संपादकीय

>> शनिवार, 12 मई 2012










पंजाबी की नई कथा-पीढ़ी : अपार सम्भावनाएँ
किसी भी भाषा के साहित्य को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी नई पीढ़ी के लोगों पर टिकी होती है…पर प्रश्न यह है कि नई पीढ़ी में कितने युवाओं को अपनी माँ-बोली और साहित्य से प्रेम है। वैश्वीकरण और बाज़ारवाद के इस दौर ने सबसे अधिक युवा पीढ़ी का जो नुकसान किया है, वह है उसे उसकी अपनी भाषा, संस्कृति और साहित्य से दूर किया जाना… रोजगार की अनिश्चिता से युवा पीढ़ी का हर नौजवान भयभीत है… उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवान भी अपनी जवानी और अपनी ऊर्जा पैकजों में खपा रहे हैं और दुख की बात यह है कि रोजगार के स्थायीत्व का कोई भरोसा नहीं है। विश्वस्तर पर चलती मंदी के चलते कब, किस समय उन पर गाज गिर जाए, कोई नहीं जानता। ऐसे अनिश्चित और भय भरपूर भविष्य वाले समय में नौजवान पीढ़ी में से जब कुछ नौजवान अपनी तमाम चिंताओं, संघर्षों के बीच जब अपनी भाषा और साहित्य में रूचि दिखलाते हैं तो नि:संदेह एक सुखद अनुभूति का होना एक स्वाभाविक बात है… पंजाबी कहानी की एक मजबूत विरासत रही है…अग्रज लेखकों ने पंजाबी कहानी को एक मजबूत आधार दिया है… अनेक नाम हैं… यही मजबूत विरासत नये लोगों को अपनी ओर खींचती रही है। पर नौजवान पीढ़ी के सामने अपने समय का कटु यथार्थ होता है जिससे जूझता हर नया लेखक अपनी एक नई दृष्टि विकसित करता है और जब वह लेखन में उतरता है तो विरासत में मिले खजाने से आगे जाने की ललक भी उसकी आँखों में होती है। यह खुशी की बात है कि पंजाबी की नई कथा पीढ़ी के लेखक महज शौकिया लेखन नहीं कर रहे हैं, वह लेखन के महत्व को गंभीरता से समझते हैं और अपने समय और समाज की सच्चाइयों से जूझते हुए कुछ नया और हटकर सृजित करना चाहते हैं। जिंदर, तलविंदर, सुखजीत, जतिंदर सिंह हांस, अजमेर सिद्धू, देसराज काली, जसवीर सिंह राणा, बलजिंदर नसराली, वीना वर्मा, सुरिन्दर नीर, भगवंत रसूलपुरी, गुरमीत कड़ियालवी, बलदेव सिंह धालीवाल, गुलजार मुहम्मद गौरिया, महिंदर सिंह कांग, केसरा राम, अनेमन सिंह, कुलवंत गिल, बलविंदर सिंह बराड़ कुछ ऐसे ही नाम हैं जो अपनी रचनाशीलता से पंजाबी की नई कहानी को एक नया मुकाम देने की कोशिश में संलग्न दीखते हैं।  
 हिंदी की प्रसिद्ध कथा पत्रिका कथादेश का जब जुलाई 2000 में पंजाबी कहानी विशेषांक आया तो उसमें मेरी यह पूरी कोशिश रही थी कि यदि पंजाबी कहानी का मुकम्मल चेहरा हिंदी पाठकों के सम्मुख रखना है तो पुरानी अग्रज पीढ़ी के कथाकारों के साथ-साथ बिल्कुल नई पीढ़ी के कथाकारों की कहानियों को भी शामिल किया जाए। तब देशराज काली, जिंदर, सुखजीत, भगवंत रसूलपुरी, बलदेव सिंह धालीवाल, अजमेर सिद्धू, गुरमीत कड़ियालवी, तलविंदर सिंह, अवतार सिंह बिलिंग, बलजिन्दर नसराली, वीना वर्मा की कहानियों को पाठकों ने बहुत पसन्द किया था। अभी हाल में कथादेश(मई 2012) का भारतीय किसान समस्या पर एक अंक संपादित होकर आया है जिसका अतिथि संपादन सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने किया है। इस अंक में भी पंजाबी की नई कथा पीढ़ी के दो लेखकों बलजिंदर नसराली और बलविंदर सिंह बराड़ -  की पंजाब के किसान संकट पर लिखी गई दो कहानियों का हिंदी अनुवाद[अगर अपनी व्यथा कहूँ और सन्नाटा] प्रकाशित हुआ है जो यह सिद्ध करता है कि पंजाबी की नई कथा-पीढ़ी अपने समय और सरोकारों से जूझते हुए कितनी चैतन्य और जागरूक है।
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इस अंक में आप पढ़ेंगे
-पंजाबी कहानी : आज तक के अन्तर्गत पंजाबी के इसी प्रख्यात लेखक संतोख सिंह धीर की प्रसिद्ध कहानी कोई एक सवार
-पंजाबी कहानी : नये हस्ताक्षर के अन्तर्गत बलजिंदर नसराली की कहानी अगर अपनी व्यथा कहूँ
-आत्मकथा/स्व-जीवनी के अन्तर्गत पंजाबी के वरिष्ठ लेखक प्रेम प्रकाश की आत्मकथा आत्ममाया को अगली किस्त, और
-बलबीर मोमी के उपन्यास पीला गुलाब की अगली किस्त…

