संपादकीय

>> रविवार, 15 जुलाई 2012


लेखकों में पढ़ने की रुचि का ह्रास
हिन्दी में ही नहीं, मुझे लगता है कि पंजाबी में भी लेखकों में पठन-रूचि का अभाव पिछ्ले डेढ़-दो दशकों से तेज़ी से बढ़ा है। पुराने और स्थापित लेखक नये लेखकों की बात छोड़िये, वे अब अपने समकालीनों की रचनाओं को भी यदा-कदा ही पढ़ते हैं, वह भी तब जब उसे पढ़ने के लिए उनसे विशेष अनुरोध किया जाता है यानी किसी पत्रिका में रिव्यू अथवा किसी गोष्ठी आदि में पर्चा आदि पढ़ने के लिए जब उनपर दबाव बनता है, तब। इस रोग से नये लेखक भी मुक्त हों, ऐसा नहीं है। वे भी पुराने और अपने अग्रज लेखकों की नई आई रचनाओं को पढ़ना और उनपर बात करना पसन्द नहीं करते। यही नहीं, पंजाबी के नये लेखकों में हिन्दी की तरह यह प्रवृति तेज़ी से ज़ोर पकड़ती दीखती है, कि वे यह तो इच्छा रखते हैं कि उनकी हर रचना को नया-पुराना लेखक अवश्य पढ़े, पर वे पुराने लेखकों की बात छोड़ें, अपने समकालीनों की रचना को भी पढ़ना नहीं चाहते। पुराने लेखकों में बहुत कम लेखक हैं जो नये लेखकों को स्वयं आगे बढ़कर पढ़ते हों… उन पर बात करते हों… यही स्थिति नयी पीढ़ी के लेखकों में  भी है… साहित्य के विकास और संवर्द्धन में यह एक खतरनाक प्रवृति है जिसके चलते अच्छे साहित्य के प्रकाश में आने की संभावना क्षीण होती है। एक-दूसरे को पढ़ने से पढ़ने वाला न केवल अपडेटिड होता है, वरन अपनी साहित्यिक विकास यात्रा को भी अद्यतन और पुख्ता करता है। ऐसा नहीं है कि पुराने लेखकों को नये लेखकों की किताबें उपलब्ध नहीं होतीं, अथवा नये लेखकों को अपने पुराने और अग्रज लेखक की नई किताब मुहैया नहीं होती… होती हैं, और खूब होती हैं- चाहे वे भेंट-स्वरूप प्रदान हुई हों, पुस्तकालयों से प्राप्त होती हों अथवा पुस्तक मेलों से… कहने का अर्थ यह है कि अब शनै: शनै: लेखकों के भीतर एक-दूसरे को पढ़ने की रुचि का ह्रास होता जा रहा है जो साहित्य के विकास और संवर्द्धन के लिए स्वास्थवर्धक बात नहीं है, इस प्रवृति पर अंकुश लगना चाहिए…
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इस अंक में आप पढ़ेंगे
-संपादकीय में लेखकों की पढ़ने की रुचि में ह्रास

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सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब  

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पंजाबी कहानी : आज तक


पंजाबी कहानी : आज तक(10)




अमृता प्रीतम ( 31 अगस्त 1919 - 31 अक्तूबर 2005)
पंजाबी की प्रख्यात कवयित्री, कहानीकार व उपन्यासकार अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला, पंजाब(अब पाकिस्तान में) में हुआ। सोलह वर्ष की आयु में इनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। सन् 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय मुस्लिम, हिन्दू और सिक्खों के हुए क़त्लेआम से क्षुब्ध होकर उन्होंने अपनी विश्वप्रसिध्द कविता लिखी -''अज्ज आक्खां वारिस शाह नूं, कितों कब्रां विचों बोल/ ते अज किताबे इश्क दा कोई अगला वरका फोल/ इक रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख लिख मारे वैण/ अज्ज लक्खां धीयां रोन्दियाँ, तैनू वारिस शाह नूं कहिण..।'' अपनी पुस्तक ''सुनेहे'' पर वर्ष 1956 में साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित होने वाली प्रथम महिला। वर्ष 1982 में ''कागज़ ते कैनवास'' पुस्तक पर भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड तथा पदमभूषण सम्मान से सम्मानित अमृता प्रीतम जी के आठ उपन्यास - 'पिंजर', 'डॉक्टर देव', 'कोरे कागज़, उनचास दिन', 'सागर और सीपियाँ', 'रंग का पत्ता' , 'दिल्ली की गलियाँ', 'तेरहवाँ सूरज' और 'यात्री', एक कविता संग्रह और तीन कहानी संग्रह - '26 वरे'(1943), 'कुंजियां'(1944) और 'नेडे-नेड़े'(1946) तथा एक आत्मकथा की पुस्तक ''रसीदी टिकट'' प्रकाशित। इसके अतिरिक्त पंजाबी साहित्यिक पत्रिका ''नागमणि'' का प्रकाशन भी किया। 'शाह दी कंजरी' और 'एक ज़ब्तशुदा किताब' इनकी न भुलाई जाने वाली कहानियों में शुमार हैं।
शाह की कंजरी
अमृता प्रीतम

