आत्मकथा/स्व-जीवनी
>> गुरुवार, 1 मार्च 2012
पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)
सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com
आत्म माया
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
प्रारंभ
मैं समझता हूँ कि किसी साहित्यकार और उसके साहित्य को समझने के लिए यह बात बड़ी सहायक सिद्ध होती है कि उसके समय और उसके उस वातावरण को जाना और समझा जाए, जिनमें वह अपने जन्म से लेकर उन्नीस-बीस वर्ष तक की आयु में रहा होता है। क्योंकि इसी समय में व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव रखी जाती है। फिर उसका जितना भी विकास होता है, उन्हीं नीवों पर ही होता है। इस छोटी उम्र में व्यक्ति के मन में पड़ी गाँठे उमभ्रर उसके साथ चलती हैं। उनमें खूबियों और खराबियों के जोड़-घटाव तो होते रहते हैं, पर जो भी विकास होता है, उसकी जड़ों में वही संस्कार होते हैं जो छोटी उम्र में बन जाते हैं।
सो, लेखक के तौर पर मेरे व्यक्तित्व और मेरे साहित्य को समझने के लिए मेरे लड़कपन के बारे में शायद जानना आपके लिए लाभदायक हो। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव उस उम्र की भावनाओं से बना करती हैं।
पुश्तैनी गाँव
मुझे हरिद्वार और पिहोवा के अपने तीर्थ-पुरोहितों की बहियों से ज्ञात हुआ कि हम अट्ठाहरवीं सदी ईसवी के अन्तिम हिस्से में महाराष्ट्र या राजस्थान के किसी इलाके में से उठकर पंजाब की रियासत नाभा की तहसील अमलोह के एक गाँव 'बहिणा बहिणी' में आ बसे थे। वहाँ से उठकर उसके नज़दीक ही 'भट्ठा' नाम के हमारे एक बुजुर्ग़ ने नया गाँव 'भट्टो' बनाया। वहाँ से उठकर मेरे पड़दादे का पड़दादा हजारी लगभग 1843 ईसवी में पठानों के गाँव बदीन पुर (उस वक्त रियासत नाभा की तहसील अमलोह) में आ बसा था। यह गाँव खन्ना, मंडी गोबिंदगढ़ और अमलोह के बीच में बसा हुआ है। हजारी के पुत्र तुला राम ने हमारी जड़ चलाई। बदीन पुर से मेरा दादा लाला नौराता राम डाकों से डर कर 1930 ईसवी में मेरे जन्म से करीब दो वर्ष पहले करीबी शहर खन्ना के मोरी मुहल्ले में बना-बनाया मकान खरीद कर आ बसा। बदीन पुर हम आते-जाते रहते थे। वहाँ हमारी थोड़ी-सी ज़मीन खरीदी हुई और कुछ गिरवी ली हुई थी। वहाँ हमारा पक्का घर भी था। जहाँ बैठकर हम कभी दोपहर काट लेते थे। उसके एक कोठे में बंटाई का भूसा भरवा लेते थे। हमारी अधिकांश ज़मीन उसके साथ वाले जट्टों के गाँव बड़गुज्जरां में थी। जिसे मेरे दादा ने किसी कर्ज़ के मारे गैर-काश्तकार पठान से खरीद थी। वहीं एक रहने के लिए घर बना हुआ था, जहाँ हम बंटाई का भूसा और काठ कबाड़ रखा करते थे।
1950 में हमारा आधा परिवार खेती करने की मजबूरी के कारण बड़गुज्जरां जा बसा था। बड़े लम्बे चौड़े आँगन वाले मकान को बसने योग्य बनाने के लिए हमने उसको और ज्यादा छत लिया था। आँगन में कीकर के समीप नीम का पेड़ लगा लिया था।
जन्म
मेरा जन्म सरकारी काग़ज़ों के अनुसार 7 अप्रैल 1932 को पिता लाला राम प्रसाद और माता बीबी दयाबंती के घर खन्ना, ज़िला-लुधियाना में हुआ। मैं स्वयं भी आम तौर पर यही बताता हूँ। परन्तु यह सही नहीं है। असल में, मेरा जन्म 26 मार्च 1932 को खरड़ के साथ लगने वाले अपने ननिहाल के गाँव 'नया शहर' जिसको आम बोलचाल में 'नवां शहर' कहते हैं(उस समय ज़िला अम्बाला और अब ज़िला-रोपड़) में हुआ। यह गाँव तब खरड़ से मील भर की दूरी पर था, परन्तु अब खरड़ का हिस्सा बन गया है। मैं उस गाँव का नाम इसलिए भी नहीं लिया करता कि सुनने वाला तुरन्त 'नवां शहर दुआबा' सोच लेता है। उस गाँव में मेरे नाना जी हकीम गंगा राम बीमारी को पहचान कर नुस्ख़ा लिख देने का काम करते थे। अधिक कमाई न होने के कारण मेरे तीन मामा फौज में भर्ती हो गए थे। एक स्वतंत्रता संग्राम की राह चल पड़ा था और एक थोड़ी-बहुत हिकमत(हकीमी) करता रहा। सभी पढ़े-लिखे आर्यसमाजी थे। यहाँ तक कि मेरी बीबी(माँ) हिंदी पढ़-लिख लेती थी और उर्दू की चिट्ठी भी बांच लेती थी। मैं अपने ननिहाल दो-चार बार ही गया था।
मेरे ननिहाल वाले घर में एक हारमोनियम और एक बैंजो हुआ करता था। जिन पर मामा लोग सुर निकाला करते थे। बड़े मामा जी सूबेदार बालक राम पंजाबी के कवि थे। उनका तख़ल्लुस (उपनाम) 'प्रेम' था। उन्होंने स्वामी दयानंद की जीवनी 'प्रेम सागर' शीर्षक से पंजाबी कविता में लिखी थी, जो शाहमुखी(पंजाबी जो उर्दू लिपि में लिखी जाती है) और देवनागरी में छपी थी। स्वतंत्रता संग्रामी मामा जी श्री गिरधारी लाल उर्दू में देशभक्ति की कविता लिखते थे और उनका तख़ल्लुस 'शौक' था। आम तौर पर अख़बारों में छपते थे। एक अन्य मामा जी भी तुकबंदी किया करते थे। 'शौक' साहिब ने जालंधर से उर्दू में एक साहित्यिक परचा 'नुकूश' निकाला था। इस परचे के वेतनभोगी संपादक फ़िक्र तौंसवी और ताजवर सामरी थे।
मैं अपने किसी भी मामा से प्रभावित नहीं था। मुझे न ही उनके शे'रों में कोई दिलचस्पी थी और न ही किसी बाजे के सुर निकालने में। मेरे एक मामा जी मेरे विषय में कहा करते थे कि इसके अन्दर संगीत वाले कान नहीं हैं। हो सकता है कि गुप्त तौर पर मेरे संस्कारों पर मेरे मामाओं का असर होता रहा हो। मैं मेलों में गानेवालों की तरफ और कवियों के लिखे किस्सों की तरफ छोटी उम्र में ही खिंचा चला जाता था। खन्ना में हर साल दशहरे के अवसर पर होने वाली राम लीला, शहर के कलाकारों द्वारा खेले जाते अन्य नाटक, चलती-फिरती नाटक मंडलियों की रास लीला, मिरासियों की नकलें और नचारों(नृतकों) के जलसे देखे बग़ैर मेरे से रहा नहीं जाता था। उनके सीन सपनों में मुझे दिखते रहते थे। पर अधिक संकोची स्वभाव का होने के कारण मैं केवल एक दर्शक ही बना रहा। दर्शक भी मैं चोरी का था। हमारे घर में तमाशा देखना तो दूर की बात थी, हमारे दादा जी तो घर में किसी को सीटी भी नहीं बजाने देते थे। कोई व्यक्ति गा नहीं सकता था। किसी को गाते सुनकर वह कहा करते थे, ''यह कोई कंजरों का घर है ?''
मेरी पत्नी जनक दुलारी अपने दहेज में विलायती कंपनी फिलिप्स का रेडियो लाई थी। दसेक दिन बाद किसी ने उसे बजाया। जब उसमें से गाने की आवाज़ निकली तो मेरे दादा जी ने सोटी से पीट पीटकर उसका ढांचा तोड़ दिया और गुस्से में बोले, ''ससुरा बेशरम, अभी भी नहीं हटता।'' वह बजता रहा था। फिर उन्होंने उसकी तारों को तोड़कर भूसे वाले कोठे में भूसे के नीचे दबा दिया था।
मेरे दादा दी लाला नौराता राम धन और ज़मीन के बहुत लोभी थे। उन्होंने खूब मेहनत और काम करके पता नहीं किन जुगतों से पाँच सौ बीघे से भी अधिक ज़मीन बना ली थी। सबसे अधिक ज़मीन गाँव बडगुज्जरां में थी। 301 बीघे का एक टुकड़ा, जिसमें तीन कुएँ थे। 85 बीघे का अलग टुकड़ा, एक कुएँ वाला। अधिकांश बदीन पुर के पठान से खरीदी हुई थी। कुछ कुम्हार थे। 1947 के विभाजन के बाद जब ब्याज पर पैसे लेने वाली असामियाँ जिमनें बहुत से मुसलमान थे, पाकिस्तान चली गईं तो हम भी उजाड़ से गए। हमारी अधिकतर ज़मीन मुसलमान जट्ट ही बंटाई पर जोतते थे। वही असामियाँ थीं। करीब तीन साल के अन्दर-अन्दर हमारे दाने खत्म हो गए। हमें विवश होकर गाँव बड़गुज्जरां में जाकर खेती करनी पड़ी थी। ऊपर से पैप्सू में ज़मींदारी एक्ट बनने का शोर मच गया था। हमें ज़मीन के छिन जाने का भी डर था। काफ़ी ज़मीन हमें मिट्टी के भाव बेचनी पड़ी थी। कुछ जट्ट सिक्ख संगठनों ने दबा ली थी।
मैंने 1949 में दसवीं पास की थी। मेरे पास खेती करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैं पढ़ना चाहता था, पर घर के हालात ठीक नहीं थे। मुझसे छोटे भाई सत्य प्रकाश को सातवीं कक्षा में से उठा कर खेती के काम में लगा दिया गया था। आमदनी का दूसरा साधन नहीं रहा था। घर में रुपया-पैसा दो तीन वर्षों में खत्म होने पर आ गया था। बस, रोटी चल रही थी। वैसे खन्ना शहर में भी कई मकान और दुकानें थीं। दुकानों के किराये आते थे। मैंने दुकान न करने का फ़ैसला सुना दिया था। फिर तो एक ही राह बचा था- खेती करो और रोटी खाओ। नहीं तो घर से भाग कर जहाँ जाना हो, चले जाओ। मुझसे बड़ा भाई विवाहित था। वह फ़ौज़ से भागकर आने को घूमता था। मैं दूसरे नंबर पर था। बाकी दो बहनें और चार भाई कुंआरे थे। छोटे चारों भाई और एक बहन पढ़ती थी। पूरे परिवार का बड़ा बोझ बाई जी पर था।
बालपन
जब मैंने होश संभाला तो हम खन्ना के मोरी मुहल्ले की टीले जैसी ऊँची जगह पर बनी एक छोटी-सी गली के सिरे पर बने डिब्बाबन्द पक्के मकान में रखते थे। घर में दादा था, दादी थी। दादा को हम 'बड़े बाई जी' और दादी को ‘माँ’ कहा करते थे। पिता जी को 'छोटे बाई जी' कहते, माता जी को 'बीबी जी' कहते, पड़दादी को 'बेबे'। घर में दो बुआ, एक चाचा, एक बड़ा भाई था। घर का दरवाज़ा खोलते ही एक छप्पर के नीचे एक भैंस और एक गाय हुआ करती थी। फिर खुला स्थान और फिर एक लम्बा बरामदा था, जिसमें एक कोने में चक्की पड़ी होती थी और एक तरफ औखली गड़ी हुई थी। सामने ईंटों के पक्के फर्श वाला चौकोर आँगन था। बायीं ओर छोटी पर पक्की रसोई थी। उसके सामने दो लम्बे दालान थे, जिन्हें सबात कहा करते थे। एक सबात के बायीं ओर अँधेरी कोठरी थी, जिसमें दीया जलाकर पता चलता था कि वहाँ लक्कड़ के सन्दूक और लोहे की पेटी पड़ी है।
दादा जी (बड़े बाई जी) क्या काम करते थे, मुझे नहीं मालूम था। बाई जी गाँवों में फ़सलें देखने, किसी को कुछ देने और किसी से कुछ लेने या अमलोह या नाभा में पेशियों पर जाया करते थे।
गली में एक घर बूढ़े जट्ट मास्टर हरनाम सिंह का था, जिसने औरत(नई उम्र की) खरीद कर बसाई हुई थी। मास्टर की दाढ़ी सफ़ेद थी। साथ वाला घर नाईयों का था। वे साफ़-सुथरे लोग थे। उनके बच्चे मेरी माँ को मासी(मौसी) कहते थे और हम उनकी बीबी को मासी कहा करते थे। यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी।
इस गली के आसपास अन्य जो लोग रहते थे, वे बहुत ग़रीब मुसलमान थे। इनमें गुज्जर, राईं, खुरी लगाने वाले लोहार, बक्करवाल, रूईं पींजने वाले, जुलाहे, छींबे, कलीगर, नेचेगर, नाई, धोबी और दिहाड़ी करने वाली अन्य जातियों के लोग शामिल थे। मुसलमानों के टूटे-फूटे से कच्चे-पक्के घर छोड़कर एक गली हिंदुओं की थी। पर उनके बच्चे हमारे पास खेलने नहीं आते थे। हमारा इलाका तंग-गन्दा मोरी मुहल्ला था। भाँति-भाँति की जातियों के लोगों के घर थे। हमारी किसी के साथ ज्यादा सांझ नहीं थी।
स्कूल जाने से पहले मुझे खेलने को जो बच्चे मिलते थे, वे आम तौर पर नंगे और गन्दे रहते थे। बात बात पर गालियाँ निकालते थे। रोटी, जिसे वे 'टुक' कहा करते थे, उसको नमक-मिर्च और प्याज की चटनी लगी होती थी और वे उसको मरोड़कर गोल करके हाथों में पकड़े मक्खियों भगाते खाते-खाते खेलते रहते थे। यदि किसी के कपड़े होते, वे खराब, मैले और फटे हुए होते। लड़कियाँ पाँच-छह साल की उम्र तक और लड़के सात-आठ साल की उम्र तक कमर के नीचे कपड़ा कम ही पहनते। उनके गुप्तांग लड़कों की तहमतों में से और लड़कियों की फटी सलवारों में से झांकते रहते थे, जिसकी वजह से एक-दूजे से छेड़खानी होती रहती थी। जब किसी मुसलमान लड़के का खतना(सुन्नत) होती थी तो सारा मुहल्ला इकट्ठा हो जाता था। छोटी उम्र की लड़कियाँ भी साथ खड़ी होती थीं। 'वो देख तेरे मामे की चिड़िया उड़ती है' कहते ही खलीफ़ा (नाई) उस्तरे से मांस का छल्ला उतार देता था। लहू नीचे पड़े तसले की राख में छिप जाता था। ज़ख्म पर काली-सी दवाई वाली पट्टी लपेट दी जाती थी। चावल बांटे जाते थे। पर हिंदुओं के लड़के नहीं लेते थे। चावल या गुड़ बांटने वाली औरतें खुद ही नहीं देती थीं।