आप के सुझावों, आपकी प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी…
सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब  

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पंजाबी कहानी : आज तक





पंजाबी कहानी : आज तक(9)






संतोख सिंह धीर
जन्म : 2 दिसम्बर 1920, निधन : 8 फरवरी 2010

पंजाबी के अग्रणी कथाकारों में एक उल्लेखनीय नाम। मानवतावाद और लोकहित इनके लेखन का केन्द्र रहा। कविता, उपन्यास, कहानी, यात्रा संस्मरण आदि पर 50 से अधिक पुस्तकों के रचयिता। अनेक अविस्मरणी कहानियों के इस लेखक के आठ कहानी संग्रह, बारह कविता संग्रह, छह उपन्यास के साथ-साथ यात्रावृत्त और आत्मकथा भी प्रकाशित। कहानी संग्रहों में 'सिट्टियां दी छां-(1950), 'सवेर होण तक'(1955), 'सांझी कंध'(1958), 'शराब दा गिलास'( 1970), 'उषा भैण जी चुप हन'(1991) और 'पक्खी'(1991) प्रमुख हैं। 'पक्खी' कहानी संग्रह पर वर्ष 1996 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने के साथ-साथ अनेक दर्जनों पुरस्कारों द्वारा नवाजे गए। 'सांझी कंध', 'सवेर होण तक', 'कोई एक सवार', 'मेरा उजड़िया गवांडी', 'मंगो' आदि उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ हैं।


कोई एक सवार
संतोख सिंह धीर
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव





सूरज उगते ही बारू तांगेवाले ने तांगा जोड़कर अड्डे पर लाते हुए हाँक लगाई, ''है कोई एक सवार खन्ने का भई...''
      जाड़ों में इतने सवेरे संयोग से ही कोई सवार आ जाए तो आ जाए, नहीं तो रोटी-टुक्कड़ खाकर धूप चढ़े ही घर के बाहर निकलता है आदमी। पर बारू इस संयोग को भी क्यों गंवाये ? जाड़े से ठिठुरते हुए भी वह सबसे पहले अपना तांगा अड्डे पर लाने की सोचता था।
      बारू ने बाजार की ओर मुँह करके ऐसे हाँक लगाई जैसे उसे केवल एक ही सवारी चाहिए थी। किन्तु बाजार की ओर से एक भी सवार नहीं आया। फिर उसने गाँवों से आने वाली अलग-अलग पगडंडियों की ओर आँखें उठाकर उम्मीद में भरकर देखते हुए हाँक लगाई। न जाने कभी-कभी सवारियों को क्या साँप सूँघ जाता है। बारू सड़क के एक किनारे बीड़ी-सिगरेट बेचने वाले के पास बैठकर बीड़ी पीने लगा।
      बारू का चुस्त घोड़ा निट्ठला खड़ा नहीं हो सकता था। दो-तीन बार घोड़े ने नथुने फुलाकर फराटे मारे, पूँछ हिलाई और फिर अपने आप ही दो-तीन कदम चला। ''बस ओ बस बेटे, बेचैन क्यों होता है, चलते हैं। आ जाने दे किसी आँख के अन्धे और गाँठ के पूरे को।'' अपनी मौज में हँसते हुए बारू ने दौड़कर घोड़े की बाग पकड़ी और उसे कसकर तांगे के बम पर बाँध दिया।
      स्टेशन पर गाड़ी ने सीटी दी। रेल की सीटी बारू के दिल में जैसे चुभ गई। उसने रेल को भी माँ की गाली दी और साथ में रेल बनाने वाले को भी। पहले जनता गई थी, अब मालगाड़ी। ''साली घंटे घंटे पर गाड़ियाँ चलने लगीं।'' और फिर बारू ने ज़ोर से सवारी के लिए आवाज़ लगाई।
      एक बीड़ी उसने और सुलगाई और इतना लम्बा कश खींचा कि आधी बीड़ी फूँक दी। बारू ने धुएँ के फराटे छोड़ते हुए बीड़ी को गाली देकर फेंक दिया। धुआँ उसके मुँह में मिर्च के समान लगा था।
      घोड़ा टिककर नहीं खड़ा हो पा रहा था। उसने एक दो बार खुर उठा-उठाकर धरती पर मारे। मुँह में लोहे की लगाम चबा-चबाकर थूथनी घुमाई। तांगे की चूलें कड़कीं, साज हिला, परों वाली रंग-बिरंगी कलगी हवा में फरफराई और घोड़े के गले से लटके रेशमी रूमाल हिलने लगे। बारू को अपने घोड़े की चुस्ती पर गर्व हुआ। उसने होंठों से पुचकारकार कहा, ''बस, ओ बदमाश ! करते हैं अभी हवा से बातें...''
      ''घोड़ा तेरा बड़ा चेतन है बारू। उछलता-कूदता रहता है।'' सिगरेट वाले ने कहा।
      ''क्या बात है !'' बारू गर्व से भरकार बोला, ''खाल तो देख तू, बदन पर मक्खी फिसलती है। बेटों की तरह सेवा की जाती है, नत्थू।''
      ''जानवर बचता भी तभी है,'' नत्थू ने विश्वास से कहा।
     
      दिन अच्छा चढ़ आया था, पर खन्ना जाने वाली एक सवारी भी अभी तक नहीं आई थी। और भी तीन-चार तांगे अड्डे पर आकर खड़े हो गए थे और कुन्दन भी सड़क की दूसरी ओर खन्ना की दिशा में ही तांगा खड़ा करके सवारियों के लिए आवाजें लगा रहा था।
      हाथ में झोला पकड़े हुए एक शौकीन बाबू बाजार की ओर से आता हुआ दिखाई दिया। बारू उसकी चाल पहचानने लगा। बाबू अड्डे के और निकट आ गया, पर अभी तक उसके पैरों ने किसी एक तरफ का रुख नहीं किया था।
      ''चलो, एक सवारी सरहिन्द की... कोई मलोह जाने वाला भाई...'' आवाजें ऊँची होने लगीं। पर सवार की मर्जी का पता नहीं लगा। बारू ने खन्ने की आवाज़ लगाई। सवारी ने सिर नहीं उठाया। ''कहाँ जल्दी मुँह से बोलते हैं ये जंटरमैन आदमी'' बारू ने अपने मन में निन्दा की। तभी बाबू बारू के तांगे के पास आकर खड़ा हो गया।
      ''और है भई कोई सवारी ?'' उसने धीरे से कहा।
      बारू ने अदब से उसका झोला थामना चाहते हुए कहा, ''आप बैठो बाबूजी आगे... अभी हाँके देते हैं, बस एक सवारी ले लें।''
      पर बाबू ने झोला नहीं थमाया और हवा में देखते हुए चुपचाप खड़ा रहा। यूँ ही घंटा भर तांगे में बैठे रहने का क्या मतलब ?
      बारू ने ज़ोर से एक सवारी के लिए हाँक लगाई जैसे उसे बस एक ही सवारी चाहिए थी। बाबू ज़रा टहल कर तांगे के अगले पायदान के थोड़ा पास को हो गया। बारू ने हौसले से एक हाँक और लगाई।
      बाबू ने अपना झोला तांगे की अगली गद्दी पर रख दिया और खुद पतलून की जेबों में हाथ डालकर टहलने लगा। बारू ने घोड़े की पीठ पर प्यार से थपकी दी और फिर तांगे की पिछली गद्दियों को यूँ ही ज़रा ठीक-ठाक करने लगा। इतने में एक साइकिल आकर तांगे के पास रुक गई। थोड़ी-सी बात साइकिल वाले ने साइकिल पर बैठे-बैठे उस बाबू से की और वह गद्दी पर से अपना झोला उठाने लगा। बारू ने डूबते हुए दिल से कहा, ''हवा सामने की है बाबूजी'', पर साइकिल बाबू को लेकर चलती बनी।
      घुटने घुटने दिन चढ़ आया।
      ढीठ-सा होकर बारू फिर सड़क के एक किनारे सिगरेट वाले के पास बैठ गया। उसका जी कैंची की सिगरेट पीने को किया। पर दो पैसे वाली सिगरेट अभी वह किस हिम्मत से पिये ? फेरा आज मुश्किल से एक ही लगता दीखता था। चार आने सवारी है खन्ने की, छह सवारियों से ज्यादा का हुकम नहीं है। तीन रुपये तो घोड़े के पेट में पड़ जाते हैं। उसके मन में उठा-पटक होने लगी। ऐसे वहाँ वह क्यों बैठा रहे ? वह उठकर तांगे में पिछली गद्दी पर बैठ गया, ताकि पहली नज़र में सवारी को तांगा बिल्कुल खाली न दिखाई दे।
      तांगे में बैठा वह 'लारा लप्पा... लारा लप्पा' गुनगुनाने लगा। और फिर हीर का टप्पा। पर जल्दी ही उसके मन में बेचैनी-सी होने लगी। टप्पे उसके होंठों को भूल गए। वह दूर फसलों की ओर देखने लगा। खेतों में बलखाती पगडंडियों पर कुछ राही चले आ रहे थे। बारू ने पास आते हुए राहियों की ओर ध्यान से देखा। चारखाने सफेद चादरों की बुक्कल मारे चार जाट-से थे। बारू ने सोचा, पेशी पर जाने वाले चौधरी ऐसे ही होते हैं। उसने तांगे को मोड़ कर उनकी ओर जाते हुए आवाज़ दी, ''खन्ने जाना है, नम्बरदार ? आओ बैठो, हाँके फिर।''
      सवारियाँ कुछ हिचकिचाई और फिर उनमें से एक ने कहा, ''जाना तो है अगर इसी दम चला।''
      ''अभी लो, बस बैठने की देर है...'' बारू ने घोड़े के मुँह के पास लगाम थाम कर तांगे का मुँह अड्डे की ओर घुमा लिया।
      ''तहसील पहुँचना है हमें, पेशी पर, समराले।''
      ''मैंने कहा, बैठो तो सही, दम के दम में चले।''
      सवारियाँ तांगे में बैठ गईं। 'एक सवार' की हाँक लगाते हुए बारू ने तांगे को अड्डे की ओर चला लिया।
      ''अभी एक और सवारी चाहिए ?'' उनमें से एक सवारी ने तांगे वाले से ऐसे कहा जैसे कह रहा हो - आख़िर तांगेवाला ही निकला।
      ''चलो, कर लेने दो इसे भी अपना घर पूरा...'' उन्हीं में से एक ने उत्तर दिया, ''हम थोड़ा देर से पहुँच जाएँगे।''
      अड्डे से बारू ने तांगा बाजार की ओर दौड़ा लिया। बाजार के एक ओर बारू ने तांगे के बम पर सीधे खड़े होकर हाँक लगाई, ''जाता है, कोई अकेला सवार खन्ने भाइयो...''
      ''अकेले सवार को लूटना है राह में ?'' बाजार में किसी ने ऊँची आवाज़ में बारू से मजाक किया।
       बाजार में ठठ्ठा हो उठा। बारू के सफेद दाँत और लाल मसूड़े दिखने लगे। उसके गाल फूल कर चमक उठे और हँसी में हँसी मिला कर सवार के लिए हाँक लगाते हुए उसने घोड़ा मोड़ लिया। अड्डे आकर सड़क के किनारे खन्ना की दिशा में तांगा लगाया और खुद सिगरेट वाले के पास आकर बैठ गया।
      ''की न वही बात...'' तांगे वाले को ऐसे आराम से बैठे देखकर एक सवार बोला।
      ''ओ भई तांगेवाले ! हमें अब ऐसे हैरान करोगे ?'' एक और ने कहा।
      ''मैंने कहा, हमें रुकना नहीं है नम्बरदार। बस, एक सवार की बात है। आग गया तो ठीक, नहीं, चल पड़ेंगे।'' बारू ने दिलजोई की।
      सवारियों को परेशान देखकर, कुन्दन ने अपने तांगे को एक कदम और आगे करते हुए हाँक दी, ''चलो, चार ही सवारी लेकर जा रहा है खन्ने को...'' और वह चिढ़ाने के लिए बारू की ओर टुकर-टुकर देखने लगा।
      ''हट जा ओए, हट जा ओ नाई के... बाज आ तू लच्छनों से'' बारू ने कुन्दन की ओर आँखें निकालीं और सवारियों को बरगलाये जाने से बचाने के लिए आती हुई औरतों और लड़कियों की एक रंग-बिरंगी टोली की ओर देखते हुए कहा, ''चलते हैं, सरदारो, हम अभी बस। वो आ गई सवारियाँ।''
      सवारियाँ टोली की ओर देखकर फिर टिक कर बैठी रहीं।
      टोली की ओर देखते हुए बारू सोचने लगा, शायद ब्याह-गौने के लिए सजधज कर निकली हैं ये सवारियाँ। दो तांगे भर लो चाहे, नांवा भी अच्छा बना जाती हैं ऐसी सवारियाँ।
      टोली पास आ गई।
      कुछ औरतों और लड़कियों ने हाथों में कपड़ों से ढकी हुई टोकरियाँ और थालियाँ उठाई हुई थीं। पीछे कुछ घूँघट वाली बहुएँ और छोटी-छोटी लड़कियाँ थीं। बारू ने आगे बढ़कर बेटों जैसा बेटा बनते हुए एक औरत से कहा, ''आओ माई जी, तैयार है तांगा, बस तुम्हारा ही रस्ता देख रहा था। बैठो, खन्ने को...।''
      ''अरे नहीं भाई...'' माई ने सरसरी तौर पर कहा, ''हम तो माथा टेकने जा रही है, माता के थान पर...''
      ''अच्छा, माई अच्छा।'' बारू हँसकर कच्चा-सा पड़ गया।
      ''ओ भई चलेगा या नहीं ?'' सवारियों में कहीं सब्र होता है। बारू भी उन्हें हर घड़ी कैसी-कैसी तरकीबों से टाले जाता। हार कर उसने साफ बात की, ''चलते हैं बाबा, आ लेने दो एक सवार, कुछ भाड़ा तो बन जाए।''
      ''तू अपना भाड़ा बना, हमारी तारीख निकल जाएगी।'' सवारियाँ भी सच्ची थीं।