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

उसे अब नीलम कोई नहीं कहता था, सब शाह की कंजरी कहते थे।
      नीलम को लाहौर हीरामंडी के एक चौबारे में जवानी चढ़ी थी। और वहाँ ही एक रियासती सरदार के हाथों पूरे पाँच हज़ार में उसकी नथ उतरी थी। और वहीं उसके हुस्न ने आग जलाकर सारा शहर झुलसा दिया था। पर फिर एक दिन वह हीरामंडी का सस्ता चौबारा छोड़कर शहर के सबसे बड़े होटल फ्लैटी में आ गई थी।
      वही शहर था, पर सारा शहर जैसे रातोंरात उसका नाम भूल गया हो, सबके मुँह से सुनाई देता था - शाह की कंजरी।
      गज़ब का गाती थी। कोई गानेवाली उसकी तरह मिरजे की टेर नहीं लगा सकती थी। इसलिए लोग चाहे उसका नाम भूल गए थे, पर उसकी आवाज़ नहीं भूल सके। शहर में जिसके घर भी तवेवाला बाजा था, वह उसके भरे हुए तवे ज़रूर खरीदता था। पर सब घरों में तवे की फरमाइश के वक्त हर कोई यही कहता था, ''आज शाह की कंजरीवाला तवा ज़रूर सुनना है।''
      लुकी-छिपी बात नहीं थी, शाह के घरवालों को भी पता था। सिर्फ़ पता ही नहीं था, उनके लिए बात भी पुरानी हो गई थी। शाह का बड़ा लड़का जो अब ब्याहने लायक था, जब गोद में था तो सेठानी ने ज़हर खाकर मरने की धमकी दी थी, पर शाह ने उसके गले में मोतियों का हार डालकर उसे कहा था, ''शाहनिये ! वह तेरे घर की बरकत है। मेरी आँख की जौहरी है। तूने नहीं सुना कि नीलम ऐसी चीज़ होता है जो लाखों को खाक कर देता है और खाक को लाख कर देता है। जिसे उल्टा पड़ जाए, उसके लाख के खाक बना देता है। पर जिसे सीधा पड़ जाए, उसे खाक से लाख बना देता है। वह भी नीलम है, हमारी राशि से मिल गया है। जिस दिन से साथ बना है, मैं मिट्टी में हाथ डालूँ तो वह सोना हो जाती है...।''
      ''पर वही एक दिन घर उजाड़ देगी, लाखों को खाक कर देगी,'' शाहनी ने छाती के पत्थर को सहकर उसी तरफ़ से दलील दी थी, जिस तरफ़ से शाह ने बात चलाई थी।
      ''मैं तो बल्कि डरता हूँ कि इन कंजरियों का क्या भरोसा, कल किसी और ने सब्ज़बाग दिखाए, और जो यह हाथों से निकल गई, तो लाख से खाक हो जाएगा।'' शाह ने फिर अपनी दलील दी थी।
      और शाहनी के पास कोई और दलील नहीं रह गई थी। सिर्फ़ वक्त क़े पास रह गई थी और वक्त चुप था। कई बरसों से चुप था। शाह सचमुच जितने रुपये नीलम पर बहाता, उससे कई गुना ज्यादा पता नहीं कहाँ-कहाँ से बहकर उसके घर आ जाते थे। पहले उसकी छोटी-सी दुकान शहर के छोटे से बाज़ार में होती थी, पर अब सबसे बड़े बाज़ार में लोहे के जंगलेवाली सबसे बड़ी दुकान उसकी थी। घर की जगह पूरा मुहल्ला ही उसका था, जिसमें बड़े खाते-पीते किरायेदार थे। और जिसमें तहखाने वाले घर को शाहनी एक दिन के लिए भी अकेला नहीं छोड़ती थी।
      बहुत बरस हुए, शाहनी ने एक दिन मोहरों वाले ट्रंक को ताला लगाते हुए शाह से कहा था, ''उसे चाहे होटल में रखो और चाहे उसे ताजमहल बनवा दो, पर बाहर की बला बाहर ही रखो। उसे मेरे घर ना लाना। मैं उसके माथे नहीं लगूँगी।''
      और सचमुच शाहनी ने अभी तक उसका मुँह नहीं देखा था। जब उसने यह बात कही थी, उसका बड़ा लड़का स्कूल में पढ़ता था, और अब जब वह ब्याहने लायक हो गया था, शाहनी ने न उसके गानेवाले तवे घर में आने दिए, और न घर में किसी को उसका नाम लेने दिया था।
      वैसे उसके बेटों ने दुकान-दुकान पर उसके गाने सुन रखे थे और जने-जने से सुन रखा था - 'शाह की कंजरी'
      बड़े लड़के का ब्याह था। घर पर चार महीने से दर्जी बैठे हुए थे। कोई सूटों पर सलमा काढ़ रह था, कोई तिल्ला, कोई किनारी, और कोई दुपट्टे पर सितारे जड़ रहा था। शाहनी के हाथ भरे हुए थे - रुपयों की थैली निकालती, खोलती, फिर दूसरी थैली भरने के लिए तहखाने में चली जाती।
      शाह के यार-दोस्तों ने शाह की दोस्ती का वास्ता डाला कि लड़के की शादी पर कंजरी ज़रूर गवानी है। वैसे बात उन्होंने बड़े तरीके से कही थी ताकि शाह कभी बल न खा जाए। ''वैसे तो शाह जी नाचने-गाने वालियाँ बहुतेरी हैं, जिसे चाहे बुलाओ... पर वहाँ मल्लिका-ए-तरन्नुम ज़रूर आए, चाहे मिरजे की एक ही तान लगा जाए।''
      फ्लैटी होटल आम होटलों जैसा नहीं था। वहाँ अधिकतर अंग्रेज लोग ही आते और ठहरते थे। उसमें अकेले-अकेले कमरे भी थे, पर बड़े-बड़े तीन कमरों वाले सैट भी। ऐसे ही एक सैट में नीलम रहती थी। और शाह ने सोचा - दोस्तों-यारों का दिल खुश करने के लिए वह एक दिन नीलम के यहाँ रात की महफ़िल रख लेगा।
      ''वह तो चौबारे पर जाने वाली बात हुई,'' एक ने उज्र किया तो सारे बोल पड़े, ''नहीं, शाहजी ! वह तो सिर्फ़ तुम्हारा ही हक बनता है। पहले कभी इतने बरस हमने कुछ कहा है ? उस जगह का भी नाम नहीं लिया। वह जगह तुम्हारी अमानत है। हमें तो भतीजे के ब्याह की खुशी मनानी है। उसे खानदानी घरानों की तरह अपने घर बुलाओ, हमारी भाभी के घर...।''
      बात शाह के मन भा गई। इसलिए कि वह दोस्तों-यारों को नीलम की राह दिखाना नहीं चाहता था(यद्यपि उसके कानों में भनक पड़ती रहती थी कि उसकी गैर-हाज़िरी में कोई-कोई अमीरजादा नीलम के पास आने लगा था)। दूसरा इसलिए भी वह यह चाहता था कि नीलम एक बार उसके घर आकर उसके घर की तड़क-भड़क देख जाए। पर वह शाहनी से डरता था, दोस्तों को हामी न भर सका।
      दोस्तों-यारों में से दो ने राह निकाली और शाहनी के पास जाकर कहने लगे, ''भाभी, तुम लड़के की शादी के गीत नहीं गवाओगी ? हम तो सारी खुशियाँ मनाएँगे। शाह ने सलाह की है कि एक रात यारों की महफ़िल नीलम की तरफ़ हो जाए। बात तो ठीक है, पर हज़ारों उजड़ जाएँगे। आख़िर घर तो तुम्हारा है, पहले उस कंजरी को क्या कम खिलाया है ? तुम सयानी बनो। उसे गाने-बजाने के लिए एक दिन यहाँ बुला लो। लड़के के ब्याह की खुशी भी हो जाएगी और रुपया उजड़ने से बच जाएगा।''
      शाहनी पहले तो गुस्से में भरकर बोली, ''मैं उस कंजरी के माथे नहीं लगना चाहती।'' परन्तु जब दूसरों ने धीरज से कहा, ''यहाँ तो भाभी तुम्हारा राज है। वह बाँदी बनकर आएगी, तुम्हारे हुक्म में बँधी हुई, तुम्हारे बेटे की खुशी मनाने के लिए। हेठी तो उसकी है, तुम्हारी काहे की ? जैसे कमीन-कुमने आए, डोम-मिरासी, तैसी वह...।''
      बात शाहनी के मन भा गई। वैसे तो कभी सोते-बैठते उसे ख़याल आता था - एक बार देखूँ तो सही कैसी है ?
      उसने उसे कभी देखा नहीं था, पर कल्पना ज़रूर की थी - चाहे डरकर, सहमकर, चाहे एक नफ़रत से। और शहर में से गुज़रते हुए अगर किसी कंजरी को तांगे में बैठी देखती तो न सोचते हुए ही सोच जाती - क्या पता, वही हो ?
      'चलो, एक बार मैं भी देख लूँ,' वह मन में घुल-सी गई, 'उसको जो भी मेरा बिगाड़ना था, बिगाड़ लिया। अब वो और क्या कर लेगी ! एक बार चंदरी को देख तो लूँ।'
      शाहनी ने हामी भर दी। लेकिन एक शर्त रखी, ''वहाँ न शराब उड़ेगी, न कबाब। भले घरों में जिस तरह गीत गाये जाते हैं, उसी तरह गीत करवाऊँगी। तुम मर्द-मानस भी बैठ जाना। वह आए और सीधी तरह गाकर चली जाए। मैं वही चार बताशे उसकी झोली में भी डाल दूँगी जो दूसरी बन्ने, सेहरे गाने वाली लड़कियों को दूँगी।''
      ''यही तो भाभी, हम कहते हैं।'' शाह के दोस्तों ने फूँक दी, ''तुम्हारी समझदारी से ही तो घर बना है। नहीं तो क्या ख़बर क्या हो गुज़रना था।''

