी स्कॉट की कहानियों में हुआ करता था, पर फिर भी उसको अच्छा लगा था।

(जारी...)

0 टिप्पणियाँ:

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

  © Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP