रेखाचित्र/संस्मरण

>> बुधवार, 11 जनवरी 2012

2 सितम्बर 1941 को अमृतसर के गांव बोहरु में जन्में पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक डॉ.स्वर्ण चंदन का देहान्त गत वर्ष 7 दिसम्बर 2011 को इंग्लैंड में हृदयाघात से हुआ। कृषि में बी.एससी करने के बाद डॉ. चन्दन यू के चले गए और सन 1964 से वह यू, के. में रह रहे थे। इन्होंने अपनी माँ-बोली पंजाबी में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा-संस्मरण, फिल्म –स्क्रिप्ट और आलोचना की कई पुस्तकें लिखीं। मुख्यत: डॉ चन्दन एक कथाकार, उपन्यासकार और आलोचक के रूप में पहचाने जाते हैं । डॉ चन्दन पर उनके मित्र हरजीत अटवाल ने एक बहुत ही मार्मिक संस्मरण पंजाबी में लिखा है जो इधर पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका ‘शबद’ में प्रकाशित हुआ है ,जिसका हिन्दी अनुवाद हम हिन्दी के पाठकों को यहाँ उपलब्ध करा रहे हैं। - सुभाष नीरव


डॉ. स्वर्ण चन्दन : एक जेंटलमैन
हरजीत अटवाल

शाम का समय है, झुटपुटा सा। मैं मैलिन रोड के 28 नंबर के बाहर खड़ा हूँ। इस घर के भारी पर्दे अभी गिराये नहीं गए हैं। जालीदार पर्दों के रास्ते एक कोने में टेबललैम्प जलता दिखाई दे रहा है। टेबल लैम्प की सीमित रौशनी में वह एक किताब पर सिर झुकाये बैठा है। शेष कमरे में अँधेरा है और एक चुप सी पसरी दिखाई दे रही है। इसको वह 'सुन्न' कहा करता है। मैं दरवाजे की घंटी बजाता हूँ। घर की बत्तियाँ जलने लगती हैं। वह आकर दरवाज़ा खोलता है। एक ज़ोरदार मुस्कराहट देता हुआ वह मेरे साथ कसकर हाथ मिलाता है। घर के अन्दर घुसते ही सिगरेट का एक रेला मेरे नाक में आ घुसता है। ज़रा और अन्दर प्रवेश करता हूँ तो रसोई में से भुनते मीट की खुशबू आने लगती है। मुझे पता है कि यह मेरे लिए विशेष है। वह हँसता हुआ कहता है -
''लैम चॉप बन रही हैं। मुझे पता है कि भाई को ये पसंद हैं। बस, अभी तैयार हुईं।''
मैं अपनी जैकिट उतार कर एक तरफ टांग देता हूँ और सैटी पर बैठ जाता हूँ। वह बोतल की गर्दन पर हाथ डालते हुए कहता है -
''धीरे की तरफ से आ रहा है ?''
''उसके नये उपन्यास पर फंक्शन था।''
''माईयाव(एक गाली), उसके नावल में क्या होगा।... तुझे भी खाली बर्तन बजाने की आदत पड़ गई है।''(आम पंजाबियों की तरह स्वर्ण चंदन को भी बात बात में ‘माई याव’ की गाली देकर बात करने की लत सी थी)
''भाऊ, आजकल फंक्शन करने इतने आसान नहीं, विवाह रचाने की तरह हैं। तू मेरे आ और मैं तेरे आऊँ।''
''समझता हूँ मैं तेरी बात, पर ये सारे ज़ीरो बन्दे हैं, सारे ही बी-टीम, सी-टीम के प्लेयर हैं। इनके साथ खेलकर अपना स्टैंडर्ड गिराने वाली बात है।''
''भाऊ, बातें तो तेरी ठीक हैं पर अब क्या करें... खेलने की आदत पड़ चुकी है। तगड़ा प्लेयर खेलता नहीं और कमज़ोर के साथ खेलें ना... कैसे प्लेयर हुए?''
बात करते हुए मैं उसकी तरफ देखता हूँ। वह सिगरेट सुलगा लेता है और कहता है -
''तू अब दूर भी बहुत रहता है। तू यहाँ आ जा, दोनों भाई मिलकर कुछ करते हैं। ऐसे बढ़िया साहित्यिक कार्यक्रम करवाएँगे कि वाह-वाह हो जाएगी।''
मैं कुछ नहीं कहता। वह भी जानता है कि लंदन छोड़कर मेरे लिए वुल्वरहैम्पटन जाना संभव नहीं, जबकि वह तो लंदन आ सकता है। पर वह भी अब नहीं आएगा।
वह मेरे लिए एक पटियाला शाही पैग बनाता है और स्वयं के लिए बोतल में से पव्वा भर व्हिस्की डालते हुए कहता है-
''बस एक पव्वा ही... साली...अब पी नहीं जाती।''
हम अपने अपने गिलास छुआकर चियर्स करते हैं। मैं पूछता हूँ-
''कोई मिलने-जुलने आया, कोई फोन वगैरह ?''
''न, कोई नहीं आया माई यावा। न कोई फोन आया, चारों तरफ बाबे नानक वाला अरबद-नरबद धंधूकारा है, सन्नाटा ही सन्नाटा।'' वह उदास-सा होकर कहता है।
इस दृश्य को मैंने लगातार दस-ग्यारह साल देखा। वर्ष में दो या तीन बार। मैं किसी कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज क़रवाने वुल्वरहैम्टन जाता तो रात स्वर्ण चंदन के यहाँ काटता। वह भी मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा होता। वुल्वरहैम्पटन के लेखकों ने उसका बॉयकॉट किया हुआ था या उसने उनका। बात तो एक ही है, चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर। लेखकों ने तो उसका बहिष्कार किया ही होगा, पर शहर का कोई गैर-लेखक व्यक्ति भी उसका दोस्त नहीं था। वह दिनभर अकेला रहता। अकेला जागता, अकेला ही सोता। धीरे-धीरे उसने नज़दीक के पॉर्क में बैठने वाले कुछ शराबी-से लोग दोस्त बना लिए थे जो उसको और ज्यादा अकेला कर जाते। उसकी बेटी अलका कभी कभी उसके पास जाकर रह आती और कभी-कभी मैं। बाकी समय वह अकेला ही रहता। हाँ, उसका एक पड़ोसी अमरीक सिंह उसका हालचाल लेता रहता। अमरीक स्वयं एक अनपढ़-सा व्यक्ति था, स्वर्ण चंदन उसका पेपर-वर्क कर दिया करता। बदले में अमरीक की घरवाली कई बार उसको रोटी बनाकर दे जाती। यूँ रोटी की उसको ज़रूरत नहीं होती थी। वह खुद एक बढ़िया रसोइया था। दाल-सब्जी बनाने में कोई भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। उसको किसी दूसरे की बनी रोटी की ज़रूरत तब पड़ती जब उसने ज्यादा शराब पी ली होती और रोटी बनाने के काबिल न रहता।
मेरा उसके साथ तीस वर्ष से भी अधिक समय का नाता रहा था। वह हर कार्यक्रम मे जेंटलमैन बनकर आता, सूट पहना होता और साथ में मैच करती टाई। ऐनक लगा रखी होती, या फिर वह जेब में से बाहर दिखाई दे रही होती और साथ ही पार्कर का पैन भी। इन तीस वर्षों में मैंने उसके कई रूप देखे और देखे भी बहुत करीब से। उसके स्वभाव का शायद ही कोई पक्ष अनदेखा रह गया हो। फिर भी कहते हैं कि ''दिल दरिया समुन्द्रों डूंघे, कौण दिलां दीयां जाणे !'' हो सकता है, उसके मन की बहुत सारी तहों से मैं अनजान ही होऊँ। तीस साल पहले वह एक दिन अचानक ही मेरे घर मिठाई का डिब्बा लेकर आया था। ये वो दिन थे जब साउथाल की प्रगतिशील लेखक सभा ने विश्व पंजाबी कांफ्रेंस करवाई थी। इस सभा के ओहदेदारों का बहुत मान-सम्मान था। स्वर्ण चंदन इसका अध्यक्ष बनना चाहता था। अध्यक्ष बनने के लिए उसको वोट चाहिए थे। मैं सभा का नया नया सदस्य बना था। इसलिए वह मुझसे मेरी वोट मांगने आया था। उसने इतने प्यार से कहा कि मैं सदा के लिए उसकी वोट बनकर रह गया। अब उसकी मृत्यु के पश्चात भी मेरी वोट उसके हक में भुगत रही है। यह अलग बात है कि उस समय मेरी वोट उसके किसी काम नहीं आई थी क्योंकि उसको किसी ने अध्यक्ष तो क्या बनाना था, उसकी सारी मित्र टोली को ही सभा में से बाहर निकाल दिया गया था।
हमारे सम्पर्क के पहले पन्द्रह वर्षों में हमारा संबंध सीनियर-जूनियर वाला रहा है। मेरी कहानियों की उसने भूरि-भूरि प्रशंसा की, सलाहें भी दीं, पर बदले में उसको अपनी कहानियों की तारीफ़ भी चाहिए थी। मुझे करनी भी पड़ी। वैसे मैं उसको उपन्यासकार ही बढ़िया मानता था। उसकी किसी भी कहानी ने मुझको प्रभावित नहीं किया था। उसके नावल 'नवे रिश्ते' और 'कच्चे घर' मुझे बहुत पसन्द थे। 'कख कान ते दरिया' मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। 'कंजका' भी स्थिति से बाहर का नावल था, पर उसको ये बातें कहे कौन ? कम से कम मैं तो नहीं कह सकता था। उसके समकालीन भी कहने से डरते थे। वह अपनी आलोचना सह नहीं सकता था। उसके उपन्यासों को आलोचकों की ओर से मिलते हुंकारे के कारण उसकी ईगो बड़ी होने लगी थी। भाषा विभाग(पंजाब) का ईनाम मिलने तक उसकी ईगो बिगड़नी शुरू हो गई थी। उसके सख्त और जिद्दी स्वभाव ने इसको और ज्यादा तूल दिया। इस समय तक वह अपने विरुद्ध छोटी-सी बात भी नहीं सुन सकता था।
आरंभ में वह एक अच्छा सामाजिक प्राणी था, परन्तु बेटी की मर्ज़ियों ने उसके स्वभाव में एक बड़ा परिवर्तन कर दिया था। बेटी के घर से चले जाने के कारण उसने सामाजिक लोक राय से डरना बन्द कर दिया था। कोई उसको लेकर क्या कहता है, उसने इसकी परवाह करना छोड़ दिया। पहली पत्नी सुरजीत की मौत उसकी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा मोड़ लेकर आई। सुरजीत कौर का किसी हद तक उस पर नियंत्रण था। उस कारण वह घर से जुड़ा हुआ था। पत्नी की मौत ने उसकी नकेलें खोल दीं। दविंदर कौर पहले ही उसके सम्पर्क में आ चुकी थी। उसने अपना घर किराये पर दे दिया और यूनिवर्सिटी में पढ़ते बेटे को एक फ्लैट किस्तों पर ले दिया और स्वयं दिल्ली के लिए चल पड़ा। बेटा बहुत छटपटाया कि पढ़ाई के साथ-साथ फ्लैट की किस्तें कैसे देगा। इसके परिणामस्वरूप बेटे की पढ़ाई पर बहुत असर पड़ा। उसको अपनी डिग्री लेने के लिए दो साल अधिक लग गए। चंदन की इस बात ने उसके बेटे के मन पर गहरा प्रभाव किया जो बाप-बेटे के रिश्तों को खराब बनाने के लिए सारी उम्र काम आया। जब वह दिल्ली के लिए रवाना हो रहा था तो मैंने पूछा-
''डाक्टर साहब, दिल्ली जाकर क्या करोगे ?''
