स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ

>> रविवार, 17 जून 2012



 स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ(4)
सुखवंत कौर मान(जन्म : 1937)
पंजाबी की बहुचर्चित लेखिका सुखवंत कौर मान का जन्म मानावाला,ज़िला शेखूपुरा(अब पाकिस्तान) में हुआ। कहानियों के अतिरिक्त इन्होंने उपन्यास और बाल साहित्य के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय रचनाओं का सृजन किया। इनकी कहानियों के विषय किसानी समाज और निम्न वर्ग से संबंधित होते हैं। यह पंजाबी की एकमात्र ऐसी विलक्षण कथाकार हैं जो औरत को अन्य स्त्री लेखकों की तरह बेबस और स्व-दया का शिकार नहीं दर्शाती। वह औरत के दुखों का कारण उसके साथ की जा रही मर्द की ज्यादती को ही नहीं समझती, अपितु इसको समूचे आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से भी जोड़कर देखती है। वह प्रगतिवादी यथार्थवादी रचना-दृष्टि रखने वाली लेखिका है। 'भखड़े दे फुल्ल'(1981), 'तरेड़'(1984), 'इस दे बावजूद'(1985), 'मिट्टी दा मोह'(1999), 'महरूमियाँ'(2007) प्रमुख कहानी संग्रह हैं। 'जिउण जोगे' इनकी एक प्रतिनिधि कहानी है।               
     


जिउण-जोगे¹
सुखवंत कौर मान


सब तरफ रुंड-मुंड हुआ पड़ा है। मोर पता नहीं क्यों नहीं बोलते। परसों जंगली मुर्गे के पंख सारी सड़क पर बिखरे पड़े थे। फड़-फड़ करता बड़ी कीकर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाया करता था। रात में कीकर पर रहता था। कितने गहरे और चमकीले रंग थे उसके। सवेरे सड़क पर पंख बिखरे पड़े थे। न मालूम किसी शिकारी के हत्थे चढ़ा था या किसी बिल्ली-कुत्ते के। वह आखिरी जंगली मुर्गा था जो इस कीकर पर रहता था।
      इस गाँव के भाग्य में ढहना ही लिखा था। पर यहाँ के वासी गाँव छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं थे। शहर बढ़ता-बढ़ता ऐन गाँव से आ लगा था। कई नोटिस आ चुके थे, गाँव खाली करने के। पर बहुत से लोगों को इसके बदले में कोई ज़मीन नहीं मिली थी। कइयों ने डेयरियाँ बना रखी थीं। कुछेक ने शहर में धंधे खोल रखे थे। कुछ बुजुर्ग़ों को गाँव के साथ मोह ही बहुत गहरा था। हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट। अन्तिम नोटिस के बाद दनदनाता हुआ बुलडोजर गाँव की सड़क पर आ खड़ा हुआ था। गाँव में खलबली मच गई थी। मर्द-औरतें घरों में से सामान निकाल कर भागने लगे। पशुओं को डंडे बरसाते हुए, खुड्डों की ताकियाँ खोलते हुए, पंख फड़फड़ातीं, कैं-कैं करती मुर्गियाँ, मैं-मैं करती बकरियाँ, ट्रंक, बर्तन, चारपाइयाँ घसीटते, हाँफते बच्चे, बूढ़े, जवान, गालियाँ निकालते, रोते-चीखते दौड़ते जा रहे थे।
      ''तुम्हारा कख(कुछ) न रहे वे... तुम्हें पड़े ढाई घड़ियों की रे हमें उजाड़ने वालो...।'' बोलती, बकती, धैं-धैं बकरियों को सोटा मारती, धकियाती, खुले बालों झागो-झाग हुई, काली माई का रूप धारे भन्तो महरी गिरती-पड़ती भागे जा रही थी। बड़बोलों की बुढ़िया ज़ोर-ज़ोर से हाँफती चारपाई घसीटे जा रही थी। अड़ां-अड़ां करती भैंसें बार-बार वहीं के चक्कर काटे जातीं। कच्चे, अध-कच्चे कोठे, बड़े-बड़े भूसे के ढेर, भारी-भरकम बुलडोजर के आगे यूँ उड़ रहे थे मानो कोई बड़ा तूफान आ गया हो।
      कहते हैं- फ्लैट बनाएंगे, बड़े-बड़े शो-रूम बनेंगे, पक्की सड़कें बनेंगी। पहले कुछ लोगों ने बुलडोजर को रोकने की कोशिश की थी, फिर लड़ते-झगड़ते सरकार को कोसते घरों में से सामान निकालने लग पड़े थे। नादान बच्चे कभी ढहते कोठों को देखते, कभी एक-दूसरे को, फिर माँ-बाप के उदास चेहरों को देख खामोश से इधर-उधर घूम रहे थे। फिर अजीब व्याकुलता ने घेर लिया था उन्हें। माँ-बाप के रोकने के बावजूद वे बुलडोजर के पीछे-पीछे चल पड़े थे।
      ''वो देख, कालू की ड़्योढ़ी... ये गिरी...।'' भिंदा चीख पड़ा था।
      ''फिटे मुँह तुम्हारा बेशरमों...'' करतारो ने छिंदो को झिड़का था।
      ''वो देख धीरो, तुम्हारी सबात... दैड़ दैड़...ठाह... ठाह...'' लड़कों की अनायास हँसी निकल गई थी।
      ''रे तुम्हें खुशी कौन-सी चढ़ गई हमारा घर ढहने की...'' धीरो की माँ को गुस्सा चढ़ गया था।
      बच्चे अब पागलों की तरह एक-दूसरे से आगे दौड़ते हुए, अगले घरों का सामान निकलवाते, घसीटते, गाँव की बाहरी सड़क तक लाते पसीने-पसीने हुए पड़े थे।
      रात भर कुत्ते रोते रहे थे, मलबे के ढेरों पर बैठ कर, अजीब-अजीब आवाज़ें निकालते। रोती बिल्लियाँ गिरे हुए गाँव के चक्कर काट रही थीं। भन्तो महरी की भर्रायी हुई आवाज़... कभी लगता-चीखें मार रही है, कभी लगता- रो रही है... फिर ताली बजा कर हा... हा... हा... करके अट्टहास करती हुई... एक खौफ़नाक आवाज़।