      वह आई। शाहनी ने खुद अपनी बग्घी भेजी थी। घर मेहमानों से भरा हुआ था। बड़े कमरे में सफेद चादरें बिछाकर, बीच में ढोलक रखी हुई थी। घर की औरतों ने बन्ने-सेहरे गाने शुरू कर रखे थे।
      बग्घी दरवाज़े पर आकर रुकी, तो कुछ उतावली औरतें दौड़कर खिड़की की ओर चली गईं और कुछ सीढ़ियों की तरफ़ भागीं…
      ''अरी बदसगुनी क्यों करती हो, सेहरा बीच में ही छोड़ दिया,'' शाहनी ने एक डाँट-सी लगाई। पर उसकी आवाज़ खुद को ही धीमी-सी लगी। जैसे उसके दिल पर एक धमक-सी हुई हो।
      वह सीढ़ियाँ चढ़कर दरवाजे तक आ गई थी। शाहनी ने अपनी गुलाबी साड़ी का पल्ला सँवारा, जैसे सामने देखने के लिए वह साड़ी के शगुनवाले रंग का सहारा ले रही हो।
      सामने उसने हरे रंग का बाँकड़ीवाला गरारा पहना हुआ था, गले में लाल रंग की कमीज़ थी और सिर से पैर तक ढलकी हुई हरे रंग की रेशम की चुनरी। एक झिलमिल-सी हुई। शाहनी को एक पल यही लगा मानो हरा रंग सारे दरवाजे में फैल गया हो !
      फिर हरे काँच की चूड़ियों की छनछन हुई, तो शाहनी ने देखा - एक गोरा-गोरा हाथ झुके हुए माथे को छूकर आदाब बजा रहा है, और साथ ही एक झनकती हुई-सी आवाज़, ''बहुत बहुत मुबारिक शाहनी ! बहुत बहुत मुबारिक !''
      वह बड़ी नाजुक-सी, पतली-सी थी। हाथ लगते ही दोहरी होती थी। शाहनी ने उसे गाव-तकिये के सहारे हाथ के इशारे से बैठने को कहा, तो शाहनी को अपनी माँसल बाँह बड़ी ही बेडौल सी लगी।
      कमरे के एक कोने में शाह भी था। दोस्त भी थे, कुछ रिश्तेदार मर्द भी। उस नाजनीन ने उस कोने की तरफ़ देखकर भी एक बार सलाम किया और फिर परे गाव-तकिये के सहारे ठुमककर बैठ गई। बैठते वक्त क़ाँच की चूड़ियाँ फिर छनकी थीं, शाहनी ने एक बार फिर उसकी बाँहों को देखा, हरे काँच की चूड़ियों को और फिर स्वाभाविक ही अपनी बाँह में पड़े हुए सोने के चूड़े को देखने लगी।
      कमरे में एक चकाचौंध-सी छा गई थी। हरेक की आँखें जैसे एक ही तरफ़ उलट गई थीं, शाहनी की अपनी आँखें भी, पर उसे अपनी आँखों को छोड़कर सबकी आँखों पर एक गुस्सा-सा आ गया।
      वह फिर एक बार कहना चाहती थी - 'अरी, बदसगुनी क्यों करती हो ? सेहरे गाओ ना...' पर उसकी आवाज़ गले में घुटती-सी गई थी। कमरे में एक ख़ामोशी छा गई थी। वह बीचोंबीच रखी हुई ढोलक की तरफ़ देखने लगी और उसका जी किया कि वह बड़ी ज़ोर से ढोलक बजाए।
      ख़ामोशी उसने ही तोड़ी जिसके लिए ख़ामोशी छायी थी। कहने लगी, ''मैं तो सबसे पहले घोड़ी गाऊँगी। लड़के का सगुन करूँगी, क्यों शाहनी ?'' और शाहनी की तरफ ताकती, हँसती हुई घोड़ी गाने लगी, ''निक्की-निक्की बूँदी निकिया मींह वे वरे, तेरी माँ वे सुहागन तेरे शगन करे...।''
      शाहनी को अचानक तसल्ली-सी हुई, शायद इसलिए कि गीत के बीच की माँ वही थी, और उसका मर्द भी सिर्फ उसका मर्द था, तभी तो माँ सुहागिन थी...
      शाहनी हँसते-से मुँह से उसके बिल्कुल सामने बैठ गई - जो उस वक्त उसके बेटे के सगुन कर रही थी...
      घोड़ी ख़त्म हुई तो कमरे की बोलचाल फिर से लौट आई। फिर कुछ स्वाभाविक-सा हो गया। औरतों की तरफ़ से फरमाइश की गई, ''ढोलकी रोड़ेवाला गीत''। मर्दों की तरफ से फरमाइश की गई, ''मिरजे दियाँ सद्दाँ !''
      गानेवाली ने मर्दों की फरमाइश सुनी-अनसुनी कर दी और ढोलकी को अपनी तरफ़ खींचकर उसने ढोलकी से अपना घुटना जोड़ लिया। शाहनी कुछ रौ में आ गई, शायद इसलिए कि गानेवाली मर्दों की फरमाइश पूरी करने के बजाय औरतों की फरमाइश पूरी करने लगी थी।
      मेहमान औरतों में से शायद कुछ एक को पता नहीं था। वह एक-दूसरे से कुछ पूछ रही थीं और कोई उनके कान के पास कह रही थी, ''यही है, शाह की कंजरी...।''
      कहने वालियों ने शायद बहुत धीमे स्वर में कहा था, फुसफुसाकर, पर शाहनी के कान में आवाज़ पड़ रही थी, कानों से टकरा रही थी- शाह की कंजरी...शाह की कंजरी... और शाहनी के मुँह का रंग फिर फीका पड़ गया।
      इतने में ढोलक की आवाज़ ऊँची हो गई और साथ ही, गानेवाली की आवाज़ भी, ''सूह वे चीरे वालिया मैं कहनी हाँ....'' और शाहनी का कलेगा थम-सा गया - यह सूहे चीरे वाला मेरा ही बेटा है, सुख से आज घोड़ी पर चढ़ने चला मेरा बेटा।
      फरमाइशों का अन्त नहीं था। एक गीत ख़त्म होता तो दूसरा शुरू हो जाता। गानेवाली कभी औरतों की तरफ़ की फरमाइश पूरी करती, कभी मर्दों की। बीच-बीच में कह देती, ''कोई और भी गाओ न, मुझे थोड़ा दम लेने दो...'' पर किसकी हिम्मत थी उसके सामने होने की, उसकी खनकती आवाज़... वह भी शायद कहने को ही कह रही थी, पर एक के पीछे झट दूसरा गीत छेड़ देती थी।
      गीतों की बात और थी, पर जब उसने मिरजे की हेक लगाई, ''उठ नी साहिबा सुत्तीये ! उठ के दे दीदार...'' हवा का कलेजा हिल गया। कमरे में बैठे मर्द बुत बन गए थे। शाहनी को फिर घबराहट-सी हुई, उसने बड़े गौर से शाह के मुँह की ओर देखा। शाह भी और बुतों सरीखा बुत बना हुआ था, पर शाहनी को लगा, वह पत्थर का हो गया था।
      शाहनी के कलेजे में एक हौल-सा उठा, और उसे लगा अगर यह घड़ी छिन गई तो वह आप भी हमेशा के लिए बुत बन जाएगी... वह करे, कुछ करे, कुछ भी करे, पर मिट्टी का बुत न बने।
      काफ़ी शाम हो गई, महफ़िल ख़त्म होने वाली थी।
      शाहनी का कहना था, आज वह उसी तरह बताशे बाँटेगी, जिस तरह लोग उस दिन बाँटते हैं जिस दिन गीत बिठाये जाते हैं, पर जब गाना ख़त्म हुआ तो कमरे में चाय और कई तरह की मिठाई आ गई।
      और शाहनी ने मुट्ठी में लपेटा हुआ सौ का नोट निकालकर, अपने बेटे के सिर पर से वारा, और फिर उसे पकड़ा दिया, जिसे लोग शाह की कंजरी करते थे।
      ''रहने दे, शाहनी, आगे भी तेरा ही खाती हूँ।'' उसने जवाब दिया और हँस पड़ी। उसकी हँसी उसके रूप की तरह झिलमिल कर रही थी।
      शाहनी के मुँह का रंग फीका पड़ गया। उसे लगा, जैसे शाह की कंजरी ने आज भरी सभा में शाह से अपना सम्बन्ध जोड़कर उसकी हतक कर दी थी। पर शाहनी ने अपना आप थाम लिया और मन में ठाना कि आज उसको हार नहीं खानी है। और वह ज़ोर से हँस पड़ी। नोट पकड़ाती हुई बोली, ''शाह से तूने नित लेना है, पर मेरे हाथ से तूने फिर कब लेना है। चल, आज ले ले...।''
      और शाह की कंजरी, सौ के नोट को पकड़ती हुई, एक ही बार में गरीब-सी हो गई।
      कमरे में शाहनी की साड़ी का सगुनवाला गुलाबी रंग फैल गया।