      कुन्दन ने फिर छेड़ करते हुए सुनाकर कहा, ''सीधे होते हैं कोई-कोई लोग। कहाँ फंस गए, पहली बात तो यह अभी चला ही नहीं रहा है। चला भी तो कहीं रास्ते में औंधा पड़ जाएगा, कदम-कदम पर तो अटकता है घोड़ा।''
      सवारियाँ कानों की कच्ची होती हैं। बारू को गुस्सा आ रहा था। पर वह छेड़ को अभी भी झेलता हुआ कुन्दन की ओर कड़वाहट से देखकर बोला, ''नाई, ओ नाई, तेरी मौत बोल रही है। गाड़ी तो संवार ला पहले माँ से जा के, ढीचकूँ ढीचकूँ करती है, यहाँ खड़ा क्या भौंके जा रहा है कमजात !''
      लोग हँसने लगे, पर जो दशा बारू की थी, वही कुन्दन और दूसरे तांगेवालों की थी। सवारियाँ किसे नहीं चाहिएँ ? किसे घोड़े और कुनबे का पेट नहीं भरना है ? न बारू खुद चले, न किसी और को चलने दे, सबर भी कोई चीज़ है। अपना अपना भाग्य है। नरम-गरम तो होता ही रहता है। चार सवारियाँ लेकर ही चला जाए। किसी दूसरे को भी रोजी कमाने दे। कम्बख्त पेड़ की तरह रास्ता रोके खड़ है। कुन्दन ने अपनी जड़ पर आप ही कुल्हाड़ी मारते हुए खीझ कर हाँक लगाई, ''चलो, चार सवारियाँ लेकर ही जा रहा है खन्ने को बम्बूकाट... चलो, जा रहा है मिनटों-सेंकिंडों में खन्ने... चलो, भाड़ा भी तीन-तीन आने...।'' और तांगा उसने कदम और आगे कर दिया।
      बारू की सवारियाँ पहले ही परेशान थीं। और सवारियाँ किसी की बंधी हुई भी नहीं होतीं। बारू की सवारियाँ बिगड़कर तांगे में से उतरने लगीं।
      बारू ने गुस्से में ललकार कर कुन्दन को माँ की गाली दी और अपनी धोती की लांग मारकर कहा, ''उतर बेटा नीचे तांगे से...''
      कुन्दन, बारू को गुस्से में तना हुआ देखकर कुछ ठिठक तो गया, पर तांगे से नीचे उतर आया और बोला, ''मुँह संभाल कर गाली निकालियो, अबे कलाल के...।''
      बारू ने एक गाली और दे दी और हाथ में थामी हुई चाबुक पर उंगली जोड़ कर कहा, ''पहिये के गजों में से निकाल दूँगा साले को तिहरा करके।''
      ''तू हाथ तो लगाकर देख...'' कुन्दन भीतर से डरता था, पर ऊपर से भड़कता था।
      '', मैंने कहा, मिट जा तू, मिट जा नाई के। लहू की एक बूँद नहीं गिरने दूँगा धरती पर, सारा पी जाऊँगा।'' बारू को खीझ थी कि कुन्दन उसे क्यों नहीं बराबर की गाली देता।
      सवारियाँ इधर-उधर खड़ीं दोनों के मुँह की ओर देख रही थीं।
      ''तुझे मैंने क्या कहा है ? तू नथुने फुला रहा है फालतू में।'' कुन्दन ने ज़रा डटकर कहा।
      ''सवारियाँ पटा रहा है तू मेरी।''
      ''मैं सवेरे से देख रहा हूँ तेरे मुँह को, चुटिया उखाड़ दूँगा।''
      ''बड़ा आया तू उखाड़ने वाला।'' कुन्दन बराबर जवाब देने लगा।
      ''मेरी सवारियाँ बिठाएगा तू ?''
      ''हाँ, बिठाऊँगा।''
      ''बिठा फिर...'' बारू ने मुक्का हवा में उठा लिया।
      ''आ बाबा...'' कुन्दन ने एक सवार को कन्धे से पकड़ा।
      बारू ने तुरन्त कुन्दन को कुरते के गले से पकड़ लिया। कुन्दन ने भी बारू की गर्दन के गिर्द हाथ लपेट लिए। दोनों उलझ गए। 'पकड़ो-छुड़ाओ' होने लगी। अन्त में दूसरे तांगेवाले और सवारियों ने दोनों को छुड़ा दिया और अड्डे के ठेकेदार ने दोनों को डाँट-डपट दिया। सबने यही कहा कि सवारियाँ बारू के तांगे में ही बैठें। तीन आने की तो यूँ ही फालतू बात है - न कोई लेगा, न कोई देगा। कुन्दन को सबने थोड़ी फटकार-लानत बता दी। और सवारियाँ फिर से बारू के तांगे मे बैठ गईं।