      दिन चढ़ते ही ठेकेदार आ गया है, आरे, कुल्हाड़े और मजदूर लेकर। गाँव के पीपल, बरगद और धरेक के पेड़ काटने के लिए। ये इसी गाँव के लोग हैं जो शहरी मजदूर बन गए हैं। इस उजड़े गाँव के लोगों पर सरकार की बड़ी कृपा है। कच्ची नौकरी पर रख लिए गए हैं।
      ''रे कुछ नहीं रहेगा तुम्हारा... पीपल न काटना।'' भन्तो महरी बांहें खड़ी करके दुहाई दे रही है। एक मिनट के लिए मजदूर ठिठक जाते हैं।
      ''क्यों क्या हो गया ?'' ठेकेदार ने रौब भरे स्वर में पूछा है।
      एकदम उन्होंने एक दूसरे की तरफ देखा है। ठक-ठक कुल्हाड़े चल पड़े हैं। 'तेरी माँ...'' कोई सख्त तने को गालियाँ दे रहा है। क़हर भरी नज़रों से कभी आसमान की तरफ, कभी एक दूसरे की तरफ, और कभी ठेकेदार की ओर देखते हुए, गांठों भरी हथेलियों पर थूकते, उन्हें मलते, तने पर बार-बार वार करते, पसीना पोंछते हाँफ रहे हैं।
      अब वे सब पानी के घड़े के इर्द-गिर्द खड़े हो गए हैं। करतारा कह रहा है, ''वो था हमारा घर... वो नीम मेरे पड़दादा ने लगाई थी। देख लो, कितना मोटा तना है। इसके नीचे मेरी माँ चरखा काता करती थी। दादी अटेरन से सूत अटेरा करती थी।''
      ''चलो, काटो भई...,'' ठेकेदार ने हांक लगाई है।
      ''तेरी तो...'' करतारे ने मुँह ही मुँह में गाली निकाली है।
      भिंदर और शीशू ठहाका लगा कर हँस पड़े हैं। उन्होंने कुल्हाड़े सीधे कर लिए हैं। पुराने पीपल के तने... पीपल बहुत मोटा और घना है... करतार, भिंदर और शीशू की सांसें फूली हुई हैं।
      ''रे जद-मुनियाद(कुल-वंश) नहीं रहती.. ना काटो रे पीपल... देवता होता है।'' भन्तो महरी दुहाई देती हुई वहाँ से गुजर गई है। सुना है, पागल हो गई है। पहले कुएं बन्द हो गए। फिर होटलों ने महरों का काम बन्द करवा दिया। लड़का होटल में नौकर हो गया। अब चण्डीगढ रहता है। भन्तो वहाँ नहीं गई। शायद, गई थी, पर लौट आई। उसका दिल नहीं लगा वहाँ। वह अपने गाँव के कच्चे कोठे में ही रहती थी। अर्द्ध पागल-सी। कभी-कभी भट्ठी तपा बैठती। दाने भुनाने के लिए कोई आता ही ना। लोग हँसते। वह फिर भी बालण झोंके जाती भट्ठी में। कई बार कड़ाही में कूजा मार रही होती मानो चने भून रही हो।
      ''ये देख रे लच्छू, ये मक्की कैसे खिली है,'' वह रेत छाने जाती।
      ''भई ला दे दाने, चबाएं...'' आते-जाते लोग भन्ती से मखौल करते, मसखरी करते।
      उसका घरवाला लच्छू महरा। बकरियों का रेवड़ था उसका। पहले गाँव का पानी भरता कुएं से। फिर रेवड़ लेकर चल देता। कीकर के जंगल की ओर हो लेता। बकरियाँ कीकरों की शाखाओं से लटक जातीं, चबर-चबर करके कीकरों के पत्ते चरने लगतीं। लच्छू माता की भेंटे छेड़ लेता। खुद-ब-खुद पूरे रौ में। फिर मिर्ज़ा गाने लगता। और फिर बोगे नार। कोई रोकने वाला होता, न कहने वाला। गाँव की साझी भूमि- शामलाट। कई भैंसों के चरवाहे भी उधर आ जाते। कीकरों के नीचे लम्बा-लम्बा घास... भैंसें चरती रहतीं, लड़के शर्त लगा लगा कर कुश्तियाँ करते, कबड्डी खेलते, उनमें से एक-दो लड़के बारी-बारी से भैंसें संभाल लेते।