''मैं अब माई याव बड़ा लेखक हूँ, यहाँ अब मेरा क्या काम ?... यहाँ मेरी टक्कर किसके साथ है ? सब मेरे आगे पिछड्डी, निकम्मे !... मेरी कर्मभूमि अब दिल्ली है।''
एक विशेष बात यह कि उसने डॉक्टर बनते ही मित्रों पर रौब डालना आरंभ कर दिया था कि अब उसे डॉक्टर कहा जाए। यदि कोई जूनियर लेखक उसको डॉक्टर साहिब न कहता तो वह उसके गले पड़ जाता। इसी बात पर वह कइयों को लेखक के तौर पर खत्म कर देने की धमकियाँ भी देने लगता। वैसे मुझको उसने अपने अन्तिम वर्षों में डॉक्टर साहिब न कहने की छूट दे दी थी। उसके डॉक्टर कहलवाने के बारे में एक दिलचस्प बात बाद में करेंगे। बहरहाल, वह इतना ज़हीन था कि डॉक्टर बनना, पी.एच.डी. की डिगरी लेना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, जबकि इस डिग्री को लेते समय कई गलत-सही सी ख़बरें भी छपी थीं।
दिल्ली वह बहुत शान से गया था। दिल्ली जाने का उसका प्रमुख कारण किसी न किसी तरह ‘भारतीय साहित्य अकादमी’ का ईनाम लेना था जिसका वह अब अपने आप को हकदार समझने लग पड़ा था। वैसे भी, वह दिल्ली सर कर लेना चाहता था। डा. हरभजन सिंह को वह स्टेज पर से सैद्धान्तिक चुनौती दे चुका था। यही नहीं, वह उसको यूँ ही समझने लगा था। दिल्ली में वह बड़ा लेखक बनकर घूमने लगा। उसके जगह जगह पर लेक्चर होने लगे। सतिंदर सिंह नूर का सूरज उन दिनों में अभी उदय नहीं हुआ था। नूर तो चंदन का चेला बना घूम रहा था, शेष सारी दिल्ली भी। बहुत शीघ्र वह दिल्ली के साहित्यिक हलकों का महत्वपूर्ण अंग बन गया। वह कार्यक्रमों में अध्यक्षताएँ करता, लच्छेदार भाषण देता, वाहवाही लूटता। उसको लगता कि साहित्य अकादमी का ईनाम तो इस बार उसको मिलना ही मिलना है। उसके दोस्त उसके इस सपने को और ज्यादा रंग लगा देते, परन्तु वह यह बात भूल बैठा था कि जहाँ दिल्ली में उसके दोस्त थे, वहीं दुश्मन भी थे। डा. हरभजन सिंह को उसने मंच पर बिठा कर सैद्धान्तिक चुनौती तो दी ही थी, पर एक बार जब वह लंदन आए थे तो अपने घर में से बाहर भी निकाला था। वह उसको यह ईनाम कैसे लेने देता। यूँ भी भारतीय साहित्य अकादमी के ईनाम के लिए पहले ही लेखक कतार में खड़े थे। वे सारे भी तो इस बाहरी व्यक्ति को ईनाम कैसे ले जाने देते। सो, ईनाम वाला सपना लटक गया। इस कारण उसके अन्दर शून्य भरने लगा।
कुछ पुरस्कार न मिलने की रंजिश और ऊपर से उसका स्वभाव, चंदन ने शीघ्र ही अपने रंग दिखलाने आरंभ कर दिए। यहाँ बता दूँ कि चंदन के व्यक्तित्व के दो हिस्से थे। शराब के बग़ैर वह कुछ और होता था, और शराब पीकर कुछ और। शराब पीकर वह कैसा व्यक्ति था, इस बारे में लिखना असाहित्यिक होगा। शराब के बग़ैर भी उसके स्वभाव के दो हिस्से थे। एक तो समझौतावादी चंदन जो कि सहजता से ही किसी भी किस्म की लेन-देन कर सकता था और दूसरा - अड़ियल चंदन, हठी चंदन, अतिभावुक चंदन, वो चंदन जिसे हर समय सींग फंसाकर रखने की आदत थी। अपने स्वभाव के इस चंदन को वह 'चेतू' कहा करता। 'चेतू' उसके उपन्यासों की त्रि-श्रृंखला 'पंजाब सैंताली' का किरदार था। यह उसका आत्मकथात्मक उपन्यास था। जब कभी समझौतावादी चंदन काम न आता तो वह 'चेतू' को बाहर निकाल लेता। एक और पक्ष भी था उसके स्वभाव का कि जो लोग उसको बड़ा लेखक मानते, उनके प्रति उसकी नज़रे-इनायत रहती, जो उसको समकालीन या साधारण लेखक समझते, उनसे वह बहुत नफ़रत करता और आड़े हाथ लेता। जब दिल्ली के लेखकों को शराबी चंदन से वास्ता पड़ा तो वे उसको बड़े लेखक की बजाय आम-सा लेखक और छोटा आदमी समझने लग पड़े। पुरस्कार न मिलने के साथ साथ उसके उपन्यास 'कंजकां' के विषय में दिल्ली के लेखकों द्वारा चुप्पी साध लेने पर चंदन के तेवर बदलने लगे। वह सारी दिल्ली को गालियाँ बकने लगा। गालियाँ उसके स्वभाव का अटूट अंग थीं। दिल्ली के लेखकों ने उसका बायकॉट कर दिया। उसको साहित्यिक कार्यक्रमों बुलाना छोड़ दिया। कभी आ भी जाता तो अध्यक्षता सौंपनी तो दूर की बात, स्टेज पर बोलने के लिए भी उसे आमंत्रित न किया जाता। दोस्तों की किसी महफ़िल में भी न बुलाया जाता। और तो और, एस. बलवन्त का घर उसके बिलकुल निचले फ्लैट में था, वहाँ लेखक मित्र इकट्ठा होते, पर चंदन को शामिल न किया जाता। वह अकेला बैठा किलसता रहता, कुढ़ता रहता, अपने आप में ज़हर घोलता रहता। गुस्से में आकर पागलों जैसा व्यवहार करने लगता। दविंदर कौर उसके संग रहती थी। बदले हुए स्वर्ण चंदन के नतीजे उसको भुगतने पड़ते। दविंदर की दवाओं की मात्रा बढ़ने लगती।
ऐसे हालात में नीम पागल होकर लौटे चंदन को मैं सन् 1994 में मिला। मेरी किताब 'खूह वाला घर'(कहानी संग्रह) पर प्रोग्राम था, मैंने उसको निमंत्रण देने के लिए उसके बेटे के फ्लैट पर फोन किया जहाँ वह ठहरा हुआ था, परन्तु उसने प्रोग्राम में शामिल होने से इन्कार कर दिया। कुछ दिन बाद वह एक अन्य प्रोग्राम पर मिला तो मैंने देखा कि उसकी आँखें बिलकुल खाली थीं। मैंने कारण पूछा तो उसने दिल्ली के बारे में बहुत सारी शिकायतें कर मारीं। इसके बाद हमारी फोन पर कुछेक बातें हुईं। कई महीने बीत गए। दो-एक बार अन्य कार्यक्रमों में मिला। अब वह बहुत ज्यादा मोह दिखलाता, ऐसा मोह पहले कभी नहीं दिखलाया था। एक दिन उसने कहा-
''क्यों न हम माई यावी कोई लेखक सभा बनाएँ। मैं प्रधान और तू सचिव।''
मैं तैयार हो गया। मैं भी लंदन के कई हिस्सों में रहकर साउथाल आ बसने की तैयारी कर रहा था और था भी खाली ही। बाद में शेरजंग जांगली ने मुझे बताया कि लेखक सभा बनाने के लिए वह कइयों को कह चुका था, पर उसके संग मिलने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। इन दिनों में साउथाल में कोई लेखक सभा सक्रिय भी नहीं थी। खालिस्तान के दौर के समय लेखकों में हिन्दू-सिक्ख जाग पड़े थे। लेखक सभाएँ खत्म सी हो गई थीं। खैर, हमने पंजाबी लेखक सभा, साउथाल बना ली। साहित्यिक संवाद रचाने प्रारंभ कर दिए जो कि काफी समय से खत्म-से थे। लेखक मित्र हमारे संग जुड़ने लगे। एक दिन चंदन कहने लगा-
''क्यों न हम कुछ और मेंबर भर्ती कर लें ?''
