स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ

>> रविवार, 12 फ़रवरी 2012




स्त्री कथालेखन : चुनिंदा कहानियाँ(3)


अजीत कौर
पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर का जन्म 16 नवंबर 1934, लाहौर हुआ। इन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए. की। अब तक उन्नींस कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, एक रेखा चित्र, एक यात्रा संस्मरण और आत्मकथा की दो पुस्तकें 'खानाबदाश' और 'कूड़ा-कबाड़ा'। अनेक कहानियों का भारतीय एवं विदशी भाषाओं में अनुवाद। पाँच कहानियों पर टेली फिल्मों का निर्माण। वर्ष 1985 में आत्म कथा 'खानाबदोश' पर साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से सम्मानित। 'गुलबानो'(1063), 'महिक दी मौत'(1966), 'बुत शिकन'(1966), 'फालतू औरत'(1974), 'सावियाँ चिड़ियाँ'(1981), 'मौत अलीबाबा दी'(1985), 'ना मारो'(1990) और 'नवम्बर चौरासी'(1996) इनके प्रमुख कहानी संग्रह है।

फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर की प्रेजीडेंट। नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान में सार्क दशों के लेखकों की कांफ्रेंस का सफल आयोजन।

संप्रति- चेयरपर्सन, अकेडमी आफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर एवं स्वतंत्र लेखन ।

संपर्क- अकेडमी आफ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर, 4/6, सिरी फोर्ट इंस्टीच्युशनल ऐरिया, नई दिल्ली-110049


गुलबानो
अजीत कौर

खुशदिल ख़ान गार्ड की बीवी गुलबानो बेहद सुंदर थी।
आसपास के बीसियों गाँवों में एक ! सिर्फ़ एक ! दूसरी बनाई ही नहीं थी बनाने वाले ने।
लम्बी ऊँची पठानी। मुँह जैसे कच्चे दूध का कटोरा हो ! अंग जैसे साग के कोमल डंठल ! और सुंदर, मानो परियों की रानी ! चाँद की कतरन !
पर हर परी को जैसे कोई देव अपने पत्थर के किले में कैद करके रखता है, वैसे ही खुशदिल ख़ान गार्ड ने गुलबानो को छिपा रखा था।
यूँ भी सभी पठान अपनी बीवियों को ऐसे छिपाकर रखते हैं मानो ब्याहकर न लाए हों, उन्हें लूटकर लाए हों कहीं से। लेकिन, खुशदिल ख़ान गार्ड की वीवी की तो छाया भी कभी किसी मर्द ने नहीं देखी थी।
खुले मौसम में सभी गाँव की औरतें मिलकर शहर में सौदा खरीदने जातीं। हर औरत उस घड़ी की प्रतीक्षा ऐसे करती, जैसे किसी मेले। सज-धजकर, बुर्के पहन कर घर से निकल पड़तीं। सबसे आगे ढोल बज रहा होता। दूर से ढोल की आवाज़ सुनकर पठान रास्ता छोड़ देते। गाँव के बाहर जब किसी के देख लेने का भय न रहता तो वे सभी बुर्कों के नकाबों को ऊपर उठा लेतीं और उनके मेहंदी रंगे चाँदी की पाजेबों वाले पाँव ढोल की ताल पर नाचते-नाचते बाँवरे हो जाते। काफ़ी समय से ज़बरदस्ती रोककर रखा हुआ नृत्य और उल्लास उनकी एड़ियों से फूट पड़ता।

जैसे जैसे वे आगे बढ़तीं, राह में जो जो गाँव आता, उन सबकी औरतें उनके साथ हो लेतीं। लेकिन जब वे खुशदिल ख़ान गार्ड के गाँव गढ़ी महाज़ ख़ाँ पहुँचती, तो सभी के दिल में एक टीस-सी उठने लग पड़ती। यह दर्द गुलबानों के कलेजे-में एक असहय पीड़ा बनकर रह जाता। गाँव की सब औरतें उनके साथ हो लेतीं, पर बेचारी गुलबानों घर की दीवारों में घिरी रह जाती। खुशदिल ख़ान गार्ड ने कभी जाने की इजाज़त ही नहीं दी।
सारी औरतें खुशदिल ख़ान गार्ड के घर जातीं, पिंजरे में बन्द गुलबानो के घर। फिर सब उसके आँगन में नाचना शुरू कर देतीं। ढोल बजता रहता और सेब, अमरूद, भुट्टे, खुरमानियाँ, चिलगोजे, किशमिश, काजू, गुड़ और मिसरी आदि बांटे जाते। सब मिलकर खातीं और गातीं।
गुलबानो को देखकर सबके दिल पर बादल घटाएँ बनकर बरसने-बरसने को हो आते। नीचे झुक आते और नीम-अँधेरा-सा घिर आता। न बरसते, न रोशनी को और हवा को भीतर आने देते।
ढोल की ढम्म-ढम्म में पीड़ के बोल साकार हो उठते। पठानी औरतें नृत्य करतीं तो उनकी एड़ियों से मानो कोई दर्द विलाप कर उठता।
और गुलबानो ? उसकी पीड़ा उन रातों की तरह थी जिन्हें अँधेरी राहों पर ठोकर लग जाती है और लाखों सितारे जिनके दर्द में कोयले से सुलग उठते हैं।
औरतें अपनी राह लेतीं। गुलबानो को लगता, उसके घर की दीवारों की तपती हुई भट्टी में उसका जीवन जलकर राख हो जाएगा।
खुशदिल ख़ान गार्ड के यार-दोस्त कहा करते कि उसे भी अपनी बीवी को दूसरी औरतों के संग जाने देना चाहिए। लेकिन वह किसी की न सुनता। लोग कहते, ''गाय-भैंसों को भी तो झुंड के साथ बाहर भेजते हैं कि नहीं ?'' वह चुप ही रहता।
जब भी औरतों का झुंड खुशदिल ख़ान गार्ड के घर आता, वह क्रोध से लाल हो उठता और बा-बारी से सबसे झगड़ने लग पड़ता। दफ्तर में मातहतों पर गरम और घर में नौकरों से नाराज़। बच्चों पर बात-बात पर बरसता। बीवी को अहसास कराता कि वो छोटी-सी चींटी से भी गई गुजरी है। हैसियत ही क्या है उसकी ? अगर खुशदिल ख़ान से ब्याह न होता उसका, तो क्या करती वो ?
वह बर्तन फोड़ देता, चीज़ें तोड़ देता। मानो तरह आँधी घर के दरवाजे तोड़कर अन्दर आ गई हो।
फिर जैसे-जैसे दिन व्यतीत होने लगते, आँधी खुद-ब-खुद शांत हो जाती। ज़िन्दगी अपनी राह हो लेती, ऐसी राह पर जहाँ नया कुछ न होता, न ही कुछ नया होने की संभावना होती। गुलबानो के प्राण घर की दीवारों को ऐसे अंगीकार कर लेते, मानो वो उसके जिस्म की ही दूसरी खाल हों।

खुशदिल ख़ान गार्ड के घर में बरसों से चन्दन नाम का एक व्यक्ति दूध देने आया करता था। उसकी निगाह सदा आँगन में कुछ खोजती-सी रहती, लेकिन उसे गुलबानो के दर्शन कभी नहीं हुए।
फिर एक दिन...
चन्दन ने अभी गागर बरामदे में रखी ही थी कि अन्दर आँगन में से गुलबानो गुजरी। उसने चन्दन को नहीं देखा, लेकिन चन्दन को उसकी एक झलक-भर मिल गई। उसे लगा, गुलबानों की खूबसूरती सागर जल से धुली, दूध-सी सफ़ेद, एक चमकदार सीपी के समान है। वह गुलबानो के रूप की एक ही झाँकी पाकर बादशाह हो गया।
चन्दन जहाँ कहीं उठता-बैठता, गुलबानो की बातें करता। उसका चेहरा ऐसा था, उसकी चाल ऐसी, कपड़े फलां रंग के, गहने... उसके हाथ... चलते हुए उसके पाँव...
गुलबानो चन्दन के सामने से आँगन में गुजरी थी - साकार गुलबानो ! गुलबानो खुद ! और चन्दन के मन के अँधेरे आकाश में बिजली-सी कौंध गई।
उनकी आपस में कभी कोई बात नहीं हई। गुलबानों ने चन्दन की तरफ देखा तक नहीं। चन्दन को लगा, जैसे यह सब सपना है, एक ऐसा सपना जो पंख फैलाकर उसके मन में, उसकी आत्मा में, उसकी सोच में, उसके ख़यालों में, उसके समूचे वजूद को ढककर बैठ गया था। इन मुलायम और गरम पंखों के नीचे कई चाहतें, कई सपने, कई कल्पनाएँ, आशाएँ अपनी छोटी, पतली और लम्बी गर्दनें निकालकर निरीह और भयहीन आँखों से संसार का स्तंभित-सी देख रही थीं - उस आकाश, उस धरती को जो लाखों वर्ष पुरानी थी, परन्तु उसके लिए आज ही, अभी, कच्चे दूध सी मीठी और कुनकुनी, सिर्फ़ उसके लिए बनी थी, सिर्फ़ उसी के लिए ही।
एक ओर चन्दन था जिसके दिल की दहलीज गुलबानो की एक ही झलक से खुल गई और धरती-आसमान दोनों उसमें समा गए।
दूसरी तरफ खुशदिल ख़ान था जो गुलबानो की बरसों की निकटता पाकर भी पत्थर बना रहा, एक ऐसा पत्थर जो लावे में जल-भुनकर कंकड़ बन जाता है।
एक गुलबानो थी जो खुशदिल ख़ान के पास रहते हए भी उससे कोसों दूर थी।
और उधर एक गुलबानो थी, जो चन्दन से कोसों दूर रहते हुए भी उसकी साँसों में समाई हुई थी।
गुलबानो को उसकी एक सहेली ने बताया कि उसके घर दूध देने वाला चन्दन झूम-झूमकर उसके हाथों, पाँवों, बालों और होंठों की तारीफ़ में गाता घूमता है।

