पंजाबी लघुकथा : आज तक

>> रविवार, 19 जून 2011




पंजाबी लघुकथा : आज तक(8)

'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत अब तक आप पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी, दर्शन मितवा, (स्व.)शरन मक्कड, सुलक्खन मीत, श्याम सुन्दर अग्रवाल और डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- (स्व.) जगदीश अरमानी की पाँच पंजाबी लघुकथाओं का हिंदी अनुवाद। जगदीश अरमानी पंजाबी लघुकथा के अग्रणी एवं बहुचर्चित लेखक रहे हैं। पंजाबी लघुकथा के आरंभिक दौर के लेखकों में इनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। इन्होंने पंजाबी साहित्य को चार कहानी संग्रह (धुआं और बादल, धुंध और रोशनी, जोगी मंगे दानु और प्रतिबिम्ब) तथा दो लघुकथा संग्रह (कूड़े फिरै प्रधानु, इक्कसवीं सदी) दिए।
-सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब


जगदीश अरमानी की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

(1) कमानीदार चाकू

शहर की हवा बड़ी खराब थी। इतनी खराब कि किसी भी वक्त क़ोई भी घटना घट सकती थी। आगजनी, खून-खराबे और लूटमार की घटनायें आम हो रही थीं।
वह जब भी घर से निकलता, उसकी पत्नी उसके सही-सलामत घर लौटने की सौ-सौ मन्नतें मांगती। जब तक वह घर न लौट आता, उसकी पत्नी को चैन न पड़ता। उसका एक पैर घर के भीतर और दूसरा बाहर होता।
वह जब भी घर से बाहर निकलता, अपनी जेब में कमानीदार चाकू रखता और सोचता -अगर कोई बुरा आदमी मेरे हत्थे चढ़ गया तो उसकी आतें निकालकर रख दूंगा।
वह सोचते हुए चला जा रहा था। अचानक बाज़ार का एक मोड़ आने पर उसका स्कूटर किर्र... किर्र करता हुए सड़क पर फिसल गया।
दूसरे सम्प्रदाय के दो अधेड़ आदमी उसकी ओर दौड़े-दौड़े आए। वह डर गया, परन्तु हिम्मत करके फौरन उठा। शरीर पर कई जगह आई खरोंचों की परवाह किए बगैर उसने फुर्ती से अपना हाथ अपनी जेब में डाला, पर वहाँ कुछ नहीं था।
''बेटा, चोट तो नहीं लगी ?'' एक ने उससे पूछा।
''नहीं।'' उसने धीरे से कहा और स्कूटर को खड़ा करके स्टार्ट करने लगा।
''बेटा, तेरा चाकू।'' दूसरे आदमी ने कुछ ही दूरी पर गिरे उसके चाकू को उठाकर पकड़ाते हुए कहा।
उसने पलभर उन दोनों की ओर देखा। नज़रें झुकाकर चाकू पकडा और तेज़ी से स्कूटर दौड़ा लिया।
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(2) मुर्दाघाट पर खड़ा आदमी

कड़ी जैसे तीन जवान आज गोलियों से भून दिए गए। सारे शहर में हाहाकार मचा हुआ था।
तीनों की लाशें पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल लाई गईं। पोस्टमार्टम के कमरे के बाहर भारी भीड़ जुट गई थी।
कमरे के दरवाजे पर संतरी खड़ा था। वह किसी को अन्दर नहीं जाने देता था। फिर भी कुछ लोग कमरे के अन्दर जा रहे थे और कुछ लोग बाहर आ रहे थे।
सतभराई दरवाज़े के पास दीवार से लगी खड़ी थी। वह न जिन्दों में थी, न मरों में।
मैंने उसकी हालत देखकर गेट पर खड़े संतरी से कहा, ''इस बेचारी को भी एक मिनट के लिए अन्दर चले जाने दो। अपने बेटे को पलभर देख लेगी।''
''सरदार जी !'' उसने बड़ी हिकारत भरी नज़र से मेरी ओर देखते हुए पूछा, ''वह तुम्हारी क्या लगती है ? तुम क्यों उसकी सिफारिश कर रहे हो ?''
''नहीं, मेरी तो कुछ भी नहीं लगती। मैं तो केवल मानवीय नाते से आपसे विनती कर रहा हूँ।'' मैंने कहा।
''तो फिर वह खुद कहे।''
सतभराई दीवार से लगी सुन रही थी। वह दीवार से हटकर थोड़ा आगे आ गई। मैं ज़रा पीछे हट गया।
''माई, तेरा लड़का मारा गया है ?'' उसने पूछा।
''हाँ।'' माई ने सिर हिलाकर हामी भरी।
''तो माई, यह बता,'' उसने गुस्से से कहा, ''तुमने लड़के के क्रियाकर्म पर कुछ नहीं खर्च करना ? लकड़ी पर नहीं खर्च करेगी या कफन नहीं बनवाएगी ? बता, क्या नहीं करेगी ? अगर सब कुछ करेगी तो माई, फिर हमारा हक क्यों मारती है ?''
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(3) एक लड़की, एक कहानीकार

वह जब भी कोई कहानी लिखता, परखने के लिए वह अपनी कहानी उस लड़की को थमा देता। लड़की जैसे उसकी कहानियों का मापदंड थी। लड़की जैसे उसकी सबसे बड़ी आलोचक थी। अगर लड़की उसकी कहानी पढ़ते-पढ़ते रो पड़ती या सिससियाँ भरने लगती तो वह सोचता, उसकी लिखी कहानी सफल है। अगर ऐसा न होता तो वह अपनी कहानी को सफल न मानता। वह उसी वक्त उस लड़की से अपनी कहानी वापस लेता और कहानी को फिर से दुरस्त करने लग जाता या फिर नये सिरे से कहानी लिखने बैठ जाता या फिर फाड़कर फेंक देता।
लेकिन आज जब उसने अपनी ताज़ा लिखी कहानी उस लड़की को पढ़ने के लिए दी तो वह पढ़कर न तो रोई, न ही उसने कोई आँसू बहाया, बल्कि वह आज उसकी कहानी पढ़कर हँस पड़ी। हँसी भी इतना कि चुप होने पर ही न आती थी। हँसी जैसे उससे रोके रुक नहीं रही थी।
कहानीकार लड़की की हँसी देखकर शर्मसार हो उठा। उसको कहानी में कोई बहुत बड़ी खामी नज़र आई। बहुत बड़ी कमी महसूस हुई। उसने सोचा, कहानी का प्रभाव तो बहुत दर्दनाक था, फिर लड़की किस बात पर हँसे जा रही है। उसने लड़की से हँसी का कारण पूछा। लड़की ने बमुश्किल हँसी रोकते हुए कहा, ''कहानीकार महोदय, और कब तक तुम लोगों के दु:ख बयान करते रहोगे। लोग तो पहले ही बेहद दु:खी हुए पड़े हैं। अब कोई इनके दु:ख हरने की भी बात करो!''
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(4) चुग्गा