''डाक्टर साहब, यदि और लेखक भर्ती कर लिए तो आपकी प्रधानगी चली जाएगी और मेरा सचिव पद। ... ऐसे ही काम चलाये चलो।''
''माई याव... बात तो तेरी ठीक है।''
कहकर वह हँसने लगा। हुआ भी यूँ ही। हम तो बल्कि दूसरे लेखकों के लिए उदाहरण बन गए। इंग्लैंड के पंजाबी के पचास लेखकों ने पच्चीस लेखक सभाएँ बना लीं जो अभी भी चल रही हैं। हमारी सभा भी उसके वुल्वरहैम्पटन चले जाने तक चलती रही।
सन् 1994 से पहले हम दोस्त तो थे, पर बहुत करीबी दोस्त नहीं थे। अब हम एक -दूजे के विशेष दोस्त बन चुके थे। दोस्ती कायम रखने के लिए अनकही शर्त थी कि मैं उसको बहुत बड़ा लेखक और आलोचक मानूँ, वह मैं मानता ही था। वह मेरी कहानियाँ सुनकर मुझे सलाह देता, इनकी तारीफ़ करता। हमारी दोस्ती ऐसी जमी कि हम दोनों ने अमेरिका-कैनेडा का दौरा भी एक साथ किया। हर महफ़िल में मैं मजाक में कहता कि मैं अपना आलोचक साथ लिए घूमता हूँ। वह हर महफ़िल में मेरी कहानी कला की प्रशंसा करता। अमेरिका-कैनेडा के सफल दौरे के बाद हमने इंडिया का चक्कर भी लगाया। यहाँ भी उसने मुझे कहानीकार के तौर पर पूरा प्रमोट किया।
इन्हीं दिनों में एक मज़ेदार बात यह हुई कि मैं उपन्यास लिखने के लिए अपने पर तौलने लगा। मैंने सोचा कि नावल लिखकर मैं उसका सरप्राइज़ दूँगा। मैंने नावल लिखा- 'वन वे'। इसे चार बार संशोधित किया अर्थात् चारों बार हाथ से पुन: लिखा। मैं उत्साहित-सा होकर चंदन के पास अपना नावल लेकर गया। उसने पता नहीं नावल कितना पढ़ा, पर दूसरे दिन ही मेरा नावल उठाकर मेरे सामने फेंकता हुआ बोला-
''माई यावे, इसे डस्टबिन में फेंक दे।... तू नावल नहीं लिख सकता। तू कहानीकार है और कहानीकार ही रह। उपन्यास लिखते लिखते कहानी से भी जाएगा... और फिर उपन्यास माई यावे तो मैं लिख ही रहा हूँ।''
मैं अपना सा मुँह लेकर रह गया। उपन्यासकार बनने के सपने को दूर झटक दिया और वह उपन्यास सेल्फ के नीचे दे दिया। साल भर बाद मान सिंह ढींडसा मेरे घर आया तो उसने सलाह दी कि मैं उपन्यास भी लिखूँ। मैंने उसे अपने लिखे हुए उपन्यास के बारे में बताया। उसने कुछ दिन लगाकर मेरा उपन्यास पूरा पढ़ा और बोला कि यह तो बहुत ही बढ़िया उपन्यास है। इस नावल में तो बिलकुल भिन्न इंग्लैंड के दर्शन होते हैं। उस दिन इस बात ने मुझे बहुत उत्साहित किया। मैं तो पहले ही सोच रहा था कि मैं चंदन से अगली पीढ़ी का लेखक हूँ और मेरे अनुभव भी उससे भिन्न हैं, सो मेरा उपन्यास इतना बुरा नहीं होना चाहिए। मैंने उस उपन्यास को एक बार फिर संशोधित किया और छपने के लिए भेज दिया। परन्तु स्वर्ण चंदन को बिलकुल नहीं बताया। इन दिनों में वह वुल्वरहैम्पटन मूव हो चुका था। जब उसको मेरे उपन्यास का पता चला तो उसने मुझसे बोलना बन्द कर दिया। कई महीनों तक हमारे बीच चुप छाई रही। जब मेरा दूसरा उपन्यास 'रेत' आया तो स्वर्ण चंदन दिल का मरीज़ रहने लगा, उसको दिल का आपरेशन करवाना पड़ा। यद्यपि ऐसा होना कुदरती ही था परन्तु दोस्त मज़ाक में कहते कि यह सब मेरे नावल ने करवाया है। अब हमारी पहले जैसी दोस्ती नहीं रही थी। जब भी उसको समय मिलता तो वह मेरे उपन्यास के खिलाफ़ बोलता। स्टेज पर से वह किसी न किसी से मेरे उपन्यास के खिलाफ़ बुलवा देता। फिर मेरा उपन्यास 'सवारी' भी आ गया। अब मैं अपने आप को उपन्यासकार समझने लगा था और स्वर्ण चंदन का समकालीन भी। हम कभी-कभार मिलते। मैं वुल्वरहैम्पटन जाता तो उससे ज़रूर मिलता। हमारे कार्यक्रमों में वह आता भी, पर मेरे उपन्यास की कभी बात न करता। बल्कि मुझे उपन्यासकार ही न मानता। सुरिंदर सीहरे से मिलता तो कहता-
''अपने मित्र माई यावे को कह दे कि नावल लिखना उसके वश की बात नहीं।''
इंडिया से जिंदर आया तो वह एक रात स्वर्ण चंदन के पास भी रहा। जिंदर ने पूरी कोशिश की, पर चंदन ने मुझे उपन्यासकार के तौर पर तस्लीम नहीं किया। एक बार उसने किसी से कहा कि हरजीत नावल में बच्चा है और मैं उसका बाप हूँ। मैंने झट नब्ज़ पकड़ ली और उस दिन फोन पर यह मान लिया कि वह मेरे से बड़ा उपन्यासकार है, मैं तो अभी सीख ही रहा हूँ और वाकई उसके सम्मुख मैं बच्चा हूँ। फिर क्या था, हमारे संबंध सुधर गए, परन्तु फिर भी उसने मेरे उपन्यास 'रेत' को ही उपन्यास माना। इस तरह हम दोनों के बीच फिर से बढ़िया दोस्ती हो गई। अब वह अपने भाषणों में मेरे उपन्यास 'रेत' की तारीफ़ें करने लगा। फिर कुछ देर बाद मेरे उपन्यास 'ब्रिटिश बॉर्न देसी' की उसने जी भरकर तारीफ़ की और उस पर हुए कार्यक्रम में आकर मेरे उपन्यास पर बोला भी। मैंने अपना नया उपन्यास 'अकाल सहाय' उसको पढ़वाया। उसको यह उपन्यास बहुत पसन्द था। अब तक उसने दिल से मुझे अपना समकालीन मान लिया था। कई बार हम दोनों यह बात करके बहुत खुश होते कि इंग्लैंड में सिर्फ़ हम ही दो लेखक हैं, बाकी सब तो घासफूस हैं। जिस प्रकार सभा का वह प्रधान और मैं सचिव, उसी तरह अब उपन्यास में भी। जब कभी हम इकट्ठा होते तो किसी न किसी दोस्त को इंडिया में फोन करते- रामसरूप अणखी या बलदेव सिंह को। फोन करते हुए हम उसको भी अपने बाद तीसरे नंबर का उपन्यासकार मान लेते। अन्दर ही अन्दर उसको बहुत ग़म था कि पिछले समय में आया उसका कोई भी उपन्यास नहीं चला था। उसके उपन्यासों की त्रि-श्रृंखला 'पंजाब सैंताली' आई, पर किसी ने कोई जिक्र तक नहीं किया। ऐसे ही उसके उपन्यास 'समां' के साथ हुआ। इस उपन्यास का तो शायद एक-आध रिव्यू भी लगा हो, वह भी नकारात्मक। इस बात का उसको बहुत ग़म था और यह ग़म उसके अन्तिम दिनों तक रहा।