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आत्मकथा/स्व-जीवनी



पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
      कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)

सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com


आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


4. पानी का गिलास : गर्मियों की छुट्टियाँ समाप्त होने पर स्कूल खुला तो बाढ़ के कारण स्कूल का हुलिया ही बिगड़ा पड़ा था। हम कई दिन बच्चों के साथ मिलकर गड्ढ़े भरते रहे और लीपने का काम करते रहे। लड़के गारा और पानी लाते और लड़कियाँ लीपने का काम करती जातीं। मैं उनके साथ तसले को हाथ लगाकर उनकी सहायता करता था। मुझे शारीरिक काम करने में बहुत आनन्द आता था। फिर लड़कों के साथ बहते बम्बे में नहाता। मैं उनके साथ तैरता था। मैं यह काम बच्चों को बचाने के लिए भी करता था। लीपने के काम में कई बच्चे बहुत मेहनत करते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वे बीते दो महीनों में कितने बड़े हो गए हैं। शीघ्र ही जवान होने वाले हैं। नौजवानों वाली निशानियाँ तेज़ी से उभरने लग पड़ी हैं। कुछ लड़कियाँ अधिक समझदार हो गई हैं।
      उन लड़कियों में से एक लड़की का कद एकदम बढ़ गया था। वह बातें करते हुए मुझे गहरी नज़र से देखने लग पड़ी थी। जब मैं किसी को पानी लाने के लिए कहता तो वह स्वयं दौड़ पड़ती थी। मैं सवेरे शहर से आकर अपना साइकिल खड़ा करके हाज़िरी लगाने के लिए पहले दफ्तर में जाता था। हाज़िरी लगाकर पानी पीता था। कभी मैं लेट हो जाता था। बच्चे बाहर कतारों में खड़े प्रार्थना कर रहे होते। मैं गिलास लेकर खुद ही पानी पीता था। कभी-कभी वह लड़की मुझे देखते ही पानी लेने चली जाती थी। मुझे पानी का गिलास पकड़ाकर खाली गिलास लेने के लिए वहीं खड़ी रहती थी।
      एक बार दफ्तर में कोई नहीं था। उसने मुझे पानी का गिलास थमाया तो हमारी उंगलियाँ आपस में छू गईं। मुझे कुछ भी नया नहीं लगा, पर वह खाली गिलास पकड़कर खड़ी ही रही। मैंने देखा, उसकी नज़र बदली हुई थी। मैं बाहर निकल गया। मैं डर गया था। कुछ दिनों बाद वह पुन: इसी तरह आकर खड़ी हो गई। जाने का नाम न ले। मैं उठ खड़ा हुआ। वह मेरे साथ लग गई। फिर मुझे भी कुछ हो गया। मैंने उसे पकड़कर चूम लिया। वह खुश होकर चली गई। फिर मैं उससे डरने लग पड़ा था। मैं चाहता कि जब वह पानी लेकर आए तो मैं दफ्तर में अकेला न होऊँ। पर कभी ऐसी स्थिति बन ही जाती। अब जल्दी-जल्दी प्यार दर्शाते और बाहर निकल जाते।... जब भी मैं इसके बारे में सोचता तो मुझे अपने आप पर विश्वास न होता। दफ्तर की पिछली खिड़की खुली होती थी। बाहर के रास्ते में आवाजाही रहती थी। कोई भी झांक सकता था।... जब मुझे उसके साँसों की खुशबू, जिस्म की गंध का ख़याल आता था तो मैं सभी डर भूल जाता था। मैं स्वयं ही सूली पर चढ़ने का तैयार हो जाता था। एक बार सर्दियों के मौसम में हम दोनों कमरे में थे। कमरे की खिड़कियाँ-दरवाजे बन्द थे। हम बहुत बेकाबू हो गए। मैं भी सयाना न रहा। अच्छी न लगने वाली हरकतें करते रहे। जब हम बाहर निकले तो मैं बहुत शर्मशार था। मैं दूसरे अध्यापकों से बचता नलके पर जाकर हैंडिल चला चलाकर पानी निकालता रहा। छींटों से मेरी पेंट भीग गई। फिर मैं कितनी देर धूप में खड़ा उसे सुखाता रहा।
      यह लड़की सीधे तौर पर मेरी किसी भी कहानी में नहीं आई। वैसे टुकड़ा-टुकड़ा करके कई जगहों पर फिट होती रही है। या यह कह लें कि डर और आनन्द का मिला-जुला सुख उसका था जो अन्य पात्रों के बीच में जा घुसता था। वैसे भी ये पात्र या अनुभव बहुत निराले नहीं थे।
     
5. च्यूँटी काटना : एक लड़की दर्जियों या बढ़इयों की थी। बहुत बोलने और हँसने वाली। वह अपना दिल खुश रखने के लिए मेरे साथ हल्का मजाक कर लेती थी। जब मेरा विवाह हो गया तो वह बहुत मचल कर बोलने लग पड़ी। वह मेरी पत्नी के साथ मेरे प्यार की बातें इशारों में पूछा भी करती थी। पढ़ने में कमज़ोर थी। वह पाँचवी पास करके चली गई। फिर अक्सर जालंधर के रास्ते आती-जाती मिल जाती। साइकिलों पर जाते अक्सर हमारा सामना हो जाता। जब कभी मैं अकेला होता तो वह मुझे रोक कर बातें करती। मुझे लगता कि वह अल्प आयु में कितनी बातें जानती है। फिर वह शहर में रहने लग पड़ी। मुझे कभी बाज़ार शेखां में या जग्गू के चौक में मिलती तो उसकी बातों से लगता कि वह चाहती है कि मैं उसे जहाँ चाहूँ, ले जाऊँ। पर मैं इतना साहसी नहीं था।
      एकबार वह किसी बड़ी लड़की को संग लेकर मुहल्ला बिक्रमपुरे वाले मेरे घर आ गई। मेरी पत्नी गई हुई थी। मैं उन्हें अपने घर में न बिठा सका। उस घर में चार किरायेदार और रहते थे। मैं उनसे डर गया था। मैंने कहीं जाने का बहाना बना दिया। वह जाते समय मुझे च्यूँटी काट कर सीढ़ियाँ उतर गई।