      ''क्यूँ ताया, बूढ़ा हो गया, लत ना गई।'' मिर्ज़ा गाते को लड़के ताना मारते। पर जब वह देवी की भेंटें गाता था, गाते-गाते सौदाई हो जाता। मस्ती में नाचने लग पड़ता। दुलत्तियाँ मारने लगता।
      ''ओए मूर्ख, ये तेरी साली बकरियाँ...'' साथ ही खेत में घूमता जट्ट उसकी बकरियों को धूं-धूं पीटता, रेवड़ लिए आता। लच्छू देखता, घबराई हुई बकरियाँ मिमियाती हुई उसके इर्द गिर्द इकट्ठा होने लगती। एक-एक के मुँह पर वह हाथ फेरता, सहलाता, प्यार करता। देखता, किसी की टांग कटी होती, किसी का बदन कहीं से कटा होता। उसकी आँखों में आँसू आ जाते। उसका गला भर आता। घर जाता तो भन्तो बकरियाँ गिनती। एक बकरी या मेमना गुम हुआ होता। वे बार-बार गिनते। गिनते-गिनते फिर भूल जाते। आपस में लड़ पड़ते। वह भन्तो को पीटता-मारता। उसकी चुटिया खींच लेता। घर में कोहराम मच जाता।
      ''तेरा कख न रहे रे गहिलू रे... तुझे आए ढाई घड़ियों की रे, मेरी बकरी चुराने वाले...।''
      ''सुन लो रे गाँव वालो ! आज चुराई इसने मेरी बकरी, कल मेरी लड़की पर हाथ डालेगा। मैं टुकड़े-टुकड़े ना कर दूँ तो... बना फिरता है कुत्ता जट्ट !'' भन्तो हाथ में बकरियों वाली डांग लिए गहिलू की ऐसी-तैसी किए जाती।
      ''काट दूँगी कीकर की टहनी की तरह...'' गालियाँ बकती-बकती वह दौड़ने लगती। लच्छू उसके पीछे-पीछे भागने लगता। वह भन्तो के पीछे भागता भी और गन्द भी बकता। भन्तो और आगे दौड़ जाती।
      रात में गहिलू के घर में मांस पकता। पतीला खौलता। तड़के की महक आधे गाँव में फैल जाती। कई घरों में मांस के कटोरे बांटे जाते। शराब पीकर गहिलू भन्तो के घर की तरफ दौड़ पड़ता।
      ''तेरी ओए... मैं तेरी धी(बेटी) की...'' वह गन्दी गालियाँ बकता। उसकी बेटी को उठा ले जाने की धमकी देता। भन्तो उछल-उछल कर उसकी ओर दौड़ती। लच्छू उसे चुटिया से पकड़ कर घसीटते हुए अन्दर बन्द कर लेता।
      सवेरे घर-घर जाकर लच्छू रोता पीटता। जजमानों के आगे दुहाई देता। रोता-मिमियाता। पंचायत जुड़ती।
      ''नहीं, ऐसे तो गरीब का गला काटने वाली बात हुई,'' गहिलू का दुश्मन लच्छू के समर्थन में बोलता।
      ''माई बाप, यह तो हुई हक की बात, मोतियाँ वालो।''
      ''इसकी बकरियाँ मेरा तोरी का खेत उजाड़ गईं हैं। मैं हर्जाना लूँगा।'' गहिलू पासा फेंकता।
      ''हाँ भई, माता का भगत है। जब भेंटें गाते इसको होश नहीं रहती।''
      ''यह तो सही है, अपना लच्छू भगत पूरा है।''
      ''परसों जगराते में देखा मैंने तो, बस उल्टा हो-हो कर नाचा।''
      ''हाँ लच्छू, अपनी बकरियाँ संभाल कर रखा कर।'' सरपंच फैसला सुनाता।
      लच्छू के संग मसखरी करती पंचायत बिखर जाती।
      लच्छू हरेक विवाह पर बकरे काटता। मीट बड़े चाव से बनाता। घराती-बराती सब उंगलियाँ चाटते रह जाते।
      कई गांवों में उसके महाप्रसाद की धूम मची हुई थी।
      पर धीरे-धीरे शहर के होटलों ने उसका यह धंधा भी ठप्प कर दिया था।
      लच्छू की बकरियाँ धीरे-धीरे गुम होती गईं। फिर सारी ही गुम हो गईं। फिर एक रात उसने अपने आप को सामने वाले कीकर पर टांग कर फांसी लगा ली थी।
      ''हई शा... ज़ोर लगा कर...'' ठेकेदार ने मजदूरों का हल्ला-शेरी दी है। ''शाबाश, काटो भई कीकरों को...एक दो ही तो रह गए हैं।''
      छोटे-छोटे फुर्तीले जानवर-परिन्दे, चीं-चीं करते हवा में कलाबाजियाँ लगा रहे थे। कीकरों के आसपास मंडरा रहे हैं जिन पर उनके घोंसले टंगे हुए हैं। उनमें छोटे-छोटे बच्चे हैं जो चोंच खोलते और बन्द करते हुए बहुत निरीह लग रहे हैं।
      ''सरदार जी, तरस-सा आता है इन बच्चों पर,'' शेरू ने कुल्हाड़ा रोकते हुए कहा है। ठेकेदार सुना अनसुना कर आगे बढ़ गया है।
      ''धत्त ! ऐसी नौकरी के... बिलकुल ही जी मार कर... कौन से जुग में भला होगा।'' करतारे ने माथे पर आया पसीना पोंछा है।
      ''ये देख बिजड़े(बया पक्षी) रो रहे हैं...ये देख कीं-कीं कर रह हैं... हे वाखरू(हे वाहेगुरु) किस काम में लगा दिया।'' शामलाट वाले काट कर नीचे गिराये गए कीकर के वृक्षों  से गिरे पड़े घोंसले, दबे-कुचले से बोट... बीच में अंडे टूटे हुए... उधर बयाओं की चिचिआहट।
      ''भई गदर है निरा।''
      भैंसों के लिए घास लेने आई औरतें बेचारी-सी होकर खड़ी हो गई हैं। बाबा लक्खा और चेतू दोनों अपनी सोटियाँ टेकते हुए इस उजड़ी हुई तहस-नहस हुई शामलाट को देखते, झुक कर चलते हुए गिराये गए गाँव की ओर चल पड़े हैं। छोटे नादान बच्चे बया के घोंसले इकट्ठा कर रहे हैं। भन्तो महरी फिर आ गई है। वह आई ही रहती है। वह कहीं भी नहीं जाती।
      ''हाय रे रब्बा ! इनका कख न रहे वे!'' वह टूटे हुए घोंसलों और कटी हुए कीकर के वृक्षों के पास बैठ जैसे वैण डालने लग पड़ी है।
      ''तारा तो ट्रक ले आया है।'' दौड़ कर आते हुए किसी आदमी ने खबर दी है।
      कालू, गोलू और मन्ना सब दौड़-दौड़ कर सामान को ट्रक पर रख रहे हैं। गाँव के कुछ लोग उनके समीप खड़े हैं। ज़मीन की बातें कर रहे हैं। भाव पूछ रहे हैं। ट्रक चलने पर वे सब उदास हो गए हैं। कइयों की तो आँखें भी छलक आई हैं।
      भिंदा, महिणा और बिल्लू दूर से हाँफते हुए से आ रहे हैं। बता रहे हैं कि एस्टेट आफिस वालों ने भैंसों को पकड़ लिया है। मार-मार कर भैंसों के थन तोड़ दिए हैं। अड़ांअ...अड़ांअ... करती भैंसें पीछे की ओर भागती हैं। उन्होंने लाठियाँ मार-मार कर भैंसों की आँखें फोड़ दी हैं। करीब सत्तर-अस्सी भैंसों को घेर कर वे ले गए हैं। ये देखो, जंगी के चोटें आई हैं। ये जोरे की बांह मरोड़ दी। गहिलू के सिर में लाठी बजी है, अस्पताल में है। हम तो खबर देने आए हैं। नहीं, मार कर न मर जाते। गहिलू की घरवाली रोती-पीटती दौड़े जा रही है। बूढ़े माँ-बाप धरती पर डंगोरी टेकते पता नहीं किधर को चल दिए हैं। भन्तो महरी पता नहीं किसके बच्चे को फिटकारती 'हे रब्बा' करती पागलों की तरह भागे जा रही है।