उसके और दविंदर कौर के मध्य क्या कुछ घटित हुआ, यह एक पृथक और बहुत लम्बी कहानी है। मेरे लिए दोनों ही एक से थे, इसलिए मैंने कभी किसी एक का पक्ष नहीं लिया, पर मैं इतना जानता था कि उस जैसे रफ-टफ व्यक्ति के साथ दविंदर जैसी कोमल औरत का रहना बहुत कठिन था। मैं कई बार कहता-
“डाक्टर साहब, कहाँ आप ये डाक्टरनी के पीछे पड़ गए। आपको तो कोई अनपढ़ सी कम्बोजों की लड़की चाहिए थी। जब दिल करता दो थप्पड़ मार लेते और जब दिल करता, गिरा लेते।''
''बात तो तेरी माई याव ठीक है।''
वह हँसता हुआ कहता।
दविंदर अलहदा होकर वुल्वरहैम्पटन जा बसी थी। स्वर्ण चंदन हेज़ में अपने घर में रहता था। हमारी रोज़ मुलाकातें हुआ करतीं। इन दिनों में ही वह एक्सीडेंट का शिकार हो गया। वह किसी के साथ वैन में जा रहा था। पूरे नशे में था कि अचानक वैन का दरवाजा खुल गया और वह नीचे सड़क पर गिर पड़ा। बहुत चोटें आईं। टांग टूट गई। कई महीने अस्पताल में रहा। लेटे लेटे का शरीर गलने लगा। दविंदर से अलहदगी तो काफी देर की हो चुकी थी। उसने दविंदर को फोन करने शुरू कर दिए कि वह वापस आ जाए। दविंदर नहीं मानी तो वह निरंजन सिंह नूर को फोन करने लग पड़ा। मैंने एक दिन कहा-
''डाक्टर साहब, क्या तुम सच ही दविंदर को वापस चाहते हो कि यूँ ही भावुक से होकर कह देते हो ?''
''साली, बात तो तेरी ठीक है। यूँ ही भावुकपने में फोन हो जाता है।''
उसने सोचते हुए कहा, पर दविंदर को और निरंजन सिंह नूर को फोन करने बन्द नहीं किए। मैंने निरंजन सिंह नूर से कहा भी कि वापस आकर दविंदर बहुत पछताएगी। अस्पताल से घर आकर स्वर्ण चंदन और अधिक अकेला हो गया। बेटा-बेटी तो पहले ही उसके पास कम ही आते थे। ऐसे हालात बनें कि दविंदर वापस आ गई, पर उसकी शर्त थी कि वह लंदन छोड़ कर वुल्वरहैम्पटन चले। उसने लंदन छोड़ दिया। किसी समय वह दविंदर के साथ लंदन छोड़कर दिल्ली गया था और अब वुल्वरहैम्पटन। दिल्ली जाते समय उसने अपना लंदन वाला घर नहीं छोड़ा था और वापस लौट आया था, परन्तु वुल्वरहैम्पटन जाते समय वह अपना घर बेच गया। मैंने जब कहा कि यह घर न बेच तो वह मजाक में कहता कि मजा तो इसी बात में है कि किसी किनारे पर पहुँचकर किश्ती को लौटा दो ताकि पीछे की ओर देखना ही न हो। दिल्ली की भांति ही उसने वुल्वरहैम्पटन में जाकर भी छा जाने की कोशिश की। दिल्ली की तरह ही इस शहर में भी उसका स्वभाव उसके खिलाफ़ खड़ा हो गया और उसको अकेला कर दिया गया। शहर के लेखकों ने उसको बुलाना छोड़ दिया। किसी प्रोग्राम में उसके प्रवेश पर मनाही लगा दी। ‘पंजाबी साहित्य अकादमी’ सी बनाकर उसने दिल को कई किस्म के नकली-से हौसले देने के यत्न किए, पर असफल रहा। अब वुल्वरहैम्पटन या आस पास के शहरों में उसका कोई भी लेखक दोस्त नहीं था। कोई भी उससे मिलने नहीं आता था। सभी उसको विद्वान तो मानते, पर उससे दूर ही रहते।
डाक्टर स्वर्ण चंदन की ज़िन्दगी एक खुली किताब की तरह है। उसने न कभी किसी से कुछ छुपाया था और न ही कभी झूठ बोला था। यदि किसी से नफ़रत करता या प्यार करता तो वह खुलकर बता देता। उसके व्यक्तित्व की एक और विशेषता यह थी कि वह कभी भी किसी के ऊपर पीछे से वार नहीं करता था, अपितु अगले व्यक्ति को ललकार कर कहता था कि मैं आ रहा हूँ। वह समझौते वहीं करता था, जहाँ उसको बहुत ही अधिक ज़रूरत होती। उदाहरण के तौर पर एक बार उसको एक समारोह करवाने के लिए किसी खालिस्तानी की मदद की ज़रूरत पड़ी तो उसको उसने कार्यक्रम की अध्यक्षता भी दे दी। साधारण स्थिति में एक खालिस्तानी ने उसको अपनी एक किताब की भूमिका लिखने के लिए कहा तो उसका जवाब था कि पहले यह लिखकर दे कि खालिस्तान की लहर गलत थी। यद्यपि वह अपने उपन्यास में कामरेडों के खिलाफ़ बोलता रहा है पर वह पक्का मार्क्सवादी था। इसी प्रकार उसने कुछेक समझौते भारतीय साहित्य अकादमी के पुरस्कार पाने के बारे में भी किए थे, पर वहाँ वह सफल नहीं हो सका था। बाद में सतिंदर सिंह नूर जब इंग्लैंड आया तो वह पुरस्कार की खातिर उसका लकड़-बग्घा बनने को तैयार था क्योंकि पंजाबी साहित्य अब उस दौर में शामिल हो चुका था कि भारतीय साहित्य अकादमी के ईनाम नूर के इशारे पर ही दिए जाते। ऐसे समझौते करते समय वह अपने स्वाभिमान वाला दाव भी छिपाकर रखता, बात बनती न देख वह एकदम बदल जाता।