हिंदुओं के बच्चे मुसलमानों के हाथों का छुआ भी नहीं खाते थे। मुझे मुसलमानों के बच्चों के बदन और कपड़ों में से बू आती रहती थी। यह बात अलग है कि मैं खुद साफ़ नहीं रहता था। अपनी कमीज़ की बांह से बहते नाक को पोंछ लिया करता था। जिस लड़के का खतना हुआ होता था, उसके पास से अजीब किस्म की दिल खराब करने वाली बदबू आती रहती थी। वह नंगा घूमता या तहमत पहनकर अगला हिस्सा नंगा और टांगे चौड़ी किए फिरता ताकि कपड़ा ज़ख्म से न छू जाए। उनकी बोलचाल और उठने-बैठने का मेरे पर इतना असर पड़ा कि मेरे घरवाले दुखी होने लग पड़े। मैं हरवक्त बहुत ही गंदी गालियाँ निकालता रहता था और मुझे पता ही नहीं चलता था कि मैं क्या कह रहा हूँ। इतना पता था कि मेरे ऐसा कुछ कहने से दूसरे को बुरा लगता है। उसको चोट पहुँचती है। दसरे को चोट मारने के लिए सोटी, थप्पड़-मुक्का मारने और गालियाँ बकने के अलावा भी अन्य कई बातें थीं। जैसे किसी के चुत्तड़ों में उंगल देना, किसी को पकड़कर चूम लेना, किसी को बाहों में भरकर शरीर के नीचे के हिस्से वाली हरकतें करना, आँखें मारना, उंगली इधर-उधर लगाना, हाथों, बाहों, हथेली और उंगलियों की शक्लें बनाकर उन्हें हिलाना आदि। मैंने वे सारी बातें सीख ली थीं। पर मुझे उनके अर्थ नहीं जानता था। सिर्फ़ इतना ख़याल था कि ऐसा करने से दूसरा चिढ़ता है। या कोई तगड़ा लड़का अपनी ताकत दिखाने के लिए कमज़ोर के साथ ऐसी हरकतें किया करता था। कई तगड़े लड़के जब मेरे साथ ये हरकतें करते थे तो मैं जो अपने अस्त्र चलाता था, वे रोने के साथ-साथ गालियाँ निकालने वाले होते थे। बड़े लड़के मेरी गालियाँ सुनकर हँसते हुए यह कहा करते थे कि इसने जो गाली एक बार निकाल दी, वह दूसरी बार नहीं निकालेगा। हर बार नई ही निकालेगा।
मेरे घरवाले उस इलाके को बिलकुल पसन्द नहीं करते थे। पर वह मुझे बहुत अच्छा लगता था। खेलने के लिए बच्चों का कोई अन्त नहीं था। छोटे-छोटे घरों में से पाँच-पाँच, छह-छह जने निकलते थे। फिर लोहार जब खुरियाँ (नाल) बनाने के लिए भट्ठी सुलगाते, धौंकनी चलती और लोहा गरम होता और फिर उसको अहरन पर हथौंड़ों से कूटने के लिए ठक-ठक होती, वह मुझे बहुत अच्छी लगती थी। शाम को डंगर खेतों और चरागाहों से लौटकर आते। बकरियों के झुंड आते। चलती-फिरती कटड़ों-बछड़ों को बांधा जाता और मेमनें बाड़ों में संभाले जाते। मैं मेमनों को संभालने में बक्करवालों के लड़कों के साथ काम करता था। बड़ा मज़ा आता था। तब मुझे बाड़े में से बू नहीं आया करती थी। भूख या प्यास लगने पर ही मैं घर में घुसता था। मुझे रोकने के लिए मेरी माँ मेरे बाई जी के आ जाने का डर दिखाती थी। पर मुझे पता होता था कि वो दोपहर के बाद ही लौटते थे। माँ के पास एक और हथियार था जो मेरी चीख़ें निकलवा देता था। वह यह था कि माँ घर के पिछवाड़े रहते मुसलमान दर्जियों की लड़की या बहू मरियां को हांक मारती। थोड़ी ही देर में हमारे कोठे की पक्की सीढ़ियों के सिरे पर काले कपड़ों वाली एक चुड़ैल खड़ी होती। उसके मुँह में बिलांद भर की जीभ लटकती होती। वह चलती आती और जब हमारे घर की सीढ़ियाँ उतरने लगती तो मेरी जान निकलने को हो जाती। भय से मेरा कभी-कभी पेशाब निकल जाता। तब कहीं जाकर माँ के कहने पर वह मरियां बुरका उतार कर मुझे बांहों में भरकर प्यार करती।... वह चली जाती। पर मुझे कई-कई रातों तक उसके सपने डराते रहते। मैं अँधेरे और काली चीज़ों से डरने लग पड़ा था। भूतों, प्रेतों, चुड़ैलों, डायनों और छलावों की मैंने जितनी बातें और कहानियाँ सुनी थी, उन पर विश्वास दृढ़ हो गया था। मुझे सपनों में ऐसी ही बुरी चीज़ें दिखाई देतीं थी और मैं चीखें मारकर उठ बैठता था।
दिन में खेलने के लिए हमारी गली के सामने एक ऊँचा टीला था जिसको पथवाड़ा कहते थे। जहाँ पर पशुओं वाले अपने पशुओं के गोबर की और ग़रीब लोग चलते हुए पशुओं का गोबर इकट्ठा करके पाथियाँ पाथते थे। हम उनके बीच वाली थोड़ी-सी जगह पर घुतियाँ खोद कर रीठे, कौड़ियाँ और कंचों के साथ खेला करते थे। मैं खेलता कम था और खेलते हुओं को देखता ज्यादा था। मुझे हारने का डर लगा रहता था। मैं अब तक हरेक उस खेल से डरता रहा हूँ, जिसमें जूए जैसी हार-जीत हो। साहित्य भी मुझे आधी-सी जूए जैसी हार-जीत जैसा खेल ही लगता रहा है। जिसमें आपकी बुद्धि, ज्ञान और यहाँ तक कि अनुभव भी धरा-धराया रह जाता है।