6. कम बोलने वाली : मुझे उसका नाम ठीक से याद नहीं। मिस्त्रियों या किसी अन्य जाति की वह लड़की बहुत कम बोलती थी और पढ़ने में कमज़ोर थी। पाँचवी करके पढ़ना छोड़ दिया था। उसका छोटा भाई स्कूल में पढ़ता था। कभी कभार उसको देखने स्कूल में आ जाती थी। कभी मैं गाँव में किसी के घर जाता तो मिल जाती और नमस्ते कह देती थी।
      एक बार मेरी पत्नी बच्चा जन्मने अपने मायके चली गई। मैं पता नहीं किस बात पर शहर से ऊब गया था। मेरा दिल गाँव में रहने को किया। वैसे भी जब कभी मैं गाँव में ओम प्रकाश के घर ठहरता था तो मेरा जी किसी के कुओं-खेतों में जाने को किया करता था। खेती बाड़ी का काम करने को मन होता, पशुओं के साथ रहने को भी। मैं गाँव के एक बुज़ुर्ग जट्ट गुरदास सिंह रंधावा के कुएँ पर चला जाता था। उसने मुझे आने के लिए कई बार कहा था। वह भूतपूर्व फौजी बहुत सभ्य और सज्जन जट्ट था। मैं उसके कुएँ पर जाकर हल चलाकर देख लेता। कभी नाके छोड़ने की इच्छा पूरी कर लेता था।
      एक दिन मैंने निर्णय कर लिया, गाँव में रहने का। रहने के लिए एक खाली चौबारा मिल गया। उसके आगे मुंडेरों वाली जगह थी। मैंने चाय बनाने के लिए स्टोव रख लिया। सवेरे नाश्ता पंडित जी के घर करता था। दोपहर में छुट्टी करके शहर चला जाता था। शाम को सूर्यास्त से पहले गाँव लौट आता था। जहाँ एक लड़का मुझे गरम दूध की लुटिया दे जाता था और कोई एक पंडित जी के घर से लाकर रोटी पकड़ा जाता था। यह प्रबंध स्कूल के एक टीचर ने करवाया था। हमने दोनों को पैसे देना तय किया था। जब कभी मैं जल्दी शहर से आ जाता तो गाँव के पश्चिम दिशा की ओर चला जाता था। उधर बरानी(वह ज़मीन जिसमें खेती केवल बारिश के सहारे की जाती है) की फ़सलें हुआ करतीं। एक तरफ बहुत ऊँचा टीला था। उस पर रोड़ी और ठीकरे बिखरे हुए होते। निचली तरफ दरख्तों का झुरमुट-सा था। बीच में छोटा-सा पोखर था। मैं टीले पर बैठकर सूरज को डूबते देखता रहता था। मुझे अपने बचपन का गाँव भादसों याद आ जाता। वह भी ऊँचे टीले पर बसा हुआ था। मैं कितनी कितनी देर वहाँ बैठा रहता। कभी कोई बात सूझती तो काग़ज़ पर लिख लेता। वातावरण बहुत शायराना-सा लगता।
      एक बार मैं सरदार गुरदास सिंह रंधावा के साथ सूरा नुस्सी को विलायती मुर्गी के चूजे लेने चला गया। मैं भी उसकी देखा-देखी दस चूजे ले आया। एक लड़के ने मुझे अपने घर से जाली लगा खुड्डा-सा ला दिया। जब मैं गुरदास सिंह के घर से निकला तो किसी औरत ने मुझे मजाक में कोई बात कही। उस रात रोटी लाकर देने वाले लड़के की जगह वह लड़की आ गई। उसने मुझे बताया कि ताई या दादी ने मखौल में कहा था, ''मास्टर ने चूजे क्या ढूए में लेने हैं ?''
      मुझ पहली बार पता चला कि दुआबे में चुत्तड़ों को 'ढूए' कहते हैं। जब तक मैं रोटी खाता रहा, वह लड़की बोलती रही। उसने मुझे गाँव की बुरी या बदनाम औरतों और आदमियों के बारे में भी बता दिया। जिनमें से एक औरत ने तो थोड़े समय पहले हट्टी वाले को पकड़ लिया था। मैं 'हूँ-हूँ' करता रहा। वह बर्तन लेकर चली गई। उसका बाप स्वयं शहर में किसी टेलर मास्टर के पास नौकरी करता था।
      करीब पाँच दिन बाद वह फिर रोटी लेकर आई। वह अपने साथ पढ़ने के लिए एक किताब भी लाई थी। मैं रोटी खा बैठा तो वह किताब खोलकर बैठ गई। वह अंग्रेजी सीखना चाहती थी। बीच-बीच में वह मेरे बारे में बातें पूछती रही। मुझे बुरा लगा। जब मैं अपनी किताब निकालने के लिए अल्मारी की ओर हुआ तो वह मेरे साथ लगकर खड़ी हो गई। मैंने उसको दो बार सरसरी-सा चूमा। वह लिपटती चली गई। मैं डर गया। मैंने उसको सीढ़ियों में किसी की पदचापों का डर दिया। उसने तभी बर्तन उठा लिए।
      मैंने उसी दिन फैसला कर दिया, गाँव में न रहने का। दूसरे दिन मैं सारे चूजे 'ढूए' कहने वाली औरत के हवाले करके शहर चला गया।
      कुछ दिन बाद स्कूल में एक नया अनट्रेंड टीचर आ गया। उसको रहने के लिए चौबारा दिया गया। वह करीब तीन महीने वहाँ रहा। फिर शहर में किसी कम्पनी का सेल्ज़मैन लग गया। मुझे कभी-कभी मिलता। दुआ-सलाम होती। एक दिन उसने रुक कर मुझे बताया कि उसने तीन महीनों में तीन लोक देख लिए। पहले तो वह लड़की उसके पास पढ़ने के बहाने आकर कृपा कर जाती थी और फिर वह एक दूसरी लड़की को साथ ले आती थी। वह लड़की इतनी निडर थी कि सारे कपड़े उतार देती थी और जब भी वह कहता, जिस भी अंग को कहता, वह नंगा कर देती थी। परमात्मा जाने वह कितना सच कहता था और कितना झूठ।

7. गूंगा प्यार  : पहले बेटे के गुज़रने के बाद मैं थोड़ा उदास था। मुझे और मेरी पत्नी को बच्चों का बड़ा चाव था। स्कूल में गुरदास सिंह रंधावा की दोहती चौथी कक्षा में थी और दोहता पहली कच्ची में। उनका बाप किसी घरेलू झगड़े में मारा गया था। अब वे अपने ननिहाल में पलते थे। मुझे वे दोनों बच्चे बड़े प्यारे लगते थे। मैं अपने प्यार को कई गुप्त तरीकों से ज़ाहिर करता था। परन्तु मुझे लगता था कि कोई कसर रह जाती है। उनकी बड़ी बहन कालेज में पढ़ती थी। मैं उसके साथ भी बात करके खुश होता था। एक बार वह छोटा लड़का किसी के साथ जालंधर मेरे घर आया। मैंने उसे प्यार करते हुए छाती पर बिठा लिया। उसके साथ आई दो लड़कियाँ हैरान-सी होकर यह सब देखती रहीं। मुझे यही लगता रहा कि मेरे प्यार की भावना को कोई समझता नहीं। वह लड़का भी नहीं।

8. सिलाई टीचर : हमारा स्कूल छह-साल स्कूलों के लिए सेंटर स्कूल था। हर महीने वहाँ स्कूलों के टीचरों की बैठक होती थी। सेंटर हैड मास्टर अध्यक्षता करता था और मैं सचिव के तौर पर बैठक की कार्रवाई पंजाबी में लिखता था। बैठक में स्कूलों के आम मसलों के साथ-साथ कभी-कभी कोई टीचर शैक्षिक, सामाजिक या साहित्यिक लेख पढ़कर सुना देता था। चाय-पानी पर बहस की गरमा-गरमी होती और बैठक ख़त्म हो जाती थी। उन दिनों में स्कूलों में अध्यापिकाओं की भर्ती नई-नई होने लगी थी। वह भी बैठक में आतीं। नौजवान चुहलबाजी भी कर लेते थे। उन्हीं दिनों में सरकार ने सिलाई टीचर्स की अस्थाई भर्ती भी की थी। गाँव में सिलाई सिखाने वाली एक टीचर शहर से गाँव में आती-जाती मिला करती थी। कभी कहीं बातचीत भी हो जाती थी। वह हमारे तीन टीचरों के काफ़िले के साथ जाने लग पड़ी थी। असल में उसको राह में किसी ने छेड़ दिया था। उसे हमारे साथ की ज़रूरत थी। वह मेरे साथ बिकरमपुर, जहाँ मैं अपने परिवार के साथ रहता था, तक आती थी। फिर आगे चरंजीत पुरे की ओर निकल जाती थी।
      एक दिन वह मेरे साथ आकर मेरा घर भी देख गई। कहने लगी, कभी जल्दी आने पर मैं आपको बुला लिया करूँगी। उसको मेरी पत्नी ने आदर सहित चाय पिलाई।
      वह साथ आते-जाते बातें करती तो मुझे लगता कि मैं अभी भी खन्ना का ही हूँ, और यह पूरी जालंधरन है। वह कई खुली बातें कर जाती थी। वह स्वयं तो अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर उसके घर में कई लोग अफ़सर थे। जिसका मेरे पर प्रभाव पड़ता था।
      एक दिन हम जब टांडा रोड पर थे तो उसको मेरी बातों से पता चल गया था कि मैं आजकल अकेला हूँ। कहने लगी, ''मुझे तुम्हारे हाथ की कॉफी पीनी है।'' मैं डर गया कि दूसरी किरायेदार औरतें देखेंगी। पर मैं जबान न दे सका। वह मेरे साथ ही आ गई।
      जब हम सीढ़ियाँ चढ़े तो नीचे वाली सभी औरतों और लड़कियों ने हमें देखा। मैंने कमरे का ताला खोलकर उसको अन्दर बिठाया और स्वयं दूसरी तरफ बनी रसोई में कॉफी बनाने चला गया। वह अपना पर्स मेज़ पर रखकर मेरे पास ही आ गई। रसोई में कोई खिड़की नहीं थी। वह मेरे सिर पर खड़ी होकर बातें करती रही। बातें कैसी, दूसरे गाँव में जाती अध्यापिकाओं और अध्यापकों की। मैं 'हूँ-हाँ' करता रहा। कॉफी का दूध मिला पानी उबल कर बिखरने लगा तो उसने हाथ बढ़ाकर स्टोव बुझा दिया। हम इसी बात पर हँसते रहे। हँसने पर उसके अगले दाँत दिखाई देते थे और गालों में गड्ढ़ा पड़ता था। अकस्मात् मुझे कुछ हुआ और मैंने उसे पकड़कर उसके गालों पर चूम लिया। वह मुस्करा दी।
      हम कमरे में आकर कॉफी पीते हुए आँखों-आँखों में इस घटना पर हँसते रहे। मेरा हौसला बढ़ गया। मैं इशारों में उसको कमरे की ओट वाली जगह पर होने को कहा और उसे पकड़ने लगा। वह हँसते हुए मुझे रोकती भी रही और कुछ करने भी देती रही। इसी खींचतान में उसकी कमीज़ पीठ पर से फट गई। मैं डर गया। वह एक बार घबराई और फिर नार्मल होकर बोली, ''लाओ अब सुई-धागा।''
       मैं उसकी पीठ पीछे बैठकर उसकी कमीज़ को टांके भी लगाता रहा और साथ में सोचता भी रहा कि भविष्य में उसको घर आने से रोकूँ या नहीं। मैंने कहा, ''बड़ी गलती हो गई।''
      वह बोली, ''नहीं, कमीज़ बहुत पुरानी होकर घिस गई थी।...मैं घर पहुँचकर खुद ही फाड़ दूँगी।''
      जाते समय बोली, ''मुझे पैसे चाहिएँ आज।'' मैंने तनख्वाह न मिलने की बात बताई तो वह निराश होकर चली गई। मैं भी अड्डा होशियार पुर के करीब बने खेड़ा रेस्ट्रोरेंट की ओर चला गया। जहाँ कहानीकार दलजीत सिंह आया बैठा था। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने उसे देर होने का कारण बताते हुए सारी बात बताई तो वह 'झूठ...झूठ' कहता चाय पीता रहा। वह जिद्दी मेरी बात को कोरी कल्पना कहकर खारिज कर देता था।
      कुछ दिनों बाद वह लड़की इतवार को मेरे घर फिर आ गई। उसने नीचे पड़ा मेरा साइकिल देखा होगा। उसने बहुत कीमती साड़ी पहन रखी थी। उसमें से इत्र और पाउडर की खुशबू आ रही थी। मैं लेटे हुए किताब पढ़ रहा था। उसे देखते ही हड़बड़ाकर उठा। उसने हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया। मैंने पकड़ लिया। उसने दबा दिया। उन दिनों में सिर्फ़ कामरेड लड़कियाँ ही हाथ मिलाती थीं या गले लगती थीं। आम लड़कियाँ तो बात करने पर भी गुस्सा हो जाती थीं।
      मैंने उससे चाय-कॉफी पूछी। उसने इन्कार कर दिया। मुझे दिलजीत सिंह के आने का डर भी था और प्रतीक्षा भी। मैं उससे इस सच को मनवाना चाहता था। आराम से बैठकर उसने मुझसे कहा कि उसे पैसों की ज़रूरत है। पचास रुपये चाहिए। मैं हैरान था कि इतने खाते-पीते घर की लड़की को मेरे जैसे नंग मास्टर से पैसे मांगने की क्या ज़रूरत पड़ गई। वह बोली कि उसे किसी ज़रूरतमंद सहेली की ज़रूरत पूरी करनी है। यह बताते हुए उसने अपनी घड़ी उतार कर मेज़ पर रख दी।
      मैं उसकी रहमदिली पर पिघल गया। मैं उसी वक्त उसकी घड़ी उठाकर एक दोस्त के बडे भाई से पचास रुपये पकड़ लाया। वह लड़की की बात सुनकर ही खुश हो गया। उसने पचास रुपयों के साथ घड़ी भी लौटा दी। मैंने जब उस लड़की को पैसे दिए तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने मुझे प्यार से अपनी बांहों में ले लिया। जब मैंने मुँह आगे किया तो बोली, ''मेरा मेकअप खराब करोगे ?'' और चली गई।
      सोमवार को न वह जाती दिखी और न आती। फिर कभी भी न दिखाई दी। अपनी घड़ी लेने भी न आई। मैं उसको देखने उनके मुहल्ले चरंजीत पुरे भी चक्कर लगाता रहा। उनके मुहल्ले के एक परिचित व्यक्ति ने बताया कि वह इंग्लैंड चली गई है। जहाँ उसका विवाह हो जाएगा। 'रोते रहेंगे दिलों के जानी...' कहकर वह हँस पड़ा।
      दिलों के जानियों के रोने की बात तो ठीक थी उसकी। पर मुझे उसकी घड़ी के बदले पचास रुपये ले जाने वाली बात समझ में न आई। अब ख़याल आता है कि जितना कोई अमीर होता है, उसके खर्चे भी उतने ही अधिक होते हैं। उसकी ज़रूरतें भी उतनी ही बढ़ जाती हैं। तब मैं भी उसको एक लुच्ची लड़की समझता था। पर अब मुझे वह ठीक लगती है।
     
9. कोठे वालियाँ : मुझे नहीं पता कि हमारे देश के लोगों में औरतों की तेज़ भूख शान्त करने के लिए या उन्हें मानसिक रोगों का शिकार बनने से बचाने के लिए क्या करना चाहिए ? वेश्याएँ होनी चाहिएँ या नहीं ? मैं इसका उत्तर ठीक से नहीं दे सकता। पर मुझे स्वयं लगता रहा है कि वेश्याएँ और पुरुष वेश्याएँ होनी चाहिएँ। चाहे उनका स्वरूप कुछ और हो।... मुझे लगता है कि हमारे देश के बहुत से नौजवान लड़कों और लड़कियों की मानसिक बीमारियों का एक कारण कामेच्छा को दबाना और हिंदू शास्त्रों का यह विश्वास है कि हमें अपने आप को वीर्यपात से बचाना चाहिए। यदि यह स्खलन होता गया तो हमारा सबकुछ नष्ट हो जाएगा। फिर हमारे अन्दर कुछ भी नहीं बचेगा।
      मैं 25 वर्ष की उम्र में विवाह होने तक स्त्री की संगत नहीं कर सकता था। अवसर ही नहीं मिला था। स्त्री के पास खड़ा होने मात्र में डर लगने लग पड़ता था।... पहले अनुभव के बाद मैं वेश्याओं, पराई औरतों और मित्र स्त्रियों से मिला।... सबसे पहले मैं हरिद्वार की यात्रा से लौटते हुए रात को सहारनपुर के नख्खास बाज़ार में गया। तगड़ा होकर हर व्यक्ति का जायज़ा लिया। भरे जिस्म वाली एक कंजरी के पास भी गया। सुखद अनुभव हुआ। फिर दिल्ली और आगरा के बाज़ार भी देखे। बड़े अच्छे लगे।... परन्तु इस भूख का इलाज न हुआ।
      यह बात अधिक मानने वाली नहीं, पर मैंने धार्मिक स्थानों के साधू-आश्रमों में कामक्रीड़ा प्राय: होते देखी और की भी। मैंने इस कार्य को पाप नहीं माना या मैंने पापबोध से कम से कम अपने आप को मुक्त समझा। ऋषिकेश में मुझे एक साध्वी के साथ रासलीला रचने की खुशी प्राप्त हुई। इस काम का रूप-स्वरूप हालांकि धार्मिक-सा ही था। हम दोनों को या कम से कम मुझे भद्दा या गंदा कुछ भी नहीं लगा था। ये सारे अनुभव मेरी बहुत सारी कहानियों में किसी न किसी रूप में बिखरे पड़े हैं।
      ऐसे दूसरे कई अनुभव मैंने अपनी दूसरी पुस्तक 'कहानी का जन्म' में लिखे हैं, जिसमें 'अनुभव' और 'अनुभूति' के कहानी बनने की व्याख्या दर्ज़ है।
      यहाँ मैं सिर्फ़ इतना बताना चाहता हूँ कि 1969 से 1998 तक स्त्रियों के साथ मेरी मित्रता के मुझे सुखद अनुभव हुए, जिससे मेरी ज़िन्दगी का सारा दर्शन ही बदल गया। कहाँ मैं काम-तृप्ति के लिए शारीरिक क्रिया को ही सब कुछ मानता था और कहाँ वे अनुभव मुझे आत्मिक शक्ति के संसारों में ले गए। आत्मिक आनन्द कठिनाई से मिलता है।
      इन अनुभवों से मेरी सृजन का रंग ही बदल गया। उस औरत से मेरी संगत बहुत लम्बे समय के लिए रही। वह अधिक समझदार और बंधन-मुक्त थी। उसके अन्य सुखों के अलावा मुझे एक लाभ यह मिला था कि उसकी सहेलियाँ भी उच्च विद्या और सामाजिक रुतबे वाली थीं। वे कहानियों की अच्छी पारखी थीं। मैं हर कहानी पहले उसको पढ़वाता था। उसकी राय मूल्यवान होती थी। मैं उसकी सलाह से अपनी कहानियाँ संसोधित कर लेता था। उसके साथ मेरा संबंध बहुत उलझा हुआ था। उसका अपना अहं बहुत ऊँचा था। हम बहस करते करते झगड़ भी पड़ते थे। मैं इस मोड़ पर बचने के लिए बहस छोड़ देता था।
      हमारे दो तरफ़ी या बनते-बिगड़ते संबंधों ने मुझे बहुत सी कहानियाँ दीं। पर मुझे कहानी लिखने के लिए उकसाती वही स्त्री थी, जो कम समय के लिए मेरी ज़िन्दगी में आई थी। कभी दोनों की टक्कर में से नया पात्र जन्म ले लेता था। कभी कई स्त्रियों का एक पात्र बन जाता था। कोई एक स्त्री मेरे जेहन पर सवार थी। उसके इतने विराट रूप मुझे दिखाई देते रहते थे कि कुछ ही समय बाद नई कहानी का सृजन हो जाता था। पहली दसेक कहानियों में एक पात्र भारी रहा। फिर उसके रूप बदलते चले गए। इस काम में मेरी और मुझसे मिलने वाली स्त्रियों की बढ़ती आयु, बदलती सोच, मानसिक शक्तियाँ और कमज़ोरियाँ का प्रभाव भी था जो प्रभावित करता रहा। यह क्रिया कैसे चलती थी, इसके बारे में कुछ संकेत आपको इस पुस्तक में 'मेरी कहानियों के बीज' वाले हिस्से में मिल सकते हैं।

धार्मिक संस्कार
मेरे दादा जी और दादी सनातन धर्मी हिंदू थे। पर मेरे पिता जी के विचार आर्य स्कूल में पढ़ते हुए बदल गए थे। वह आर्य समाजी बन गए थे। इस हद तक कट्टर कि मेरी दादी अपना सनातनी धर्म निभाते हुए जो भी धर्म-कर्म करती थी, मेरे पिता जी उसमें विघ्न डालकर खुश होते थे। माँ अधबीच में थी। आधी पति के साथ और चोरी चोरी सास के साथ। मेरी ननिहाल वाले भी आर्य समाजी थे। पर स्त्रियाँ जब माँएँ बनती हैं तो मोह की मारी वहमों-भरमों को अधिक मानने लग पड़ती हैं।
(जारी)

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पंजाबी उपन्यास




बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की पाँचवीं किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


                                    7   

गुलाब को याद आया कि उसका एक मामा फौज में सूबेदार था। यह मामा उनके पास ही रहा था और पढ़ा था। इसलिए उसका उसके बापू और माँ से प्यार भी बहुत था। यदि वह पढ़ा न होता तो शायद फौज में सूबेदार न होता। खेती करता या डाके डालने लगता। बचपन से लेकर बड़े होने तक वह कभी किसी से मार खाकर नहीं आया था, अपितु दूसरे को पीटकर ही आया था। फौजी जीवन उसके अन्दर कुछ एकसारता-सी ले आया था और वह हर वर्ष उन्हें गाँव में मिलने अवश्य आता और उसकी प्रतीक्षा भी घर में बड़े चाव के साथ हुआ करती थी।
      जब हम मरते-खपते सच्चा सौदा कैम्प में पहुँच गए थे तो वह हमारा मामा बावर्दी फौजी सिपाहियों के साथ मशीन गनें और बन्दूकें लेकर हमें गाँव में से ले जाने के लिए आया था। लेकिन स्टेशन पर उतरते ही उसे पता चल गया था कि गाँव तो कई दिनों का खाली हो चुका था। घरबार लूटे जा चुके थे और गुरुद्वारा ढाह दिया गया था और कई घरों को भी आग लगाकर राख कर दिया गया था।
      महीना भर हम सच्चा सौदा कैम्प में भटकते रहे। यहाँ करीब छह लाख हिंदू-सिक्ख बैठा था जिसके रसद-पानी का किसी सरकार की ओर से कोई प्रबंध नहीं था। रात-बेरात हथियारबंद होकर लोग समीप के गाँवों में जाते और गेहूं आदि उठाकर कैम्प में आ घुसते। कई लोग मुसलमान मिलिट्री की गोलियों का निशाना बन गए। मुसलमान मिलिट्री के अनुसार वे अपने बाल-बच्चों के लिए अन्न-पानी का प्रबंध करने के लिए नहीं जाते थे, अपितु वारदात करने जाते थे। अधिकांश लोग भूखे ही सो रहते।
      जीवन के इन बहुत कठिन पलों में भी कभी-कभी कोई बात रंगीन बनकर घटित हो जाती।
      जिन लोगों की बहन-बेटियों को मुसलमान उठाकर ले गए थे, या जो काट-पीट दी गई थीं, उन दुर्घटनाओं की वजह से कई लोगों ने अपनी जवान बेटियों और बहनों के विवाह कैम्प में ही कर दिए।
      ये विवाह भी कैसे विवाह थे ! कोई बारात नहीं चढ़ती थी, कोई शहनाई नहीं बजती थी, कोई जयमाला नहीं होती थी, कोई मिलनी भी नहीं। कोई सेहरा नहीं पढ़ा जाता था, कोई शिक्षा नहीं दी जाती थी। कोई सेहरा नहीं बांधता था। कोई दहेज नहीं देता था। कोई द्वार पर तेल नहीं चुआता था। सिर पर से न्योछावर करने की कोई रस्म नहीं होती थी। कोई मजाक नहीं होता था, सालियाँ कोई छंद नहीं सुनती थीं। कोई गीत नहीं गाता था और फिर भी विवाह हो जाते थे। कोई सेज नहीं होती थी, न कोई सुहागरात। कोई कड़ाह-पूरी नहीं था और माँ-बाप समझते थे कि उन्होंने अपनी जवान बेटी की चिंता गले से उतार कर किसी जवान के गले में डाल दी थी !
      इन कैम्पों में विवाह-शादियों के साथ-साथ चोरियाँ भी हो जाती थीं। परन्तु इन चोरियों का फ़ैसला कोई पंचायत नहीं कर सकती थी। कोई रपट-पर्चा थाने नहीं पहुँचता था। लोग कहते थे कि पाकिस्तान बनने से धर्म-ईमान का सत्यानाश हो गया था।
      ज़मीन पर सोने से, कई-कई दिनों तक न नहाने से सिरों में जुएँ पड़ गई थीं। कहीं से सिर धोने के लिए साबुन और पानी नहीं मिलता था। बाल संवारने के लिए कंघी नहीं मिलती थी। अक्सर मैं अपनी छोटी बहन को बगल में उठाये खिलाता रहता और गाँव लौट जाने की बातें सोचता रहता। पर दु:खों की इस लम्बी कहानी का कोई अन्त नहीं था। छह लाख लोगों को गाड़ियों, ट्रकों के द्वारा रातोंरात हिंदुस्तान पहुँचा देना कोई सरल बात नहीं थी। कई बार बलौच मिलिट्री की वहाँ से गुज़रती गाड़ियों ने मनमाने ढंग से कैम्पों में बैठे शरणार्थियों पर अंधाधुंध गोलियाँ बरसाईं और सैकड़ों, हज़ारों को मौत की गोद में सुला दिया।
      एक रात हम करीब चौदह लोग रेलगाड़ी के इंजन के अगले बढ़े हुए छज्जे पर बैठकर दो रातों और दो दिनों में भारत की सरहद के अन्दर पहुँच गए। सच्चा सौदा रेलवे स्टेशन पर शेखूपुरा, शाहदरा, लाहौर, मुगलपुरा और कसूर तक हमें चार बार गाड़ी बदलनी पड़ी। कई बच्चे पानी के अभाव में प्यासे मर गए। जब फ़ीरोजपुर छावनी के कैम्प में पहुँचे तो वहाँ हैजा फैला हुआ था। हैजे के साथ ही बाढ़ का प्रकोप और कैम्प ढह गए। इस बाढ़ ने धकेल कर हमें बठिंडा पहुँचा दिया, जहाँ मैंने पहली बार बड़ा किला देखा और देखे - गहरे कुएँ। इसके बाद नित्य नए दु:खों के किले और मुसीबतों के कुएँ देखना आम जीवन का एक हिस्सा बन गया था। छह महीने की भटकन के बाद बठिंडा ज़िला के एक गाँव में कच्ची ज़मीन अलॉट हो गई। इन छह महीनों में घरवाले मुझे एक जूती तक न लेकर दे सके। और इसमें कोई हैरानी की बात नहीं थी कि मैंने पौह माह की ठंड के दिनों में नंगे पैर ही जाड़ा बिता लिया। कभी-कभी माँ नंगे पैरों को अपनी गालों से लगाकर रोने लग पड़ती। मेरी कमीज़ भी पूरी तरह फट गई थी और पगड़ी तार तार हो गई थी।
      शायद हुकूमत हमारे फटे कपड़े और भूखे पेटों का इलाज करने के लिए कुछ कर रही थी। माँ अक्सर बापू को क्लेम भरने और कुछ करने के लिए कहती रहती और बापू चुपचाप सुनता रहता। जब वह फिर भी कहने से न हटती तो बापू की आँखों में गुस्सा आ जाता। उसके होंठ फड़कने लगते और नाक सिकुड़-सी जाती। वह करवट बदलकर धीमे स्वर में कहने लगता, ''अगर हकूमत हमारे टुकड़े टुकड़े हुए दिलों को नहीं सी सकती और हमारे बीते हुए दिन नहीं लौटा सकती तो क्लेम करके भी क्या करना है ?''
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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