उसके द्वारा दोस्त बनाने और उसके सिगरेट पीने में बहुत समानता थी। वह सिगरेट पीता, कुछ कश खींचकर सिगरेट का फूल काट देता और जब दिल करता, फिर सिगरेट सुलगा लेता। इसी प्रकार वह दोस्ती में करता। कोई दोस्त बनाता, जब दिल करता उससे दूर हट जाता और जब दिल करता, दुबारा नाता जोड़ने की कोशिश करता। उसको हर समय सींग फंसाकर रखने की आदत थी। कोई और लेखक आदि न मिलता तो पड़ोसियों से ही पंगा लिए फिरता। यदि पड़ोसी ही दौड़ जाएँ तो फिर उसका अपना बेटा तो कहीं गया ही नहीं था। ऐसे ही उसका एक और स्वभाव बहुत अजीब था कि जब उसको कोई व्यक्ति पसंद न आता तो वह उसके फोन नंबर पर सफेद स्याही फेर देता। जब उसी व्यक्ति को उसे फोन करने की आवश्यकता महसूस होती तो मुझे फोन करके उसका नंबर मांगता। उसने सबसे अधिक बार सफ़ेद स्याही अपने बेटे के फोन नंबर पर फेरी थी। एक बार मैंने मजाक में कहा-
''डाक्टर साहब, दिखाओ तो ज़रा डायरी, मैं अपना नाम भी देखूँ।''
''ओ माई यावे, तेरा नंबर तो दिल पर उकरा हुआ है जहाँ टिपिकस काम नहीं करती।''
अकेलेपन ने उसके स्वभाव को अतिभावुक बना दिया था। उसका अकेलापन तो पहली पत्नी सुरजीत की मौत के बाद ही शुरू हो गया था, पर वह इस अकेलेपन को अपने से छिटकने की कोशिश करता रहा, कभी विवाह करवाकर, कभी मुम्बई जैसे शहर में रीमा सी तवायफ़ ढूँढ़कर, कभी अपने बेटे के संग रहने की कोशिश करके और कभी साहित्यिक समारोह आयोजित करके। आख़िर अकेलेपन ने उसको पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब वह पिछले पाँच सात साल से बहुत अकेला था। दोस्त उससे दूर भागते थे या वह दोस्तों से। वह कहा करता कि मैं बिना सिर वाले व्यक्ति के साथ बात नहीं कर सकता। अपने उपन्यास 'समां' पर फंक्शन करवाना चाहता था, परन्तु दोस्त इकट्ठे ही नहीं हो सके, बल्कि इसका बहुत विरोध होता रहा। उसके उपन्यासों में एक वक्रता यह होती कि वह पात्र अपने इतने नज़दीक से उठाता कि आसानी से ही पहचाने जाते या उसकी कोशिश होती कि लोग इनको पहचान लें। उपन्यास 'कंजकां' में साउथाल के जाने पहचाने लोग लिए और उनके चेहरे-मोहरे बिलकुल वैसे ही रहने दिए। इसी प्रकार उपन्यास 'समां' में भी। दिल्ली और इंग्लैंड के नामवर चेहरों को लेकर उन्हें विधागत बनाकर पेश कर मारा। दोस्त कहते कि उसने यह उपन्यास अपने मन की आंकाक्षाओं के अधीन लिखा है, जैसे कोई बच्चा वीडियो गेम खेलते समय स्वयं हीरो बन जाता है और विलयनों के नाम अपने विरोधी दोस्तों वाले रख लेता है और चुन चुन कर उन्हें मारता है, ऐसा ही कुछ किया है चंदन ने इस उपन्यास में। मेरा अपना विश्वास है कि एक दिन इस उपन्यास की कद्र ज़रूर होगी।
अपने अकेलेपन का हल खोजने के लिए वह अपने घर के करीब वाले पॉर्क में जाया करता था। पॉर्क में पंजाबी बुजुर्ग़ लोग आकर बैठा करते। अब चंदन भी पिछले कुछ सालों से उनके बीच बैठने लगा था, पर वे सभी अनपढ़ ग्रामीण लोग, हिस्सा डालकर शराब पीते, आपस में 'माँ की, धी की' करते। चंदन उनके साथ ही बोतल में हिस्सा डालने लगा था। चंदन को अपने आप को डाक्टर कहलवाने का शौक था, पर वह उनको किसी तरफ से भी डाक्टर नहीं दिखाई देता था, सो वे लोग चंदन का यह शौक पूरा न करते। अपने इस शौक के लिए उसको उनके लिए व्हिस्की खरीदनी पड़ती। इस तरह उसका अकेलापन और अधिक बढ़ गया।
स्वर्ण चंदन के साथ दोस्ती के तीस वर्ष का सफ़र 'लव एंड हेट' वाला रहा है। बेशक इसमें 'लव' ज्यादा और 'हेट' बहुत कम रही। किसी और के वह कितना काम आया या नहीं, परन्तु मेरे लिए बहुत सहायक रहा। परोक्ष रूप से मुझे लिखने के गुर बताए। यह मैंने उससे ही सीखा कि अपने लेखन को अपना सौ फीसदी देना चाहिए। हर रचना इस तरह लिखो जैसे कि वह आख़िरी हो। मेरी रचनाओं पर उसने भरपूर आलोचना की, सलाहें दीं, परचे पढ़े। मैंने उससे अपने अन्य दोस्तों की किताबों पर भी परचे लिखवाए। कई बार अपने कार्यक्रमों को कामयाब करने के लिए उसकी मदद ली। साहित्य और राजनीति को लेकर भी मैं उसके साथ बात करके अपने दिल को हल्का कर लिया करता। साहित्यिक सांझ के साथ साथ हमारी पारिवारिक सांझ भी थी। हम अपने अपने परिवारों के दुख-सुख भी साझे कर लिया करते। मुझे कोई दुख होता या कोई खुशी मिलती, स्वर्ण चंदन पहले व्यक्तियों में से था, जिसे मैं फोन करता। वह सामाजिक तौर पर एक अच्छा सलाहकार तो नहीं था, परन्तु दूसरे की बात को ध्यान से सुनकर जज्ब कर सकता था।
अपने अड़ियल और सख्त स्वभाव के बारे में वह चेतन था। अपने इस स्वभाव का कारण वह अपने यतीम बचपन को मानता। माता-पिता की मौत के बाद उसको हर किसी ने दुत्कारा था। उसने अपने प्रारंभिक जीवन में नफ़रत ही नफ़रत देखी है। अपनी सारी कहानी उसने अपने त्रि-श्रृंखलीय उपन्यास 'पंजाब सैंताली' में लिखी है। इसका मुख्य पात्र 'चेतू' वह स्वयं ही है। जब भी अपने स्वभाव को लेकर बात करता तो कहता -