उस टीले पर थोड़ा और आगे जाकर बाबा हरनामे का चरस(चमड़े का बड़ा थैला) चला करता था। जिससे म्युनिसिपल कमेटी द्वारा तालाब को भरवाया जाता था। जब बैलों की जोड़ी रस्से को खींचती ढलान की ओर जाती और फिर लौटने को होती तो बाबा बड़ी फुर्ती से पानी से भरा चमड़े का थैला खींच कर चहबच्चे में उंडेल देता। तालाब में पानी थोड़ा होता तो हम बच्चे उसमें नहाते। अधिक हो जाता तो बड़ों से डर कर निकल जाते। हमें उनके द्वारा गन्दी हरकतें करने का डर भी लगता था।
वहाँ तीन चीज़ें ऐसी थी जिनके बारे में मैं परियों की कहानियों की तरह सोचता रहता था। एक थी- तालाब के एक तरफ बनी कपड़े की ओट जहाँ औरते नहाया करती थीं। बड़े लड़के उस कपड़े को बड़ी उत्सुकता से देखते और रहस्यभरी बातें किया करते थे। हम भी उनके साथ कपड़े की जालियों को देखते थे। पर दिखाई किसी को कुछ नहीं देता था। मुझे लगता, जैसे वहाँ जादू का तमाशा हो रहा हो।
दूसरी चीज़ डिस्ट्रिक बोर्ड का प्राइमरी स्कूल था, जिसमें ग़रीब घरों के बच्चे पढ़ते थे। या जो दूर नहीं जाना चाहत थे। नहीं तो खन्ना के आम बच्चे ए.एस. हाई स्कूल और उसकी प्राइमरी ब्रांचों में ही पढ़ते थे। उस सरकारी और टूटे-फूटे स्कूल की खिड़कियाँ तालाब की ओर खुलती थीं। जिनमें से मैं लड़कों को पढ़ते, कान पकड़ते, उंगलियों में कलमों को फंसते और डंडे खाते देखा करता था। मारने वाले दो मास्टर थे, जो सिर पर कुल्ले रखकर पीछे की ओर लटकती लड़ों वाली पगड़ियाँ बांधते थे। वे कभी-कभी सलवारें भी पहनकर आते थे। मुझे उनसे उसी तरह डर लगने लग पड़ा था, जिस तरह हींग, शिलाजीत और गरम मसाले बेचने वाले पठानों से लगता था। जिनके बारे में हमारे अन्दर यह डर बिठा दिया गया था कि वे बच्चों को अपनी सलवारों में छिपा कर ले जाते हैं।
तीसरी अद्भुत चीज़ तालाव के निवाण में पुराने बाज़ार की ओर लड़कियों का लॉअर मिडल स्कूल था। जिसमें बड़ी-बड़ी लड़कियाँ पढ़ा करती थीं। जिनमें कई बुरके पहनकर आती थीं। पर उनके बुरके 'मरियां' जैसे काले नहीं होते थे। वे रंग-बिरंगे होते थे। लड़कियों को स्कूल ले जाने और घरों तक छोड़ने के लिए माइयाँ रखी हुई थीं। वे लड़कियाँ स्कूल के बाहर बुरका पहनती थीं और दरवाज़े पर आकर उतारकर अन्दर घुसती थीं। पर मास्टरनियाँ उनको छिपाने के लिए बड़ी सख्ती करा करती थीं।
उससे आगे आर्य प्राइमरी स्कूल था। घरवालों की बातों से पता चलता था कि मुझे उस स्कूल में एक दिन दाख़िल होना था। मुझे स्कूल के लिए चालू करने के वास्ते बड़े भाई के साथ या चाचा के साथ भेज दिया जाता। स्कूल की दहलीज़ पार करते ही मेरी जान निकलने लग पड़ती थी। मैं सभी की आँखों में धूल झोंककर कुछ देर बाद वहाँ से भाग जाता था और लड़कियों के स्कूल के सामने एक ओट-सी में छिपकर बैठ जाता था। दो-दो घंटे मैं एक ही जगह पर छिपा लड़कियों को निकलते-घुसते देखता रहता था।
आर्य स्कूल की उस प्राइमरी ब्रांच में आर्य समाजी मास्टर जी मेरे बाई जी के बड़े स्नेही थे। वे मारते नहीं थे। वे नये बच्चों को चीनी की गोलियाँ या मछलियाँ भी देते थे। पर एक अन्य डर मेरे अन्दर घुसा रहता था। वह था - टीके लगाने वालों का। पता नहीं कब कमेटी वाले टीके लगाने वालों को भेज दें। मैं किसी भी अजनबी आदमी को अन्दर आता देखते ही तख्तपोशों के नीचे घुस जाता था। फिर नीचे-नीचे ही मिट्टी में सनता लुढ़कता हुआ दरवाजे से बाहर हो जाता था।
माँओं को तो बेटे प्यारे होते ही हैं, पर घर के अन्य सदस्यों को मेरे में कोई गुण नहीं दिखाई देता था। माँ के बाद दादी और बुआ प्यार करती थीं। घर में मेरे लिए एक और दिलचस्पी वाली चीज़ थी- वह था पक्के रंग का काका जो रब ने मेरी माँ को दिया था। जो बख्शी गुज्जरी लेकर आई थी। वह मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। मेरा मन करता था कि उसके पास बैठकर उसको देखता ही रहूँ। मेरी दादी कहा करती थी कि वह भगवान कृष्ण ने दिया था। उससे पहले मेरे बड़े भाई के बारे में कहा जाता था कि वह बख्शी गुज्जरी लाई थी। वह जब हमारे घर आती थी तो बड़े भाई को ही प्यार करते हुए कहा करती थी, ''आ जा मेरा पुत... चल अपने घर मेरे पास।'' उसके इतना कहने पर मेरा भाई उसको बड़ी गन्दी गालियाँ निकालता था और वह ज़ोर से हँसने लगती थी। जैसे बच्चे के मुँह से गन्दे गन्दे शब्द सुनकर उसको आनन्द आता हो।
प्रेम प्रकाश
हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव
प्रारंभ
मैं समझता हूँ कि किसी साहित्यकार और उसके साहित्य को समझने के लिए यह बात बड़ी सहायक सिद्ध होती है कि उसके समय और उसके उस वातावरण को जाना और समझा जाए, जिनमें वह अपने जन्म से लेकर उन्नीस-बीस वर्ष तक की आयु में रहा होता है। क्योंकि इसी समय में व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव रखी जाती है। फिर उसका जितना भी विकास होता है, उन्हीं नीवों पर ही होता है। इस छोटी उम्र में व्यक्ति के मन में पड़ी गाँठे उमभ्रर उसके साथ चलती हैं। उनमें खूबियों और खराबियों के जोड़-घटाव तो होते रहते हैं, पर जो भी विकास होता है, उसकी जड़ों में वही संस्कार होते हैं जो छोटी उम्र में बन जाते हैं।