      कहते हैं - अब जुर्माना मांग रहे हैं एस्टेट आफिस वाले। भूखी-प्यासी भैंसें प्यासी ही मर जाएंगी। दूध से सूख जाएंगी। गाँव के लोग पसीने-पसीने हुए, दौड़ते-भागते, जल्दी-जल्दी कोई टूम-छल्ला धरमू बनिया के पास मुँह मांगे सूद पर गिरवी रख पैसे लेकर एस्टेट आफिस की ओर गए हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि अपनी भूमि पर पशु क्यों नहीं छोड़ सकते। अभी खाली ही तो पड़ी है। बस, दो-चार कोठियाँ ही तो बनी हैं।
      ''ये तो लेने का देना है... ये देख ले गहिलू लच्छू की बकरी खा गया था, अब बेगाने पुत्तरों...''
      चक्रवात-सा हवा का एक झोंका मलबे पर से घूमता हुआ पक्की सड़क पार कर गया है। जंगली मुर्गे के गहरे चमकीले पंख सड़क पर से उड़ कर दूर-दूर तक फैल गए हैं।
      ''वो नीम रह गई काटने को...'' ठेकेदार ने मजदूरों से कहा है, ''चलो भई चलो, जल्दी करो अब।''
      ''हाँ जी।''
      ''उठा लो कुल्हाड़े अब।''
      ''चल भई पड़पोते, जरा काट तो अपनी पुश्तैनी नीम।'' शीशू ने करतारे को ताना मारा है।
      ''बड़ी मोटी है।''
      ''कुछ नहीं रहना यहाँ साबुत।'' कश्मीरा ठहाका लगा कर हँसा है।
      ''चलो भाई, जल्दी करो।'' ठेकेदार जल्दी मचा रहा है।
      मजदूरों ने कुल्हाड़े ऊपर उठा लिए हैं। अपनी हथेलियों पर थूककर, दांत भींच कर करतारा नीम पर वार पर वार किए जा रहा है। अंधी ताकत आ गई थी उसके अन्दर। फच्च...फच्च नीम को काटे जा रहा है।
      मजदूर छुट्टी करके चले गए हैं। छोटे-छोटे बच्चे कटी हुई नीम को देख कर चुप से हो गए हैं। फिर छोटे-छोटे नीम के पौधे जो नीम के नीचे अपने आप उग आए थे, उखाड़ने लग पड़े हैं।
      ''बीबी, ये देख नीम के बूटे। कहाँ लगाएं ?'' प्रीतू माँ से पूछ रहा है।
      ''हाय, अपना तो आँगन ही नहीं है।'' प्रीतो यह सोच कर हैरान रह गया है।
      अमरू की बुढ़िया अपने घर के मलबे पर बैठी विलाप कर रही है। कुछ हटकर एक कुत्ता रो रहा है। एक कुतिया के पिल्ले मलबे के नीचे दब कर मर गए हैं। अब कौए-कुत्ते उन्हें घसीटते घूम रहे हैं। आसमान में गिद्धें उड़ रही हैं। एक चूहा उछल कर मलबे के नीचे छिप गया है।
      गहिलू की दादी भी अमरू की बुढ़िया के पास आ बैठी है। दोनों सलारों(कमर में बांधने वाला वस्त्र) से माथे को ढके रोनी-सी आवाज़ में कुछ बड़बड़ाए जा रही हैं। न मालूम, रात में किसी ने रोटी भी खाई कि नहीं। औरतें-बच्चे सब अपने-अपने घरों के मलबों में से कुछ तलाश रहे हैं। कोई छोटी-सी वस्तु मिल जाने पर बच्चे दौड़ कर अपनी माँओं के पास पहुँच उसे दिखाने लगते हैं।
      रातोंरात गाँव की सड़क के इर्द गिर्द टैंट उग आए हैं। टूटे-फूटे चूल्हों को जोड़ कर उपले सुलगा कर औरतों ने भगौनों में दालें पकने के लिए चढ़ा दी हैं। पास में बैठे उदास मर्द कटोरों में गरम-गरम चाय सुड़क रहे हैं।
      बच्चों ने एक आवारा गधे को घेर लिया है। उसकी पूंछ से एक टूटा हुआ कनस्तर बांध दिया है।