''माई यावे, चेतू को हराने की, उसे खत्म करने की लोगों ने बहुत कोशिश की, पर हर वार के साथ चेतू तगड़ा हुआ है। इस चेतू ने ऐसे ही रहना है, यह चेतू सुधरने वाला नहीं।''
जब उसके स्वभाव के कारण नाराज़ हुए लोगों की बात चलती तो वह कहने लगता-
''दोस्तो, यह माई यावा चेतू ऐसा ही है, इसे ऐसे ही कुबूल करो।''
मैं इन गर्मियों में उससे मिलने गया तो तीन दिन उसके पास रहा। अपने अकेलेपन को लेकर उसने बहुत सारी बातें कीं। मैंने कहा-
''भाऊ, तू ये खामखाह की ईगो पाले बैठा है। अच्छा भला तेरा बेटा है और हीरे जैसा पोता है, जाकर उनके बीच रह।''
''तुझे पता है कि अमीं (उसका बेटा) ने एकबार मुझे बास्टर्ड कहा था, भला माई याव, चेतू गाली कैसे खा सकता। मैं यहाँ अकेला ही मर जाऊँगा, पर जाऊँगा नहीं। चेतू को अकेले मरना मंजूर है।''
यह उसकी जिद्द थी और मैं जानता था कि इस जिद्द को वह आख़िर तक पूरा निभाएगा। मैंने कहा -
''और कुछ नहीं तो तू यह घर बेचकर साउथाल में घर ले ले। कम से कम साउथाल में तुम्हारा बेस तो है। वहाँ लोग तुम्हे यहाँ से ज्यादा जानते हैं।''
''बात तो तेरी ठीक है, वहाँ मुश्ताक जैसे, तेरे जैसे मेरे माई याव इस स्वभाव को झेल लेते हैं। मैं करता हूँ कुछ।''
उसने कहा पर कभी आया नहीं। आना इतना सरल भी नहीं था। वुल्वरहैम्पटन वाला घर बेचता और दूसरा खरीदता। इंग्लैंड की बिगड़ती इकोनिमी के कारण आजकल घरों के बिकने की कोई आस नहीं, खास तौर पर मिडलैंड के इलाके में।
एक दिन मैं सवेरे उठा तो वह बैठा सिगरेट पी रहा था और किसी गहरी सोच में गुम हुआ पड़ा था। मैंने पूछा-
''क्या बात है ?''
''सोच रहा हूँ कि माई याव, मैं न भी होऊँ तो क्या फ़र्क़ पड़ता है।... मुझे लगता है कि अब इस दुनिया में मेरा काम खत्म हो चुका है।''
''तुम्हें नहीं लगता कि तुम अपने आप को गलत एस्टीमेट किए जा रहे हो। साहित्य में कभी तुम्हारे नाम के डंके बजते रहे हैं।''
''पर अब तो माई याव कोई नहीं पूछता।''
''सारी उम्र किसको पूछा जाता है। हर लेखक का एक समय होता है। उम्र आती है तो बड़े बड़े फिल्मी हीरो अन्दर बैठ जाते हैं।''
''बात तो तेरी ठीक है, अब मेरे माई याव, 'समां' का समय नहीं नहीं।''
कहते हुए वह हँसने लगा। कुछ देर बाद फिर बोला-
''असल में मेरा किसी भी तरफ समय नहीं रहा, अब देख औरत के साथ का आनन्द लिए कितने साल हो गए।''
''क्यों ? रीमा तो अभी कल ही की बात है।''
''नहीं, छह सात साल हो गए। रीमा ठीक थी, पर थी तो माई याव आखिर वेश्या ही।''
फिर वह बताने लगा कि कैसे दिल्ली में रहते समय वेश्याओं के पास जाया करता था। वह कुछ कहानियाँ दविंदर के बारे में भी सुनाने लगा जिन्हें मैं कई बार सुन चुका था। कुछ देर बातें करते करते वह ग़मगीन सा हो कर बोला-
''कितनी देर हो गई माई याव औरत का आनन्द उठाए, औरत की निकटता को महसूस किए... नंगी औरत का जिस्म देखने को बहुत दिल करता है।''
''बुजुर्गो, पैसे तुम्हारी जेब में है, यह पड़ा है फोन और घुमा लो स्क्रोट सर्विस को...।''
''माई याव, ऐसे नहीं।'' कहते हुए वह बगीचे के अँधेरे की ओर देखने लग पड़ा। मैं सोच रहा था कि सत्तर साल की उम्र में यह कैसी लालसा है।
एक दिन उसका सवेरे सवेरे फोन आया। इतनी सवेरे वह फोन नहीं करता था। मैंने सोचा कि रब खैर करे। उसकी आवाज़ बहुत उदास थी, बोला-
''मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ। माई याव, चारों तरफ एक सुन्न पसरी है, दूर दूर तक। दिल करता है कि पिस्तौल मेरे पास हो और मैं हैमिंग्वे की तरह अपने आप को खत्म कर लूँ।''
''आज सवेरे ही पी ली ?''
''नहीं, आज माई याव, पिये बिना ही उदास हूँ।''
मैंने घंटाभर उससे बातें कीं। कुछ लतीफे सुनाए, दोस्तों की चुगलियाँ कीं। उसका मिज़ाज बदल गया। अगले रोज मैंने फोन किया तो वह बिलकुल ठीक था। उसकी खासियत थी कि जब भी ऐसी रौ में होता तो वह कई दोस्तों को फोन करता और एक सी बातें साझी करता।
उसके निधन के दो दिन पहले मैं उसके पास ठहरा था। मैं अचानक गया था। मुझे देखकर वह बहुत खुश हुआ। हमने ढेर सारी बातें कीं। वह अपने पोते अनीश की बातें बड़े चाव से सुना रहा था और साथ ही साथ अपने बेटे को गालियाँ दिए जा रहा था। मैंने कहा-
''बुजुर्गो, मेरी बात मानो, यह घर बेचकर वापस हेज़ आ जाओ, अपने बेटे के घर के नज़दीक घर ले लो। कम से कम पोता तो तुम्हें प्यार करता ही है।''
''हाँ, अनीश मुझे बहुत चाहता है, पर इस माई यावे चेतू का क्या करूँ। मेरे अन्दर का चेतू नहीं मानता।''
कहकर वह हँसने लगा। फिर बातें करते करते वह अचानक चुप हो गया मानो कुछ याद आ गया हो। कुछ देर बाद वह गुस्से में आते हुए बोला-
''तुझे याद है जब मैं माई याव वैन में से गिर पड़ा था।''
''हाँ, यह तो बारह-तेरह साल पहले की बात है।''
''बिलकुल। पर तूने इसकी कहीं भी माई याव ख़बर नहीं भेजी, याद है ?''