अगले दिन चन्दन की दूध की गागर से एक धार जब उसके घर की गागर में गिरी तो गुलबानो ने द्वार की फांक में से पलकभर देखा। उसे लगा, दूध की एक धार चन्दन की गागर से निकलकर उसकी अपनी देह में समा गई है।
अब गुलबानो घर के आँगन में चलती तो उसके पाँव थिरक-थिरक जाते। उसका जीवन संगीतमय हो गया। गीतों की कड़ियाँ खुद-ब-खुद उसके होंठों पर आने लगीं। मस्ती के खुमार में आँखों को बन्द किए वह देर तक अपने अन्दर के गुनगुने पानियों में डूबी रहती।
उसके मानस के खाली पड़े आँगन में एक पौधा उगा - चन्दन के प्यार का पौधा। और उसके जीवन के सभी गंधहीन बरस सुवासित हो उठे, महक महक उठे। उसकी आत्मा की सीपी में एक बूँद प्यार की टपकी, और वह इश्क रूपी असली मोती बन गई।
उस बार जब समीप के गाँवों की औरतें ढोल की ताल पर नृत्य करती उसके घर के आँगन में आईं, तो ढोल भी खुश था और गुलबानो भी खुश ! गुलबानो को खुश देखकर सभी औरतें खुश थीं। और गाँव से दूर, नदी के किनारे भैसों को नहलाता चन्दन भी खुश। इस दिन यदि कोई खुश नहीं था तो वह था - खुशदिल ख़ान गार्ड।

आहिस्ता-आहिस्ता चन्दन की कही हुई बातें लोगों की ज़बानी खुशदिल ख़ान तक पहुँची। उसका सिर घूम गया। आँखों में खून उतर आया। इसी हालत में वह घर पहुँचा।
गुलबानो उस समय कपड़े धो रही थी और कपड़े धोने वाले सोटे की ठप्प-ठप्प पके साथ कोई गीत गुनगुना रही थी। खुशदिल ख़ान ने वही सोटा उससे छीनकर उसके सिर में दे मारा और कहा, ''जानती नहीं, गाना कुफ़्र है ?''
फिर उसकी बाँह पकड़कर घसीटते हुए उसे आँगन में ले आया, ''बता, चन्दन वाली बात सच है ?''
गुलबानो चुप। अपने जीवन में एक अकेले सच का वह कैसे झूठ कह दे ?
खुशदिल ख़ान उसको घसीटते-घसीटते ऊपर छत पर ले गया, ''आ, तुझे चन्दन से मिलवाऊँ...।''
फिर उसने छत से गुलबानो को धक्का दे दिया। वह धड़ाम से नीचे गली में आ गिरी। एक चीख़ गूँजी और बस...
आवाज़ सुनते ही लोग चारों ओर से दौड़ पड़े। खुशदिल ख़ान ने ऊपर छत पर से देखा, उसकी बीवी नंगे मुँह गली में पड़ी है और सब लोग उसे देख रहे हैं। वह दौड़ा-दौड़ा नीचे उतरा। अन्दर से एक मोटी चादर लेकर गली में पहुँचा, और झटपट गुलबानो के मुँह पर डाल दी।

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ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

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'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
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