      गाँव के लोग अस्तपाल में गहिलू का पता लेने गए थे। अभी-अभी लौटे हैं। चुप और उदास हैं।
      ''देख लो, कई दिनों से कुत्ते रोते थे, साध की टिब्बी पर...'' अम्बो, कारो, बीबो और बन्ती मलबे पर बैठी आहें भरती आपस में बातें कर रही हैं।
      ''एक दिन मैं आधी रात जागी, फरवाही (आरे) पर उल्लू पड़ा बोले।''
      ''ये तो उजाड़ खोजते हैं भाई।''
      जीतो और राणो कहीं से बिल्ली के बच्चे ले आईं। अभी आँखें भी नहीं खोली थीं उन्होंने।
      ''लो, ये कहाँ से ले आईं ?''
      ''इनकी माँ मर गई है बेचारी।''
      ''हाय, मैं मर गई।'' बन्ती का मुँह तरस से पिघल उठा है। राणो अपनी माँ से कटोरी में दूध डलवा लाई है। अब रूई के फाहों से बिल्ली के बच्चों के मुँह में दूध टपका रही है।
      लड़के गधे को सोटी मार-मार कर दौड़ा रहे हैं। कनस्तर खड़-खड़ करके बज रहा है। लड़के हीं-हीं करके हँस रहे हैं।
      ''री देख तो, जैसे विवाह रचा हो।''
      ''री हाँ, देख तो हमारे वाला कालू कैसे दौड़ा फिरता है।''
      ''परसों से स्कूल कहाँ गए हैं।''
      ''अरी, वो देखो, कालू गधे पर चढ़ बैठा है।''
      ''हाँ, वो भी पूंछ की तरफ मुँह करके।''
      ''फिटे मुँह तुम्हारा !'' सभी खिलखिला कर हँस पड़ी हैं।
      ''रे, मुँह भी काला कर दो रे इसका...।'' अम्बो ने ऊँची आवाज में कहा है।
      चाय पीते मर्दों के हाथ से चाय वाली प्यालियाँ छूट गई हैं। औरतें हँस-हँस दोहरी हो रही हैं। हो-हल्ला मचाते, हँसते-चिल्लाते, तालियाँ बजाते लड़के गधे के पीछे हो लिए हैं।
1-जीने योग्य

3 टिप्पणियाँ:

ashok andrey 18 जून 2012 को 7:02 pm बजे  

Sukhvant kaur jee ne is kahani men jis tarah se vikas ke naam par gavon ke nestanabood hone ko vayakt kiya hai uska chitran kabile tareeph hai aaj bhee to yahii sab kuchh ho rahaa hai.is behtareen kahani ko padvane ke liye aabhar.

सतीश पंचम 2 जुलाई 2012 को 12:12 am बजे  

इस कहानी को पढ़वाने हेतु बहुत-बहुत आभार। आपके द्वारा अनुदित एक कहानी संग्रह कुछ समय पहले पढ़ा था। खब्बल कहानी बहुत पसंद आई थी।

Yashwant R. B. Mathur 9 जुलाई 2012 को 10:30 am बजे  

आज 09/07/2012 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

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वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

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रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

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पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

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नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

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कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

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