आसमान आज पूरी तरह झुका हुआ था। बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।
परन्तु मानव कल्याण मंत्री के अन्दर एक कसक उठ रही थी। कलेजे में आग मची थी।
मंत्रालय से निकलने के बाद उन्होंने अपनी जिप्सी का मुँह प्रेम सिंह के पोल्ट्रीफार्म की ओर घुमा दिया।
''क्यों ? क्या बात है ?'' मंत्री साहब के वहाँ पहुँचते ही प्रेम सिंह बोला, ''आज तो मेरे यार का चेहरा भी उतरा हुआ है।''
''हाँ,'' मंत्री साहब ने ठंडी साँस भरते हुए कहा, ''यार, अपना तो समझो पत्ता ही कट जाना है। मुख्यमंत्री साहब ने आज दूसरी बार डांट पिला दी है।''
''अच्छा ! कैसे ?'' प्रेम सिंह ने चिंता प्रकट की।
''यार, हमारी सरकार का सब ओर से विरोध हो रहा है। सरकारी कर्मचारी भत्ता बढ़ाये जाने के लिए हड़ताल पर हड़ताल किए जा रहे हैं। विरोधी दल बंद पर बंद का आह्वान किए जा रहे हैं। प्रैस अलग हर बात को उछाल रहा है। यहाँ तक कि सारा बुद्धिजीवी वर्ग भी हमारे विरोध में ही खड़ा हुआ है। मैं कहता हूँ यार, इस सबके लिए मैं अकेला तो जिम्मेदार नहीं। परन्तु, मुख्यमंत्री साहब हैं कि वह सारा दोष मेरे गले ही मढ़ रहे हैं।''
''अच्छा, तो यह बात है, बस। मैंने सोचा शायद कोई बहुत बड़ी घटना घट गई है।'' प्रेम सिंह ने हँसते-हँसते कहा।
''अरे, तुझे यह मामूली बात लगती है !'' मंत्री साहब बोले।
''लो ! और नहीं तो क्या ? अच्छा, चल, पहले यह फीड का बर्तन उठा। ज़रा मुर्गे-मुर्गियों को दाना डाल आएँ। फिर आकर इसका कोई उपाय सोचते हैं।''
''यार ! कुछ तो शर्म कर। अभी तो मैं पूरा मंत्री हूँ। तेरा नौकर तो नहीं।''
''ओह, सॉरी! मैं खुद ही उठा लेता हूँ।'' प्रेम सिंह ने फीड का बर्तन उठाते हुए कहा, ''चल!''
दोनों मुर्गीखाने की ओर चल दिए। प्रेम सिंह के हाथों में फीड का बर्तन देखकर सारी मुर्गे-मुर्गियाँ उसकी ओर दौड़ पड़ीं।
''क्यों ? देखा तुमने तमाशा!'' प्रेम सिंह ने मंत्री साहब से कहा, ''यार, अगर तू किसी को कुछ दे ही नहीं, तो बता, तेरे पास कोई क्यों आए।''
मंत्री साहब को जैसे कुछ सूझ गया। उन्होंने तुरन्त प्रेम सिंह के हाथों में से फीड का बर्तन छीना और मुर्गे-मुर्गियों को चुग्गा डालना शुरू कर दिया।
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(5) आधा आदमी

''तुम्हें यहाँ नौकरी मिल सकती है।''
''अच्छा! बहुत बहुत शुक्रिया!''
''पर एक शर्त है।''
''बताओ, बताओ। कौन सी शर्त ?''
''तुम्हें तनख्वाह आधी मिलेगी।''
''वह क्यों ?''
''तुम्हारा एक हाथ और एक पैर नहीं है। तुम काम तो आधे आदमी का ही करोगे।''
एक चुप्पी।
''क्यों ? बोलो फिर मंजूर है ?''
''हाँ, एक शर्त पर।''
''कौन सी ?''
''कृपा करके पहले मेरा पेट आधा काट दो।''
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4 टिप्पणियाँ:

ashok andrey 20 जून 2011 को 11:12 am बजे  

jagdish armaani jee ki laghu katha padin yeh sabhi achchha prabhav chhodti hai lekin inki aakhiri teen
laghu kathaen vishesh roop se prabhav chhodne me saksham hain or man ko gehre chhuti hain, badhai

PRAN SHARMA 22 जून 2011 को 12:42 am बजे  

ACHCHHEE LAGHU KATHAAON KE LIYE
LEKHAK KO BADHAAEE.

Vandana Ramasingh 29 जून 2011 को 7:41 am बजे  

सभी लघुकथाएं प्रभावशाली हैं शेयर करने के लिए धन्यवाद

ਦਰਸ਼ਨ ਦਰਵੇਸ਼ 17 जुलाई 2011 को 7:43 pm बजे  

Mian isko aksar parhta rehta hoon, yeh hi nahi aapke dawara chalaaye ja rahe sare blog hi parhne yogaa hote hai, main kahin bhi hota hoon inke liye to waqt nikaal hi leta hoon. Katha-Punjab ek blog maatar hi nahi mujhe to poora punjabi ka publication house lagta hai, aur aapke dawara chuni hui kahaniaan aur unka anuvaad sabh uuch satar ke hote hain . Vadhai !........Darshan Darvesh

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छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

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प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

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