''बुजुर्गो, मैंने तो इस कारण अखबारों को ख़बर नहीं भेजी थी कि लोग हँसेंगे कि स्वर्ण चंदन शराबी होकर वैन में से गिर पड़ा।''
''लोगों को माई याव ख़बर में से शराब की स्मैल आ जाती ?''
''और नहीं तो लोग ये सोचते कि स्वर्ण चंदन सिगरेट लगाते समय गिर गया ?''
कहते हुए मैं हँसने लगा। वह भी हँस पड़ा। फिर बोला-
''मेरे मरने की माई याव, ख़बर ज़रूर सबको भेजना।''
''बुजुर्गो, क्या पैसीमिस्टिक सी बातें किए जा रहे हो।''
मैंने खीझते हुए कहा। उसने अपनी ग़ज़लों वाली कॉपी उठा ली और नई ग़ज़लें सुनाने लगा। कोई कोई शेर अच्छा था, पर मैं सभी शेरों पर ही दाद देता रहा। यह शनिवार की बात है। इतवार मैं दस बजे तक उसके साथ रहा। इतवार रात को मैं घर पहुँचा तो उसका फोन आ गया और वह फिर वही मरने के बाद अखबारों को ख़बर देने वाली बातें करने लग पड़ा। मैंने बात को दूसरी तरफ लगाया तो उसने फोन रख दिया। सोमवार सवेरे ही उसका फोन आ गया और कहने लगा-
''ले मेरे भाई, आज मैंने माई याव फ़ैसला कर लिया... सोचा कि इस बारे में सबसे पहले तुझे ही बताऊँ।''
''कैसा फ़ैसला ?''
''मैंने माई याव चेतू को क़त्ल कर देने का फ़ैसला कर दिया। यह मुझे बहुत सारे काम नहीं करने देता। मैंने तय कर लिया है कि यह घर बेचकर मैं अमनदीप के घर के नज़दीक घर ले लूँगा और अमनदीप से कहूँगा कि बेटा, जितनी चाहे गालियाँ मुझे निकाल, जितने मर्जी धक्के मार, पर मैं तेरा बाप हूँ।
कहते हुए उसका गला भर आया। मैंने कहा-
''बुजुर्गो, तुम यूँ ही चेतू के गुलाम बने जाते हो, यह फैसला तो तुम्हें बहुत पहले ले लेना चाहिए था।''
ऐसे फ़ैसल वह पहले भी कई बार ले चुका था, पर चेतू को मारने वाली बात पहली बार कर रहा था। मंगलवार सवेरे फोन आया। वह बहुत खुश था। बताने लगा-
''ले भई छोटे भाई, मेरी अमनदीप से बात हो गई है। वह कहता है कि डैड हमारे पास आ जाओ, हमारे पास रहो। जब तुम्हारा घर बिक जाएगा तो अपना ले लेना। मैं बहुत खुश हूँ। मैं माई याव, आज ही हेज़ पहुँच जाऊँगा।''
उसकी बात में दृढ़ता थी। मैं बहुत खुश हुआ। मुझे प्रतीत होने लगा कि आज शाम तक वह हेज़ पहुँच जाएगा। कल वह ज़रूर मुझे फोन करेगा।
बुधवार की शाम थी। मेरे घर में कुछ मेहमान आए हुए थे। अचानक फोन की घंटी बजी। फोन अमनदीप का था। वह बोला-
''अंकल, डैड चल बसे।''
''ओ माई गॉड ! वो कैसे ?''
''कल कहते थे कि मैं आ रहा हूँ। फिर कहने लगे कि आज मेरे से कार नहीं चल रही। मैंने कहा कि टैक्सी लेकर आ जाओ क्योंकि मेरे भी घुटने का कल आपरेशन हुआ है। वह कहते थे कि टैक्सी पर नहीं, मैं कल आ जाऊँगा। आज सुबह से हम फोन किए जा रहे थे पर वह उठा नहीं रहे थे। हमने पड़ोसी अमरीक सिंह से कहा कि जाकर देख आए। अमरीक के पास घर की चाबी थी, उसने जाकर देखा तो डैड तो पूरे हो चुके थे। रात में ही कहीं दिल का दौरा पड़ गया लगता है।''
कहते हुए अमनदीप रोने लगा। मैं समझ गया था कि स्वर्ण चंदन चेतू को मारने की कोशिश करता करता ही मर गया होगा।
दो वर्ष पहले जब मेरे पिता जी का निधन हुआ तो मैं पिताजी को अन्तिम सफ़र के लिए तैयार करते हुए स्नान करवा रहा था। उसी समय स्वर्ण चंदन का फोन आ गया था। मैंने बताया तो वह बहुत उदास हो गया। एक साल पहले जब मैं अपने छोटे भाई को उसके आख़िरी सफ़र के लिए तैयार करके वापस लौटा स्वर्ण चंदन का फिर फोन आ गया। मैं बात करते हुए रोने लगा। वह भी रो रहा था और अचानक बोल उठा-
''माई याव, मुझे भी नहलाएगा कि नहीं ?''
मैंने उसके बेटे अमनदीप को संग लेकर स्वर्ण चंदन को अन्तिम स्नान कराया। उसे सूट पहनाया, टाई लगाई और जेब में ऐनक रखी और पार्कर का पेन भी, लाल रंग की पगड़ी बांधी... आख़िर एक जेंटलमैन को अपने आख़िरी सफ़र पर निकलना था।

2 टिप्पणियाँ:

PRAN SHARMA 13 जनवरी 2012 को 11:25 pm बजे  

SWARN CHANDAN PANJABI KE PRAKHAR
LEKHAK THE . KAM HEE LOGON KO PATAA
HAI KI VE HINDI MEIN BHEE LIKHTE THE AUR UNHONNE APNEE KUCHHEK PANJABI RACHNAON KAA ANUWAAD KHUD HEE HINDI MEIN KIYA THA .
UNHEN VINAMRA SHRADDHANJLI .

रूपसिंह चन्देल 14 जनवरी 2012 को 8:22 pm बजे  

डा. स्वर्ण चंदन पर अटवाल का यह मार्मिक संस्मरण तुमने कथा पंजाब में प्रकाशित होने से पहले ही पढ़वाया और मैं तब जितना इससे प्रभावित हुआ था उससे अधिक अब... किसी भी रचना को जितनी बार पढ़ा जाए नए अर्थ खुलते हैं. अटवाल ने बेहद ईमानदारी से चंदन पर लिखा है. अंत बहुत ही मार्मिक.

चन्देल

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

'कथा पंजाब' में प्रकाशित सामग्री का सर्वाधिकार सुरक्षित है। इसमें प्रकाशित किसी भी रचना का पुनर्प्रकाशन, रेडियो-रूपान्तरण, फिल्मांकन अथवा अनुवाद के लिए 'कथा पंजाब' के सम्पादक और संबंधित लेखक की अनुमति लेना आवश्यक है।

  © Free Blogger Templates Wild Birds by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP