पंजाबी लघुकथा : आज तक

>> रविवार, 21 अक्तूबर 2012




पंजाबी लघुकथा : आज तक(10)


'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत अब तक आप कथाकार भूपिंदर सिंह, हमदर्दवीर नौशहरवी, (स्व.)दर्शन मितवा, (स्व.)शरन मक्कड, सुलक्खन मीत, श्याम सुन्दर अग्रवाल,. श्यामसुन्दर दीप्ति, (स्व.) जगदीश अरमानी तथा हेमकरन खेमकरनी की चुनिंदा लघुकथाएं पढ़ चुके हैं। इसी की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं- धर्मपाल साहिल की पाँच पंजाबी लघुकथाओं का हिंदी अनुवाद। साहिल जी ने लघुकथाओं के अतिरिक्त कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं लेकिन यह पंजाबी लघुकथा के एक बहुचर्चित लेखक रहे हैं। इनके पांच उपन्यास हिंदी में भी प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी लघुकथाएं हमारे जीवन के बीच से ही उठाये गए विषयों पर तीखे कटाक्ष के साथ अपनी बात कहती नज़र आती हैं और पाठक की संवेदना को झकझोरने की शक्ति रखती हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं इनकी पाँच चुनिंदा लघुकथाओं का हिंदी अनुवाद -
-सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब



धर्मपाल साहिल की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

खुलती हुई गांठे
रोज़ाना की तरह मैं शाम के वक्त अपने एक्स-रे वाले मित्र की दुकान पर पहुँचा।
      ''मास्टर जी, ज़रा बैठो, मैं अभी आया। अगर कोई मरीज़ आए तो उसको बिठा कर रखना।'' कहता हुआ वह तेज़ कदमों से बाहर चला गया। मित्र के जाते ही मैं मरीज़ों वाले बैंच पर बैठने की बजाय मित्र की रिवॉल्विंग चेअर पर बैठ गया। तभी एक खूबसूरत औरत वहाँ आई और मेरी ओर पर्ची बढ़ाते हुए बोली, ''डॉक्टर साहब, एक्स-रे करवाना है।''
      ''बैठो-बैठो, करते हैं।'' पर्ची पकड़ते हुए उस स्त्री के शब्द 'डॉक्टर साहब' मुझे फर्श से अर्श पर ले गए। डॉक्टर बनने की मेरी तीव्र इच्छा तो पारिवारिक मज़बूरियों के नीचे दबकर रह गई थी और मुझे मास्टरी करनी पड़ी थी। ''डॉक्टर साहब, देर लगेगी क्या ?'' औरत की मीठी आवाज़ ने मेरी सोच की लड़ी तोड़ दी।
      ''अभी करते हैं एक्स-रे। मैंने एक्स-रे फिल्म लेने के लिए भेजा था। बड़ी देर कर दी उसने।'' वैसे मैं चाहता था कि मेरा मित्र और देर से पहुँचे ताकि मेरा डॉक्टरी ओहदा और देर तक सुरक्षित रह सके। मैंने पर्ची पर उड़ती-सी दृष्टि डाली, 'ए-पी बैकबोन।'
      ''तुम्हारी पीठ की हड्डी में तकलीफ़ है ?''
      ''जी, डॉक्टर साहब।''
      ''कहीं गिरे थे ?''
      ''नहीं, डॉक्टर साहब।''
      ''कोई वजनी चीज़ झटके से उठाई होगी ?''
      ''घर का काम करते हुए हल्की-भारी चीज़ तो उठानी ही पड़ती है, डॉक्टर साहब।''
      औरत के मुँह से बार-बार 'डॉक्टर साहब' शब्द सुनकर मुझे नशा हो रहा था और मैं अपनी औकात ही भूल बैठा था। उसी समय चार-पाँच आदमी दुकान पर पहुँचे। एक ने हाथ में पकड़ी रसीद-बुक की पर्ची पर दुकान का नाम लिखते हुए कहा, ''डॉक्टर साहब ! भंडारे के लिए दान दीजिए। कितने की पर्ची काटूँ ?''
      मेरा मन हुआ कि कह दूँ, मैं दुकान का मालिक नहीं। परन्तु अपनी ओर घूरती औरत को देखकर मैंने जेब में से पाँच का नोट निकाल कर पीछा छुड़ाना चाहा।
      ''डॉक्टर साहब! कम से कम इक्कीस रुपये का दान करो...।'' कहते हुए उसने इक्कीस रुपये की पर्ची काटकर काउंटर पर रख दी। जेब में इक्कीस रुपये की जगह इक्कीस रुपये की पर्ची रखते हुए मुझे लगा जैसे रिवॉल्विंग चेअर की गद्दी पर कांटे उग आए हों। उनके जाते ही मैं कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और बाहर झांकने लग पड़ा। मुझे मित्र के अब तक न लौटने पर गुस्सा आ रहा था।
     
औरत से औरत तक
टेलिफोन पर बड़ी बेटी शीतल के एक्सीडेंट की ख़बर जैसे ही सुनी, वासुदेव बाबू घबराये हुए-से संशय भरे मन से अपनी छोटी बेटी मधु को संग लेकर तुरन्त समधी के घर पहुँचे। उन्हें गेट से भीतर प्रवेश करते देखकर रोने-पीटने वालों की आवाज़ें और तेज़ हो उठीं। दामाद सुरेश ने आगे बढ़कर वासुदेव बाबू को संभालते हुए भरे गले से बताया, ''बाज़ार से एक साथ लौटते हुए स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया। शीतल सिर के बल गिरी और बेहोश हो गई। फिर होश नहीं आया। डॉक्टरों का कहना है, ब्रेन हेमरेज हो गया था।''
      वासुदेव बाबू बरामदे में सफ़ेद कपड़े में लिपटी अपनी बेटी की लाश को देखकर गश खाकर गिर पड़े। मधु ''दीदी उठो... देखो, पापा आए हैं... दीदी उठो...'' पुकार-पुकार कर रोने लगी। शीतल की सास मधु को अपनी छाती से लगाकर सुबकते हुए बोली, ''बेटी, हौसला रख... ईश्वर को यही मंजूर था।'' पीछे बैठी औरतों में से एक आवाज़ आई, ''सुरेश की माँ, रो लेने दो लड़की को, उबाल निकल जाएगा।''
      लेकिन मधु जोर-जोर से रोये जा रही थी और औरतों के 'वैण' आहिस्ता-आहिस्ता धीमे पड़ते-पड़ते खुसुर-फुसुर में बदल रहे थे। एक अधिक आयु की औरत ने शीतल की सास का कंधा हिलाया और कान के पास मुँह ले जाकर पूछा, ''अरी, क्या यह सुरेश की छोटी साली है ?''
      ''हाँ, बहन।'' सुरेश की माँ ने दुखी स्वर में कहा।
      ''यह तो शीतल से भी अधिक सुन्दर है। तुम्हें इधर-उधर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। शीतल की बेटी की खातिर इतना तो सोचेंगे ही सुरेश की ससुराल वाले।''
      इतने में ही गुरो बोल उठी, ''छोड़ परे, बच्ची को हवाले करो उसके ननिहाल वालों के। मैं लाऊँगी अपनी ननद का रिश्ता। खूब सुन्दर! और फिर घर भर जाएगा दहेज से।''
      ''हाय, नसीब फूट गए मेरे बेटे के। बड़ी अच्छी थी मेरी बहू रानी। दो घड़ी भी नहीं रहता था उसके बगैर मेरा सुरेश। हाय रे!'' सुरेश की माँ चीखने लगी तो पास बैठी भागो ने उसे ढाढ़स देते हुए कहा, ''हौसला रख, सुरेश की माँ। भगवान का लाख-लाख शुक्र मना कि तेरा सुरेश बच गया। बहुएँ तो और बहुत हैं, बेटा और कहाँ से लाती तूँ ?''
      शीतल की लाश के पास बैठी मधु पत्थर हो गई।

मुआवज़ा
वर्षा के कारण गेहूं की फसल बर्बाद होने पर सरकार द्वारा मुआवज़ा वितरित किया जा रहा था। पटवारी द्वारा बनाई गई लिस्ट के उम्मीदवारों की सरपंच तसदीक कर रहा था। तभी भीड़ को चीरते हुए एक सत्तर वर्षीय फटेहाल बूढ़ी औरत लाठी के सहारे आगे बढ़ी। कुर्सियों पर विराजमान एस.डी.एम. तथा तहसीलदार के सामने पहुँच कर वह प्रार्थना करने लगी, ''साहब, मेरा नाम भी मुआवज़े की लिस्ट में चढ़ा लिया जाए। मैं जल्दी में इंतजाम न कर सकी, इसलिए पटवारी ने मेरा नाम लिस्ट में नहीं चढ़ाया।''
      ''इंतज़ाम ! कैसा इंतज़ाम ?'' दोनों अफ़सर एक साथ बोल पड़े।
      ''साहब, गाँव का लंबरदार कह रहा था जो इंतजाम करेगा, उसी का नाम लिस्ट में चढ़ाया जाएगा। और यह भी कह रहा था कि माई, इसका हिस्सा तो ऊपर तक जाता है, इसीलिए मैं सीधे आपके पास ले आई। कहीं पटवारी ही न पूरा का पूरा...।'' कहते-कहते बूढ़ी औरत ने थैले में से कागज में लिपटी बोतल जैसी चीज़ मेज़ पर रख दी।
      ''साहब, अब तो मुझे भी मुआवज़ा मिल जाएगा न ?''
      ''साहब, यह बुढ़िया पागल है। इसकी बात का विश्वास न करें।'' कहते हुए क्रोध से लाल-पीले होते हुए सरपंच और पटवारी बुढ़िया को खींचकर दूर ले जाने लगे। बुढ़िया हाँफती हुई बोल रही थी, ''लोगो, मैं पागल नहीं हूँ। पिछली बार भी जब बाढ़ के कारण मकान गिरने से मेरा पति दबकर मर गया था, तब भी मुझे मुआवजा नहीं मिला था क्योंकि मैं इतंजाम...।'' बाकी के शब्द भीड़ के शोर में विलीन हो गए।