सो, लेखक के तौर पर मेरे व्यक्तित्व और मेरे साहित्य को समझने के लिए मेरे लड़कपन के बारे में शायद जानना आपके लिए लाभदायक हो। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव उस उम्र की भावनाओं से बना करती हैं।
पुश्तैनी गाँव
मुझे हरिद्वार और पिहोवा के अपने तीर्थ-पुरोहितों की बहियों से ज्ञात हुआ कि हम अट्ठाहरवीं सदी ईसवी के अन्तिम हिस्से में महाराष्ट्र या राजस्थान के किसी इलाके में से उठकर पंजाब की रियासत नाभा की तहसील अमलोह के एक गाँव 'बहिणा बहिणी' में आ बसे थे। वहाँ से उठकर उसके नज़दीक ही 'भट्ठा' नाम के हमारे एक बुजुर्ग़ ने नया गाँव 'भट्टो' बनाया। वहाँ से उठकर मेरे पड़दादे का पड़दादा हजारी लगभग 1843 ईसवी में पठानों के गाँव बदीन पुर (उस वक्त रियासत नाभा की तहसील अमलोह) में आ बसा था। यह गाँव खन्ना, मंडी गोबिंदगढ़ और अमलोह के बीच में बसा हुआ है। हजारी के पुत्र तुला राम ने हमारी जड़ चलाई। बदीन पुर से मेरा दादा लाला नौराता राम डाकों से डर कर 1930 ईसवी में मेरे जन्म से करीब दो वर्ष पहले करीबी शहर खन्ना के मोरी मुहल्ले में बना-बनाया मकान खरीद कर आ बसा। बदीन पुर हम आते-जाते रहते थे। वहाँ हमारी थोड़ी-सी ज़मीन खरीदी हुई और कुछ गिरवी ली हुई थी। वहाँ हमारा पक्का घर भी था। जहाँ बैठकर हम कभी दोपहर काट लेते थे। उसके एक कोठे में बंटाई का भूसा भरवा लेते थे। हमारी अधिकांश ज़मीन उसके साथ वाले जट्टों के गाँव बड़गुज्जरां में थी। जिसे मेरे दादा ने किसी कर्ज़ के मारे गैर-काश्तकार पठान से खरीद थी। वहीं एक रहने के लिए घर बना हुआ था, जहाँ हम बंटाई का भूसा और काठ कबाड़ रखा करते थे।
1950 में हमारा आधा परिवार खेती करने की मजबूरी के कारण बड़गुज्जरां जा बसा था। बड़े लम्बे चौड़े आँगन वाले मकान को बसने योग्य बनाने के लिए हमने उसको और ज्यादा छत लिया था। आँगन में कीकर के समीप नीम का पेड़ लगा लिया था।
जन्म
मेरा जन्म सरकारी काग़ज़ों के अनुसार 7 अप्रैल 1932 को पिता लाला राम प्रसाद और माता बीबी दयाबंती के घर खन्ना, ज़िला-लुधियाना में हुआ। मैं स्वयं भी आम तौर पर यही बताता हूँ। परन्तु यह सही नहीं है। असल में, मेरा जन्म 26 मार्च 1932 को खरड़ के साथ लगने वाले अपने ननिहाल के गाँव 'नया शहर' जिसको आम बोलचाल में 'नवां शहर' कहते हैं(उस समय ज़िला अम्बाला और अब ज़िला-रोपड़) में हुआ। यह गाँव तब खरड़ से मील भर की दूरी पर था, परन्तु अब खरड़ का हिस्सा बन गया है। मैं उस गाँव का नाम इसलिए भी नहीं लिया करता कि सुनने वाला तुरन्त 'नवां शहर दुआबा' सोच लेता है। उस गाँव में मेरे नाना जी हकीम गंगा राम बीमारी को पहचान कर नुस्ख़ा लिख देने का काम करते थे। अधिक कमाई न होने के कारण मेरे तीन मामा फौज में भर्ती हो गए थे। एक स्वतंत्रता संग्राम की राह चल पड़ा था और एक थोड़ी-बहुत हिकमत(हकीमी) करता रहा। सभी पढ़े-लिखे आर्यसमाजी थे। यहाँ तक कि मेरी बीबी(माँ) हिंदी पढ़-लिख लेती थी और उर्दू की चिट्ठी भी बांच लेती थी। मैं अपने ननिहाल दो-चार बार ही गया था।
मेरे ननिहाल वाले घर में एक हारमोनियम और एक बैंजो हुआ करता था। जिन पर मामा लोग सुर निकाला करते थे। बड़े मामा जी सूबेदार बालक राम पंजाबी के कवि थे। उनका तख़ल्लुस (उपनाम) 'प्रेम' था। उन्होंने स्वामी दयानंद की जीवनी 'प्रेम सागर' शीर्षक से पंजाबी कविता में लिखी थी, जो शाहमुखी(पंजाबी जो उर्दू लिपि में लिखी जाती है) और देवनागरी में छपी थी। स्वतंत्रता संग्रामी मामा जी श्री गिरधारी लाल उर्दू में देशभक्ति की कविता लिखते थे और उनका तख़ल्लुस 'शौक' था। आम तौर पर अख़बारों में छपते थे। एक अन्य मामा जी भी तुकबंदी किया करते थे। 'शौक' साहिब ने जालंधर से उर्दू में एक साहित्यिक परचा 'नुकूश' निकाला था। इस परचे के वेतनभोगी संपादक फ़िक्र तौंसवी और ताजवर सामरी थे।
मैं अपने किसी भी मामा से प्रभावित नहीं था। मुझे न ही उनके शे'रों में कोई दिलचस्पी थी और न ही किसी बाजे के सुर निकालने में। मेरे एक मामा जी मेरे विषय में कहा करते थे कि इसके अन्दर संगीत वाले कान नहीं हैं। हो सकता है कि गुप्त तौर पर मेरे संस्कारों पर मेरे मामाओं का असर होता रहा हो। मैं मेलों में गानेवालों की तरफ और कवियों के लिखे किस्सों की तरफ छोटी उम्र में ही खिंचा चला जाता था। खन्ना में हर साल दशहरे के अवसर पर होने वाली राम लीला, शहर के कलाकारों द्वारा खेले जाते अन्य नाटक, चलती-फिरती नाटक मंडलियों की रास लीला, मिरासियों की नकलें और नचारों(नृतकों) के जलसे देखे बग़ैर मेरे से रहा नहीं जाता था। उनके सीन सपनों में मुझे दिखते रहते थे। पर अधिक संकोची स्वभाव का होने के कारण मैं केवल एक दर्शक ही बना रहा। दर्शक भी मैं चोरी का था। हमारे घर में तमाशा देखना तो दूर की बात थी, हमारे दादा जी तो घर में किसी को सीटी भी नहीं बजाने देते थे। कोई व्यक्ति गा नहीं सकता था। किसी को गाते सुनकर वह कहा करते थे, ''यह कोई कंजरों का घर है ?''
मेरी पत्नी जनक दुलारी अपने दहेज में विलायती कंपनी फिलिप्स का रेडियो लाई थी। दसेक दिन बाद किसी ने उसे बजाया। जब उसमें से गाने की आवाज़ निकली तो मेरे दादा जी ने सोटी से पीट पीटकर उसका ढांचा तोड़ दिया और गुस्से में बोले, ''ससुरा बेशरम, अभी भी नहीं हटता।'' वह बजता रहा था। फिर उन्होंने उसकी तारों को तोड़कर भूसे वाले कोठे में भूसे के नीचे दबा दिया था।
मेरे दादा दी लाला नौराता राम धन और ज़मीन के बहुत लोभी थे। उन्होंने खूब मेहनत और काम करके पता नहीं किन जुगतों से पाँच सौ बीघे से भी अधिक ज़मीन बना ली थी। सबसे अधिक ज़मीन गाँव बडगुज्जरां में थी। 301 बीघे का एक टुकड़ा, जिसमें तीन कुएँ थे। 85 बीघे का अलग टुकड़ा, एक कुएँ वाला। अधिकांश बदीन पुर के पठान से खरीदी हुई थी। कुछ कुम्हार थे। 1947 के विभाजन के बाद जब ब्याज पर पैसे लेने वाली असामियाँ जिमनें बहुत से मुसलमान थे, पाकिस्तान चली गईं तो हम भी उजाड़ से गए। हमारी अधिकतर ज़मीन मुसलमान जट्ट ही बंटाई पर जोतते थे। वही असामियाँ थीं। करीब तीन साल के अन्दर-अन्दर हमारे दाने खत्म हो गए। हमें विवश होकर गाँव बड़गुज्जरां में जाकर खेती करनी पड़ी थी। ऊपर से पैप्सू में ज़मींदारी एक्ट बनने का शोर मच गया था। हमें ज़मीन के छिन जाने का भी डर था। काफ़ी ज़मीन हमें मिट्टी के भाव बेचनी पड़ी थी। कुछ जट्ट सिक्ख संगठनों ने दबा ली थी।
मैंने 1949 में दसवीं पास की थी। मेरे पास खेती करने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं था। मैं पढ़ना चाहता था, पर घर के हालात ठीक नहीं थे। मुझसे छोटे भाई सत्य प्रकाश को सातवीं कक्षा में से उठा कर खेती के काम में लगा दिया गया था। आमदनी का दूसरा साधन नहीं रहा था। घर में रुपया-पैसा दो तीन वर्षों में खत्म होने पर आ गया था। बस, रोटी चल रही थी। वैसे खन्ना शहर में भी कई मकान और दुकानें थीं। दुकानों के किराये आते थे। मैंने दुकान न करने का फ़ैसला सुना दिया था। फिर तो एक ही राह बचा था- खेती करो और रोटी खाओ। नहीं तो घर से भाग कर जहाँ जाना हो, चले जाओ। मुझसे बड़ा भाई विवाहित था। वह फ़ौज़ से भागकर आने को घूमता था। मैं दूसरे नंबर पर था। बाकी दो बहनें और चार भाई कुंआरे थे। छोटे चारों भाई और एक बहन पढ़ती थी। पूरे परिवार का बड़ा बोझ बाई जी पर था।
बालपन
जब मैंने होश संभाला तो हम खन्ना के मोरी मुहल्ले की टीले जैसी ऊँची जगह पर बनी एक छोटी-सी गली के सिरे पर बने डिब्बाबन्द पक्के मकान में रखते थे। घर में दादा था, दादी थी। दादा को हम 'बड़े बाई जी' और दादी को ‘माँ’ कहा करते थे। पिता जी को 'छोटे बाई जी' कहते, माता जी को 'बीबी जी' कहते, पड़दादी को 'बेबे'। घर में दो बुआ, एक चाचा, एक बड़ा भाई था। घर का दरवाज़ा खोलते ही एक छप्पर के नीचे एक भैंस और एक गाय हुआ करती थी। फिर खुला स्थान और फिर एक लम्बा बरामदा था, जिसमें एक कोने में चक्की पड़ी होती थी और एक तरफ औखली गड़ी हुई थी। सामने ईंटों के पक्के फर्श वाला चौकोर आँगन था। बायीं ओर छोटी पर पक्की रसोई थी। उसके सामने दो लम्बे दालान थे, जिन्हें सबात कहा करते थे। एक सबात के बायीं ओर अँधेरी कोठरी थी, जिसमें दीया जलाकर पता चलता था कि वहाँ लक्कड़ के सन्दूक और लोहे की पेटी पड़ी है।
दादा जी (बड़े बाई जी) क्या काम करते थे, मुझे नहीं मालूम था। बाई जी गाँवों में फ़सलें देखने, किसी को कुछ देने और किसी से कुछ लेने या अमलोह या नाभा में पेशियों पर जाया करते थे।
गली में एक घर बूढ़े जट्ट मास्टर हरनाम सिंह का था, जिसने औरत(नई उम्र की) खरीद कर बसाई हुई थी। मास्टर की दाढ़ी सफ़ेद थी। साथ वाला घर नाईयों का था। वे साफ़-सुथरे लोग थे। उनके बच्चे मेरी माँ को मासी(मौसी) कहते थे और हम उनकी बीबी को मासी कहा करते थे। यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी।
इस गली के आसपास अन्य जो लोग रहते थे, वे बहुत ग़रीब मुसलमान थे। इनमें गुज्जर, राईं, खुरी लगाने वाले लोहार, बक्करवाल, रूईं पींजने वाले, जुलाहे, छींबे, कलीगर, नेचेगर, नाई, धोबी और दिहाड़ी करने वाली अन्य जातियों के लोग शामिल थे। मुसलमानों के टूटे-फूटे से कच्चे-पक्के घर छोड़कर एक गली हिंदुओं की थी। पर उनके बच्चे हमारे पास खेलने नहीं आते थे। हमारा इलाका तंग-गन्दा मोरी मुहल्ला था। भाँति-भाँति की जातियों के लोगों के घर थे। हमारी किसी के साथ ज्यादा सांझ नहीं थी।