लक्ष्मी
जगमग करती दीवाली की रात।
बच्चे पटाखे चला रहे थे। पाँच वर्षीय पिंकी अपने बाबा की बगल में बैठी नज़ारा देख रही थी। पिंकी ने अचानक प्रश्न किया, ''बाबा जी, दीवाली क्यों मनाते हैं ?''
      ''बेटी, दीवाली मनाने से घर में लक्ष्मी आती है।''
      ''फिर लक्ष्मी से क्या होता है ?''
      ''बेटी जिस घर में लक्ष्मी आ जाए, उस घर की किस्मत ही खुल जाती है। धन-दौलत की कमी नहीं रहती।''
      ''बाबा जी, अगर हमारे घर लक्ष्मी आ गई तो आप मुझे सिम्मी की साइकिल जैसी साइकिल लेकर दोगे न ?''
      ''हाँ-हाँ बेटा, क्यों नहीं। ज़रूर ले देंगे अपने बेटे को साइकिल। अच्छा, चल अब सो जाएँ। रात बहुत हो गई है।''
      पिंकी बाबा के साथ करवटें ले रही है। उसे नींद नहीं आ रही। उसे तो माँ के साथ सोने की आदत है न! पर उधर माँ साथ के कमरे में प्रसव-पीड़ा से बेहाल है। तभी पिंकी की दादी घबराई हुई अन्दर आई और भरे गले से कहने लगी, ''पिंकी के बाबा! हमारे घर फिर लक्ष्मी आई है।''
      ''आहा जी ! हमारे घर लक्ष्मी आ गई। आहा...जी। हमारे घर...'' सुनते ही पिंकी खुशी से झूम उठी। पर दूसरे ही पल, बाबा का उतरा चेहरा देख पिंकी ने हैरानी से पूछा, ''बाबा जी, हमारे घर तो लक्ष्मी आई है, फिर आप उदास क्यो हो गए ?''

मंगता
पंडाल में खाना ठंडा हो रहा था। नाचते हुए बारातियों की ताल मद्धम पड़ गई थी। खाना खाने के लिए बारात और मीठी गालियों की बरसात करने के लिए प्रतीक्षा करती औरतों की आँखें दुखने लगी थीं। पंडाल के एक ओर गुलाबी पगड़ी बाँधे नशे में धुत्त लड़के के बाप पर सभी की निगाहें टिकी हुई थीं। उसके सामने लड़की का बाप कमान की तरह दोहरा होकर अपनी पगड़ी उसके पैरों में रखता हुआ पंडाल में चलकर खाना खाने की विनती कर रहा था।
      ''बस, थोड़ी मोहलत और दे दो। अब चलकर रोटी खाएं, ठंडी हो रही है। आपको लौटने में दे हो जाएगी।''
      ''नहीं... हमारी शर्त अभी इसी वक्त नहीं मानी गई तो हम जा रहे हैं।'' कहते हुए लड़के के बाप ने पाँव गेट की ओर बढ़ाए।
      बाहर काफी देर से एक फटेहाल मंगता कुछ मिलने की आशा में बैठा था। उसने पास खड़े एक अपटडेट बाराती के आगे हाथ फैलाया तो उस बाराती ने गेट की ओर जाते लड़के के बाप की ओर इशारा करते हुए कहा, ''उससे मांग, वह लड़के का बाप है।''
      ''बाबू जी, वह क्या देगा ? वह तो खुद ही मंगता है।'' मंगते के शब्द सुनते ही बाहर जाते लड़के के बाप के पैर एकाएक रुक गए।
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जन्म : 9 अगस्त 1958
शिक्षा : एम. एस. सी., एम. एड.
प्रकाशित पुस्तकें : अक्क दे बीं(लघुकथा संग्रह), नींह दे पत्थर (कहानी संग्रह), किन्नौर तों कारगिल (सफ़रनामा), धीयां मरजाणियां, पथराट (उपन्यास)- सभी पंजाबी में। हिंदी में पाँच उपन्यास समझौता एक्सप्रैस, बाइस्कोप, बेटी हूँ न, खिलने से पहले, ककून।

संप्रति : प्रिंसीपल, गवर्नमेंट सीनियर सेकेंडरी स्कूल, नारू नांगल, होशियारपुर (पंजाब)
पता : पंचवटी, एकता एन्कलेव, लेन नंबर- 2, पोस्ट ऑफिस- साधु आश्रम, होशियारपुर (पंजाब)
ई मेल : dpsahil_panchvati@yahoo.com
फोन : 018882-228936(घर), 09876156964(मोबाइल)

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आत्मकथा/स्व-जीवनी



पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
      कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)

सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com


आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


बदलती साहित्यिक सोच

2. दूसरा चरण - 'दस्तावेज़' लिखने के बाद मेरा जेहन खाली-सा हो गया था। इस दौरान एक स्त्री से चली आ रही मेरी मित्रता में दरार-सी आने लग पड़ी थी। ज़ाहिरा तौर पर यह रिश्ता तिड़क रहा था, पर कहीं अंदर जड़ें भी पकड़ रहा था। मेरी सोच के लिए एक नया और पेचीदा संसार खुल रहा था। इस दौरान कुछ ऐसे अनुभव हुए जो मुझे बहुत रहस्यमय लगे। जब कोई रहस्य खुलता तो मुझे लगता कि गल्प की नदी बह चली है। मेरा अधिकतम समय स्त्री और पुरुष के संबंधों की गांठों को खोलने में बीतने लगा। कभी लगता मानो कोई आत्मिक ज्ञान या सिद्धि प्राप्त हो रही है। जिसे योग-साधक लोग 'ज्ञान पात' अथवा 'प्रकाश पात' कहा करते हैं। मैंने उन अनुभवों को आधार बनाकर कहानियाँ लिखनी शुरू कीं। जब मैं एक कहानी लिख लेता था और वह छप जाती थी तो मेरे अंदर कुछ और अनखुली गांठें रड़कने लग पड़ती थीं। उन्हें खोलते दो ही महीने होते थे कि मुझे लगता था कि मेरे अंदर नई कहानी लिखने के लिए और कितना सारा मसाला पड़ा है। वह उसी तरह इस्तेमाल न किया गया लगता था जैसे पहली कहानी लिखने से पहले बहुत कुछ हमारे अंदर यूँ ही पड़ा होता है, ठीक उसी प्रकार यह मसाला भी मुझे लगता था। इसका कारण अनुभवों और उनके बारे में चिंतन की बहुलता और अंतर्मुखता थी। अनुभवों के भिन्न-भिन्न पहलुओं के कपाट दिन रात खुलते रहते थे। जो मेरे लिए संभालने कठिन हो जाते थे। कहानी की घटनाओं का सारा जोड़-तोड़ भी नया बनकर खड़ा हो जाता था।
      जब कोई लेखक अपनी कहानी सुनाकर यह कहता कि यह एक सच्ची घटना है, यह उसके गाँव या उसके साथ बीता है तो मैं समझता हूँ कि उस कहानीकार को साहित्य की कतई समझ नहीं। या वह अपनी कमज़ोर कहानी को तगड़ी मनवाने के लिए जतन कर रहा है। इसके उलट मैं कोई बात छिपाने के लिए और कोई बताने के लिए कहता हूँ कि मेरी यह कहानी बिलकुल मनघडंत है। मेरे सारे पात्र कल्पित हैं। मेरा सारा कहानी जगत मेरी कल्पना का घड़ा हुआ है। यहाँ तक कि मेरी कहानियाँ जिनमें 'मैं' पात्र कहानी बयान करता है, या कहानी उसकी कल्पना या सोच में से गुज़रती है, वह भी मेरा कल्पित पात्र है। मेरे कई भोले पाठक मेरे उस पात्र 'मैं' को ग़लती से लेखक समझ लेते हैं। मेरे ये पात्र अन्य पात्रों की तरह कहानी में अपने तौर पर बढ़ते-घटते रहते हैं। उनका विकास और विस्तार होता है।
      जब मेरी कहानी 'मुक्ति-1' छपी तो मैं अपना दूसरा साहित्यिक बनवास सह चुका था। पहले तब झेला था जब मैं प्रगतिवादियों का विरोध करके 'नमाज़ी', 'ताश' और 'ऐस जनम विच' जैसी कहानियाँ लिखने लग पड़ा था। दूसरा तब झेला जब 'दस्तावेज़' लिखने पर मार्क्सवादियों ने मेरे पर गालियों के हमले किए थे। दूसरे बनवास के बाद मैंने पहली कहानी लिखी थी - 'माड़ा बंदा'। जो मेरे मार्क्सवादी दोस्त अमरजीत चंदन ने अपने संपादन में निकल रहे परचे 'दिशा' के प्रवेश अंक में छापी थी। कहानी उसको पसंद नहीं थी, पर क्या करता, उसने चिट्ठी लिखकर मंगवाई थी। मेरी वह कहानी प्रगतिवादियों ने 'फ़िजूल' कह कर नष्ट कर दी थी। अपने तौर पर मैं अब भी उसको अपनी ही नहीं, अपितु पंजाबी कथा जगत की सोच में नया मोड़ समझता हूँ। जहाँ से हमने व्यक्तियों को वर्ग-भेद की संकीर्ण लकीर से परे होकर देखना शुरू किया। जिसको मैं साक्षी भाव से देखना और समझना कहता हूँ। जो आधी सदी साहित्यकार को यही पूछते रहे कि वह किसका पक्ष लेता है। जैसे उनकी बात मेरी समझ में नहीं आई थी, उसी प्रकार मेरी बात उनकी समझ में नहीं आती।
      जब 1970 से करीब दो वर्ष पहले मेरी कहानी 'ताश' अमृता प्रीतम की बदनाम या मशहूर पत्रिका 'नागमणि' में छपी थी तो गैर-मार्क्सवादी हलकों ने उसकी बड़ी तारीफ़ की थी। अमृता प्रीतम उसको कई वर्ष उठाये फिरती रही थी। पर मेरे मार्क्सवादी मित्र आलोचकों ने बहुत विरोध किया था। वह बार बार यही प्रश्न पूछते थे, ''यह कहानी लिखने का तेरा मकसद क्या है ?'' उनकी सोच के अनुसार हर रचना की कोई सियासत होती है। कोई उनकी लहर के हक में खड़ा होता है और कोई विरुद्ध। मेरी कहानी विरोध में खड़ी होने वाली थी। उनके लिए यह सवाल दूसरे दर्जे का होता है कि कोई रचना साहित्य है या नहीं?
      फिर जब कहानी 'मुक्ति-2' छपी थी तो हालात ज़रा बदल गए थे। नक्सली लहर बिलकुल दब चुकी थी। बहुत से कामरेड इंग्लैंड भाग गए थे या सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों या अख़बारों में फिट होने की कोशिशें कर रहे थे। कुछ कारोबार करने और धन को दुगना करने लग पड़े थे। कुछ अभी अपने नाम सरकार के बस्ता 'बे' में से कटवाने के चक्कर में थे। कुछ अपना भविष्य बरबाद करके बहुत निराश हो चुके थे। कइयों के लिए ज़िन्दगी बेअर्थ हो कर रह गई थी।
      जो नक्सली कामरेड नौकरियों में फिट हो गए थे, उनकी साहित्यिक सोच भी बदलने लग पड़ी थी। कई कामरेड साहित्यिकारों ने 'मुक्ति-2' की तारीफ मुझे ख़त लिख कर की थी। 'मुक्ति-2' के छपने से एक-डेढ़ वर्ष बाद 'डेड लाइन' 'सिरजणा' में छपी थी। यह कहानी 'सिरजणा' के संपादक रघबीर सिंह को भी पसंद नहीं थी। यह उसके दृष्टिकोण के विरुद्ध थी। फिर उसने पता नहीं किस मज़बूरी में इसे छाप लिया था। पर अगले अंक में उसके विरुद्ध किसी का ख़त छाप दिया था कि 'यह क्या बकवास कहानी छाप दी गई है?' उसके बाद मैंने 'सिरजणा' को एक भी कहानी छपने के लिए नहीं भेजी। बहुत वर्षों बाद एक कहानी 'गढ़ी' भेजी थी। पर भेजने के बाद ही मुझे अपनी ग़लती का अहसास हो गया था। मैंने तुरन्त उसे न छापने के लिए चिट्ठी लिख दी। वापस मंगवाने का एक कारण यह भी था कि मुझे वह कहानी किसी और रूप में सूझने लग पड़ी थी। मैंने उसे पुन: लिखा था। मेरे पास उसके दोनों रूप मौजूद हैं। पर छपा दूसरा ही है।
      कहानी 'डेड लाइन' के विरुद्ध लेखक की हतक करने वाली चिट्ठी के छपने से ज़ाहिर था कि यह मार्क्सवादी संपादक और पाठक की संकीर्ण सोच थी। मेरे पर इस बात का असर कम इसलिए होता था कि मैं मार्क्सवादियों के हमले लगातार बर्दाश्त कर चुका था और मार्क्सवादी आलोचकों, लेखकों और पाठकों का मज़ाक उड़ाया करता था। मुझे लगता था कि यह सब 'वाद' के अंधे किए हुए लोग हैं। दूसरी तरफ़ इस सुख का अहसास था कि गैर-मार्क्सवादी आलोचकों ने मेरी कहानियों की तारीफ़ करते हुए उनमें से नये नये गुण खोजने शुरू कर दिए थे। उनकी देखा देखी मार्क्सवादी आलोचकों ने भी अपना रुख बदलना शुरू कर दिया था। जिससे मेरी नई सोच और अधिक प्रौढ़ हो गई थी। वे मेरे हक में बात करते थे, इसके बावजूद मैं उनके विरुद्ध बोलता था। मैं संत सिंह सेखों के खिलाफ़ बोलता था तो सेखों साहिब का भांजा और मेरा दोस्त डा. तेजवंत सिंह गिल मुझे 'मुतसबी' कहता और लिखा करता था। मुझे उसका यह फतवा मंजूर होता था।
      समय बीतने पर मार्क्सवादियों का दृष्टिकोण जहाँ साहित्य के बारे में खुले दिल वाला होने लग पड़ा था, वहीं मेरी कहानी के बारे में सोच भी बहुत बदल गई थी। पर मेरा स्वभाव उनके प्रति उसी तरह रहा। मुझे संत सिंह सेखों की नियत पर भी गुस्सा रहा है। यद्यपि मुझे पता चल गया था कि जब मैंने अपनी पुस्तक 'मुक्ति' के लिए भाषा विभाग, पंजाब को लिखा तो उसके बारे में सेखों से राय मांगी गई थी। उन्होंने मेरी किताब की वकालत करते हुए पूरा पन्ना लिखकर भेजा था। फिर जब मुझे 'मुक्ति' पर पंजाब साहित्य अकादमी ने सम्मान दिया तो उसके पीछे कुलवंत सिंह विर्क और संत सिंह सेखों का हाथ था। उस समय सेखों अध्यक्ष थे और विर्क महा सचिव। दो बैठकों में वे मेरी कहानी कला के हक में बोला भी था और कहीं लिखा भी था। फिर 1992 में साहित्य अकादमी का सम्मान भी सेखों ने जबरन दिलवाया था। फिर भी मैं उससे नाराज़ था। उसके द्वारा की गई मेरी प्रशंसा की बात भी मुझे तंग करती थी और मैं हमेशा उसके विरुद्ध ज़हर उगलता रहा हूँ। क्योंकि मुझे उसकी ईमानदारी पर शक रहता था। यद्यपि मैं उसकी समझदारी और विद्ववता को मानता था। उस जैसा ज़हीन जट्ट कहीं विरला ही पैदा होता है।
      किसी भी साहित्यिक संगठन से दूर रह कर और आम तौर पर होने वाली साहित्यिक बैठकों और कांफ्रेंसों में न जाकर मुझे अकेले रहने और अकेले होकर सोचने और लिखने में आनन्द आने लग पड़ा था। इस तरह मेरी सोच अन्य कहानीकारों से पृथक-सी हो गई थी। यह भी ठीक नहीं कि मैं निरा अकेला ही रहता, सोचता और लिखता था। मेरी संगत तो थी, पर बहुत सीमित से लोगों के साथ। मैं सुरजीत हांस, मीशा, दिलजीत सिंह, मोहन भंडारी, भूषण और सुरजीत कौर की संगत करता रहा था। अंदर से इच्छा ज़ोर मारती तो अन्य लेखक मित्रों और कामरेडों से भी मिलता था। जालंधर के साहित्यिक रसिये मित्रों ओमप्रकाश और प्रिय व्रत के साथ भी संगत रहती थी। ओम प्रकाश तो बाद में अपनी आत्मकथा 'पनाहगीर' लिखकर एक बढ़िया साहित्यकार बन गया। आधुनिक और प्रगतिशील कवि मोहन सिंह मीशे के साथ मुलाकातें तो बहुत होती थीं, पर हमारे बीच कोई लकीर-सी खिंची रहती थी। वह दूसरों के सामने रस्में निभाने वाला और शराफ़त का दिखावा करने वाला अच्छा व्यक्ति था। जब तक विर्क जालंधर में रहा, उसके साथ बहुत लंबी बैठकें होती थीं। उसके लुधियाना और फिर चंडीगढ़ चले जाने से ये कम होती गई थीं। उसके जैसा अच्छा, सच्चा और हीरा व्यक्ति खोज पाना बहुत कठिन होता है।
      मैं यदि कभी किसी साहित्यिक सभा में जाता था, उसका कारण यूँ ही मौज-मस्ती सा होता था। या फिर मैं उनकी बैठकों में जाता था, जहाँ मुझे कहानी पढ़ने के पैसे मिलते थे। पैसे तो मिल जाते थे, पर मैं होता परेशान ही था, क्योंकि वहाँ आए हरेक लल्लू-पंजू की आलोचना सुननी पड़ती थी। छपी कहानी पढ़ कर कोई आलोचना करता घूमे, मुझे क्या। पर यदि कोई मुझे खड़ा करके कहानी की आलोचना करने लग पड़े तो मुझे वह मूर्ख लगता है। मैं चले जाते पाठकों से अपनी कहानी के बारे में उनकी राय नहीं पूछता।
      जब मैंने 'मुक्ति-1' लिखी थी तो मुझे नहीं पता था कि मैं स्त्री और पुरुष संबंधों के बारे में इतनी कहानियाँ लिखूँगा। पर वह सिलसिला इतना खिंचता चला गया कि पच्चीस-तीस कहानियाँ और लिखी गईं। हरेक कहानी लिखने के बाद मैं कहता था कि यह अन्तिम होगी, पर तीसरे-चौथे महीने एक और कहानी पैदा होने लग पड़ती थी। यह सिलसिला 'श्वेतांबर ने कहा था'(1983) पर आकर खत्म हुआ प्रतीत होता था। परन्तु खत्म 'सुणदैं खलीफ़ा'(2001) तक भी नहीं हुआ। आम पाठक और आलोचक मेरी उन कहानियों का ही ज़िक्र करते थे, जिनमें स्त्री और पुरुष के संबंधों की बारीकियाँ हों। हालांकि मैंने इस किस्म की कहानियाँ तब कम लिखी थीं। यह बात बताने के लिए मैंने ऐसी कहानियों को एक पुस्तक 'प्रेम कहानियाँ' शीर्षक के संग्रह में एकत्र कर दिया था। फिर 'मुक्ति रंग' से बाहर की कहानियों की पुस्तक सन् 2000 में छपवाई थी।
      मुझे गिला था कि मेरी अन्य अच्छी कहानियाँ भी है, जिन पर अब उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा, जितना पहले दिया गया था। शायद ये कहानियाँ मेरी दूसरी कहानियों को दिखने ही नहीं देतीं या पाठक और आलोचक ऐसी कहानियों में इतना डूबते हैं कि उनके जेहन में यही फंसी रह जाती हैं। तभी वे कुछ अधिक शौक से इन्हें पढ़ते हैं।
(जारी)

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पंजाबी उपन्यास



बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


      10

गुलाब बहुत उदास और कमज़ोर हो गया था और अपने बीते हुए दिनों को याद कर रहा था।
      अभी मेरी मसें नहीं फूटी थीं और ये वो दिन थे जब मैं हाई स्कूल की शिक्षा प्राप्त कर चुका था और कालेज में प्रवेश लेने वाला था। दुनिया की दृष्टि में बेशक अभी मैं कुछ भी नहीं था, पर अपने भीतर मुझे एक ''मैं'' का अहसास होने लगा था। अपनी राय को अहमियत दिलाने का ख़याल मुझे सूझता था और मैं कई बार अपने आप को एक बेताज बादशाह की तरह समझा करता था। मुझे इस बात का भी पता था कि बादशाही का ताज प्राप्त करने के लिए मुझे भारी तपस्या की ज़रूरत थी और यह तपस्या मेरी उच्च शिक्षा की प्राप्ति थी। अब मुझे दु:ख भी सुख जैसे प्रतीत होते थे। क्योंकि घर में मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं थी, या फिर मैं दु:ख-सुख के अंतर को समझने की कोशिश ही नहीं करता था।
      माँ प्राय: मेरे विवाह की बात छेड़ लेती और चरखा कातते हुए मेरे विवाह के गीत गाती रहती।-
      पाणी वार बन्ने दिए माँए
      नीं बन्ना तेरे बार खड़ा।
      वह मांगने आईं स्त्रियों को दरवाजे में बिठाकर अक्सर मेरी घोड़ी का गीत सुनाती। मेरी माँ बड़ी भावुक औरत थी। ख़ास तौर पर वह मेरे और मेरे भविष्य को लेकर तो वह बहुत ही जज्बाती थी। माँ के जज्बे और पिता के आशावादी नज़रिये के अधीन मेरा पालन-पोषण बड़ी उपासना के साथ हो रहा था। अब जब मैं हाई स्कूल की शिक्षा पूरी करने के बाद कालेज जाने को था तो मेरे माता-पिता की नज़रों में मैं जीवन के ऐसे मोड़ पर खड़ा था जहाँ मेरी ज़िन्दगी एक दोराहे पर खड़ी परिवर्तन के शिखर को भांप रही थी। कारण यह था कि हाई स्कूल तक की शिक्षा मैंने अपने गाँव के विद्यालय में प्राप्त की थी। अपने माता-पिता के प्रभाव और उनकी निगरानी के नीचे, और अब मुझे अगली विद्या के लिए ज़रूरी तौर पर शहर जाना था।
      शहर की पढ़ाई में और गाँव की पढ़ाई से बहुत अन्तर था। शहर के कालेजों में लड़कियाँ लड़के इकट्ठे पढ़ते थे। गाँवों के पढ़े मेरे जैसे विद्यार्थियों के लिए शहरों में लड़कों के संग लड़कियों के पढ़ने का ख़याल ही शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ा देता था और मैं तो इस विचार में बहुत ही आशावादी था। शायद बहुत आशावादी होने का कारण मैं अपनी सुन्दरता को समझता था। मुझे एक तरह से अपने तीखे नयन-नक्शों, प्रभावकारी वार्तालाप और गाँव के अच्छे तंदरुस्त शरीर पर गर्व था। सिर्फ़ शहरी लड़कों के मुकाबले मेरा लिबास अच्छा नहीं था और मुझे कपड़े पहनने और मटकने का पूरा शहरी ढंग भी सीखना था। इसलिए कालेज के दाख़िले के समय सबसे पहले घरवालों से अच्छे कपड़े सिलवाने की शर्त मैंने मंजूर करवा ली थी। पगड़ी अभी मुझे अच्छी तरह बाँधनी नहीं आती थी और मैं इसे भी सीख लेना चाहता था।
      स्कूल और कालेज के दाख़िले के मध्य के दिन मैंने बड़े सुनेहरी सपनों के तले झूम झूम कर बिताए।
      हमें नई अलॉट हुई ज़मीन के करीब ही शहर के किसी कालेज में मेरे दाख़िले का प्रबंध किया गया। उस शहर में मेरे ताया का एक लड़का भी रहता था जो एक सरकारी अफ़सर था और यही एक कालेज था जो उसके घर से दो फर्लांग की दूरी पर था।
      मेरे इस भाई ने अपनी सारी शिक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी और साथ-साथ सरकारी वजीफा भी लिया था। ताया उन दिनों आर्थिक तौर पर कमज़ोर था और भाई अपने पैरों पर खड़ा होकर पढ़ा था। पढ़ा भी लायलपुर और लाहौर के अच्छे कालेजों में था जहाँ उसने टेकनीकल विद्या प्राप्त करके सरकारी उच्च पदवी प्राप्त की थी। एक लखपति की बेटी से विवाह करवाया था जिनके यू.पी. में दो सिनेमा और राजस्थान में साठ मुरब्बों का फार्म था और अब वो भारत के किसी बड़े शहर में लोहे का कारखाना लगाने की योजना बना रहे थे।
      भाभी खुद बी.ए. पास और बहुत सुलझी हुई औरत थी। यद्यपि वह बड़े घर की थी, पर उसमें अकड़ नहीं थी। इतनी प्रभावशाली थी कि मैं पहली बार उससे मिलने पर उसके प्यार से सम्मोहित हो गया था। भाभी की जबरदस्त ख्वाहिश थी कि मैं दसर्वी में मैरिट लिस्ट में आऊँ। कालेज की पढ़ाई में भी मैं अपनी योग्यता का प्रदर्शन करूँ। और जब मैं पढ़-लिखकर बड़ा अफ़सर बन जाऊँ तो फिर वह किसी किसान की स्थायी ज़मीन पर किसी शाह द्वारा कब्ज़ा किए जाने  की तरह अपने खानदान में से एक अमीर पढ़ी-लिखी सुन्दर लड़की लाकर मेरी अफ़सरी, मेरी कोठी, मेरी कार, मेरे बैंक-बैलेंस और मेरी आज़ादी पर उसका कब्ज़ा करवा दे।
      लेकिन ये सब तो अभी बहुत दूर की बातें थीं। अभी तो मैंने पहले पायदान पर पैर रखा ही था। सुन्दर भविष्य का सपना तो अँधेरे में तीर छोड़ने वाली बात थी।
      विषय चुनने के समय भी फिर वही मुश्किल पेश आई। पिता का विचार था कि मैं डॉक्टर बनूँ। भविष्य में डॉक्टरी का काम बहुत उज्जवल था और समूचे समाज की सेवा वाला भी। भाभी और भाई का विचार था कि मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए नान-मेडिकल का विषय चुन लूँ। परन्तु हैरानी वाली बात यह थी कि मैं इन दोनों विषयों में अपने आप को चला नहीं सकता था। पर मेरी इच्छा और मेरी रुचि को वहाँ पूछने वाला ही कोई नहीं था। परिणामस्वरुप मुझे पहले मेडिकल और फिर नान-मेडिकल और फिर कुछ दिन काम न चलता देख आर्ट्स के विषय लेने पड़े। भाभी के ईष्ट को चोट लगी। उसका सपना कुचला गया, पर भाई और मेरी माँ बड़े आशावादी रहे। आर्ट्स में उच्च विद्या प्राप्त करके भी अच्छी नौकरी की आस हो सकती थी।
      पिता मेरा दाख़िला भरकर और हॉस्टल की फीस और सिक्युरिटी जमा करवाकर, किताबें दिलवा कर, काफी सारा रुपया मुझे आने वाले खर्चों की पूर्ति के लिए देकर और बहुत सारी आशीषों और नसीहतों का ढेर लगाकर गाँव लौट गए और इन नसीहतों को याद करके कई दिनों तक मेरी आँखें भर आती रहीं। फिर मुझे उस पहलवान की तरह अखाड़े की याद आने लगी जिसने बड़ी कुश्तियों में लड़ने के लिए अपने आपको तैयार करना था।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

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