स्कूल जाने से पहले मुझे खेलने को जो बच्चे मिलते थे, वे आम तौर पर नंगे और गन्दे रहते थे। बात बात पर गालियाँ निकालते थे। रोटी, जिसे वे 'टुक' कहा करते थे, उसको नमक-मिर्च और प्याज की चटनी लगी होती थी और वे उसको मरोड़कर गोल करके हाथों में पकड़े मक्खियों भगाते खाते-खाते खेलते रहते थे। यदि किसी के कपड़े होते, वे खराब, मैले और फटे हुए होते। लड़कियाँ पाँच-छह साल की उम्र तक और लड़के सात-आठ साल की उम्र तक कमर के नीचे कपड़ा कम ही पहनते। उनके गुप्तांग लड़कों की तहमतों में से और लड़कियों की फटी सलवारों में से झांकते रहते थे, जिसकी वजह से एक-दूजे से छेड़खानी होती रहती थी। जब किसी मुसलमान लड़के का खतना(सुन्नत) होती थी तो सारा मुहल्ला इकट्ठा हो जाता था। छोटी उम्र की लड़कियाँ भी साथ खड़ी होती थीं। 'वो देख तेरे मामे की चिड़िया उड़ती है' कहते ही खलीफ़ा (नाई) उस्तरे से मांस का छल्ला उतार देता था। लहू नीचे पड़े तसले की राख में छिप जाता था। ज़ख्म पर काली-सी दवाई वाली पट्टी लपेट दी जाती थी। चावल बांटे जाते थे। पर हिंदुओं के लड़के नहीं लेते थे। चावल या गुड़ बांटने वाली औरतें खुद ही नहीं देती थीं।
हिंदुओं के बच्चे मुसलमानों के हाथों का छुआ भी नहीं खाते थे। मुझे मुसलमानों के बच्चों के बदन और कपड़ों में से बू आती रहती थी। यह बात अलग है कि मैं खुद साफ़ नहीं रहता था। अपनी कमीज़ की बांह से बहते नाक को पोंछ लिया करता था। जिस लड़के का खतना हुआ होता था, उसके पास से अजीब किस्म की दिल खराब करने वाली बदबू आती रहती थी। वह नंगा घूमता या तहमत पहनकर अगला हिस्सा नंगा और टांगे चौड़ी किए फिरता ताकि कपड़ा ज़ख्म से न छू जाए। उनकी बोलचाल और उठने-बैठने का मेरे पर इतना असर पड़ा कि मेरे घरवाले दुखी होने लग पड़े। मैं हरवक्त बहुत ही गंदी गालियाँ निकालता रहता था और मुझे पता ही नहीं चलता था कि मैं क्या कह रहा हूँ। इतना पता था कि मेरे ऐसा कुछ कहने से दूसरे को बुरा लगता है। उसको चोट पहुँचती है। दसरे को चोट मारने के लिए सोटी, थप्पड़-मुक्का मारने और गालियाँ बकने के अलावा भी अन्य कई बातें थीं। जैसे किसी के चुत्तड़ों में उंगल देना, किसी को पकड़कर चूम लेना, किसी को बाहों में भरकर शरीर के नीचे के हिस्से वाली हरकतें करना, आँखें मारना, उंगली इधर-उधर लगाना, हाथों, बाहों, हथेली और उंगलियों की शक्लें बनाकर उन्हें हिलाना आदि। मैंने वे सारी बातें सीख ली थीं। पर मुझे उनके अर्थ नहीं जानता था। सिर्फ़ इतना ख़याल था कि ऐसा करने से दूसरा चिढ़ता है। या कोई तगड़ा लड़का अपनी ताकत दिखाने के लिए कमज़ोर के साथ ऐसी हरकतें किया करता था। कई तगड़े लड़के जब मेरे साथ ये हरकतें करते थे तो मैं जो अपने अस्त्र चलाता था, वे रोने के साथ-साथ गालियाँ निकालने वाले होते थे। बड़े लड़के मेरी गालियाँ सुनकर हँसते हुए यह कहा करते थे कि इसने जो गाली एक बार निकाल दी, वह दूसरी बार नहीं निकालेगा। हर बार नई ही निकालेगा।
मेरे घरवाले उस इलाके को बिलकुल पसन्द नहीं करते थे। पर वह मुझे बहुत अच्छा लगता था। खेलने के लिए बच्चों का कोई अन्त नहीं था। छोटे-छोटे घरों में से पाँच-पाँच, छह-छह जने निकलते थे। फिर लोहार जब खुरियाँ (नाल) बनाने के लिए भट्ठी सुलगाते, धौंकनी चलती और लोहा गरम होता और फिर उसको अहरन पर हथौंड़ों से कूटने के लिए ठक-ठक होती, वह मुझे बहुत अच्छी लगती थी। शाम को डंगर खेतों और चरागाहों से लौटकर आते। बकरियों के झुंड आते। चलती-फिरती कटड़ों-बछड़ों को बांधा जाता और मेमनें बाड़ों में संभाले जाते। मैं मेमनों को संभालने में बक्करवालों के लड़कों के साथ काम करता था। बड़ा मज़ा आता था। तब मुझे बाड़े में से बू नहीं आया करती थी। भूख या प्यास लगने पर ही मैं घर में घुसता था। मुझे रोकने के लिए मेरी माँ मेरे बाई जी के आ जाने का डर दिखाती थी। पर मुझे पता होता था कि वो दोपहर के बाद ही लौटते थे। माँ के पास एक और हथियार था जो मेरी चीख़ें निकलवा देता था। वह यह था कि माँ घर के पिछवाड़े रहते मुसलमान दर्जियों की लड़की या बहू मरियां को हांक मारती। थोड़ी ही देर में हमारे कोठे की पक्की सीढ़ियों के सिरे पर काले कपड़ों वाली एक चुड़ैल खड़ी होती। उसके मुँह में बिलांद भर की जीभ लटकती होती। वह चलती आती और जब हमारे घर की सीढ़ियाँ उतरने लगती तो मेरी जान निकलने को हो जाती। भय से मेरा कभी-कभी पेशाब निकल जाता। तब कहीं जाकर माँ के कहने पर वह मरियां बुरका उतार कर मुझे बांहों में भरकर प्यार करती।... वह चली जाती। पर मुझे कई-कई रातों तक उसके सपने डराते रहते। मैं अँधेरे और काली चीज़ों से डरने लग पड़ा था। भूतों, प्रेतों, चुड़ैलों, डायनों और छलावों की मैंने जितनी बातें और कहानियाँ सुनी थी, उन पर विश्वास दृढ़ हो गया था। मुझे सपनों में ऐसी ही बुरी चीज़ें दिखाई देतीं थी और मैं चीखें मारकर उठ बैठता था।
दिन में खेलने के लिए हमारी गली के सामने एक ऊँचा टीला था जिसको पथवाड़ा कहते थे। जहाँ पर पशुओं वाले अपने पशुओं के गोबर की और ग़रीब लोग चलते हुए पशुओं का गोबर इकट्ठा करके पाथियाँ पाथते थे। हम उनके बीच वाली थोड़ी-सी जगह पर घुतियाँ खोद कर रीठे, कौड़ियाँ और कंचों के साथ खेला करते थे। मैं खेलता कम था और खेलते हुओं को देखता ज्यादा था। मुझे हारने का डर लगा रहता था। मैं अब तक हरेक उस खेल से डरता रहा हूँ, जिसमें जूए जैसी हार-जीत हो। साहित्य भी मुझे आधी-सी जूए जैसी हार-जीत जैसा खेल ही लगता रहा है। जिसमें आपकी बुद्धि, ज्ञान और यहाँ तक कि अनुभव भी धरा-धराया रह जाता है।
उस टीले पर थोड़ा और आगे जाकर बाबा हरनामे का चरस(चमड़े का बड़ा थैला) चला करता था। जिससे म्युनिसिपल कमेटी द्वारा तालाब को भरवाया जाता था। जब बैलों की जोड़ी रस्से को खींचती ढलान की ओर जाती और फिर लौटने को होती तो बाबा बड़ी फुर्ती से पानी से भरा चमड़े का थैला खींच कर चहबच्चे में उंडेल देता। तालाब में पानी थोड़ा होता तो हम बच्चे उसमें नहाते। अधिक हो जाता तो बड़ों से डर कर निकल जाते। हमें उनके द्वारा गन्दी हरकतें करने का डर भी लगता था।
वहाँ तीन चीज़ें ऐसी थी जिनके बारे में मैं परियों की कहानियों की तरह सोचता रहता था। एक थी- तालाब के एक तरफ बनी कपड़े की ओट जहाँ औरते नहाया करती थीं। बड़े लड़के उस कपड़े को बड़ी उत्सुकता से देखते और रहस्यभरी बातें किया करते थे। हम भी उनके साथ कपड़े की जालियों को देखते थे। पर दिखाई किसी को कुछ नहीं देता था। मुझे लगता, जैसे वहाँ जादू का तमाशा हो रहा हो।
दूसरी चीज़ डिस्ट्रिक बोर्ड का प्राइमरी स्कूल था, जिसमें ग़रीब घरों के बच्चे पढ़ते थे। या जो दूर नहीं जाना चाहत थे। नहीं तो खन्ना के आम बच्चे ए.एस. हाई स्कूल और उसकी प्राइमरी ब्रांचों में ही पढ़ते थे। उस सरकारी और टूटे-फूटे स्कूल की खिड़कियाँ तालाब की ओर खुलती थीं। जिनमें से मैं लड़कों को पढ़ते, कान पकड़ते, उंगलियों में कलमों को फंसते और डंडे खाते देखा करता था। मारने वाले दो मास्टर थे, जो सिर पर कुल्ले रखकर पीछे की ओर लटकती लड़ों वाली पगड़ियाँ बांधते थे। वे कभी-कभी सलवारें भी पहनकर आते थे। मुझे उनसे उसी तरह डर लगने लग पड़ा था, जिस तरह हींग, शिलाजीत और गरम मसाले बेचने वाले पठानों से लगता था। जिनके बारे में हमारे अन्दर यह डर बिठा दिया गया था कि वे बच्चों को अपनी सलवारों में छिपा कर ले जाते हैं।
तीसरी अद्भुत चीज़ तालाव के निवाण में पुराने बाज़ार की ओर लड़कियों का लॉअर मिडल स्कूल था। जिसमें बड़ी-बड़ी लड़कियाँ पढ़ा करती थीं। जिनमें कई बुरके पहनकर आती थीं। पर उनके बुरके 'मरियां' जैसे काले नहीं होते थे। वे रंग-बिरंगे होते थे। लड़कियों को स्कूल ले जाने और घरों तक छोड़ने के लिए माइयाँ रखी हुई थीं। वे लड़कियाँ स्कूल के बाहर बुरका पहनती थीं और दरवाज़े पर आकर उतारकर अन्दर घुसती थीं। पर मास्टरनियाँ उनको छिपाने के लिए बड़ी सख्ती करा करती थीं।
उससे आगे आर्य प्राइमरी स्कूल था। घरवालों की बातों से पता चलता था कि मुझे उस स्कूल में एक दिन दाख़िल होना था। मुझे स्कूल के लिए चालू करने के वास्ते बड़े भाई के साथ या चाचा के साथ भेज दिया जाता। स्कूल की दहलीज़ पार करते ही मेरी जान निकलने लग पड़ती थी। मैं सभी की आँखों में धूल झोंककर कुछ देर बाद वहाँ से भाग जाता था और लड़कियों के स्कूल के सामने एक ओट-सी में छिपकर बैठ जाता था। दो-दो घंटे मैं एक ही जगह पर छिपा लड़कियों को निकलते-घुसते देखता रहता था।
आर्य स्कूल की उस प्राइमरी ब्रांच में आर्य समाजी मास्टर जी मेरे बाई जी के बड़े स्नेही थे। वे मारते नहीं थे। वे नये बच्चों को चीनी की गोलियाँ या मछलियाँ भी देते थे। पर एक अन्य डर मेरे अन्दर घुसा रहता था। वह था - टीके लगाने वालों का। पता नहीं कब कमेटी वाले टीके लगाने वालों को भेज दें। मैं किसी भी अजनबी आदमी को अन्दर आता देखते ही तख्तपोशों के नीचे घुस जाता था। फिर नीचे-नीचे ही मिट्टी में सनता लुढ़कता हुआ दरवाजे से बाहर हो जाता था।
माँओं को तो बेटे प्यारे होते ही हैं, पर घर के अन्य सदस्यों को मेरे में कोई गुण नहीं दिखाई देता था। माँ के बाद दादी और बुआ प्यार करती थीं। घर में मेरे लिए एक और दिलचस्पी वाली चीज़ थी- वह था पक्के रंग का काका जो रब ने मेरी माँ को दिया था। जो बख्शी गुज्जरी लेकर आई थी। वह मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। मेरा मन करता था कि उसके पास बैठकर उसको देखता ही रहूँ। मेरी दादी कहा करती थी कि वह भगवान कृष्ण ने दिया था। उससे पहले मेरे बड़े भाई के बारे में कहा जाता था कि वह बख्शी गुज्जरी लाई थी। वह जब हमारे घर आती थी तो बड़े भाई को ही प्यार करते हुए कहा करती थी, ''आ जा मेरा पुत... चल अपने घर मेरे पास।'' उसके इतना कहने पर मेरा भाई उसको बड़ी गन्दी गालियाँ निकालता था और वह ज़ोर से हँसने लगती थी। जैसे बच्चे के मुँह से गन्दे गन्दे शब्द सुनकर उसको आनन्द आता हो।
(जारी)
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