      बारू को परेशान और दुखी-सा देखकर सबको अब उससे हमदर्दी-सी हो गई थी। सब मिल-जुलकर उसका तांगा भरवाकर रवाना करवा देना चाहते थे। सवारियों ने भी कह दिया - चलो, वे और घड़ी भर पिछड़ लेंगे। यह अपना घर पूरा कर ले। इसे भी तो पशु का पेट भरकर रोटी खानी है गरीब को।
      इतने में बाजार की ओर से आते हुए पुलिस के हवलदार ने आकर पूछा, ''ऐ लड़को ! तांगा तैयार है कोई खन्ने को ?''
      पल भर के लिए बारू ने सोचा, आ गई मुफ्त की बेगार, न पैसा न धेला, पर तुरन्त ही उसने सोचा, पुलिस वाले से कह भी नहीं सकते। चलो, अगर यह तांगे में बैठा होगा तो दो सवारियाँ फालतू भी बिठा लूँगा, नहीं देना भाड़ा तो न सही। और बारू ने कहा, ''आओ हवलदार जी, तैयार खड़ा है तांगा, बैठो आगे।''
      हवलदार तांगे में बैठ गया। बारू ने एक सवारी के लिए एक-दो बार जोर से हाँक लगाई।
      एक लाला बाजार की ओर से आया और बिना पूछे बारू के तांगे में आ चढ़ा। दो-एक बूढ़ी स्त्रियाँ अड्डे की तरफ सड़क पर चली आ रही थी। बारू ने जल्दी से आवाज़ देकर पूछा, ''माई खन्ने जाना है ?'' बूढ़ियाँ तेजी से कदम फेंकने लगीं और एक ने हाथ हिलाकर कहा, ''खड़ा रह भाई।''
      ''जल्दी करो, माई, जल्दी।'' बारू अब जल्दी मचा रहा था।
      बूढ़ियाँ जल्दी-जल्दी आकर तांगे में बैठने लगीं, ''अरे भाई क्या लेगा?''
      ''बैठ जाओ माई झट से। आपसे फालतू नहीं मांगता।''
      आठ सवारियों से तांगा भर गया। दो रुपये बन गए थे। चलते-चलते कोई और भेज देगा, मालिक ! दो फेरे लग जाएँ ऐसे ही। बारू ने ठेकेदार को महसूल दे दिया।
      ''ले भई, अब मत साइत पूछ...'' पहली सवारियों में से एक ने कहा।
      ''लो जी, बस, लेते हैं रब्ब का नाम...'' बारू घोड़े की पीठ पर थपकी देर बम से रास खोलने लगा।
      फिर उसे ध्यान आया, एक सिगरेट भी ले ले। एक पल के लिए ख़याल ही ख़याल में उसने अपने आप को टप-टप चलते तांगे के बम पर तनकर बैठे हुए, धुएँ के फर्राटे उड़ाते हुए देखा और वह भरे तांगे को छोड़ कैंची की सिगरेट खरीदने के लिए सिगरेट वाले के पास चला गया।
      भूखी डायन के समान तभी अम्बाले से लुधियाने जाने वाली बस तांगे के सिर पर आकर खड़ी हो गई। पल भर में ही तांगे की सवारियाँ उतर कर बस के बड़े से पेट में खप गईं। अड्डे पर झाड़ू फेर कर डायन के समान चिंघाड़ती हुई बस आगे चल दी। धुएँ की जलाँद और उड़ी हुई धूल बारू के मुँह पर पड़ रही थी।
      बारू ने अड्डे के बीचोबीच चाबुक को ऊँचा करके, दिल और जिस्म के पूरे ज़ोर से एक बार फिर हाँक लगाई, ''है कोई जाने वाला एक सवार खन्ने का भाई...।''

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पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर


पंजाबी कहानी : नए हस्ताक्षर(6)



अगर अपनी व्यथा कहूँ
बलजिन्दर नसराली

हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

निरमैल, निन्दर और नैवी हमारी तीन पीढ़ियों के नाम है। मेरा पुत्र निन्दर तो मुझ पर गया है। जब वह नया-नया जवान हुआ था, लोग उसको मेरा भाई समझ लेते थे। निन्दर का बेटा नैवी बिल्कुल मेरी तरह चलता है। एक बांह तेज़-तेज़ हिलाता हुआ जैसे कोई व्यक्ति मन पर कोई बोझ डाले किसी से निपटने चला जा रहा हो। मिलती-जुलती शक्ल-सूरत की बात चलते ही एक बार निन्दर ने कहा था, ''पापा, शायद इसी कारण आदमी में बच्चा पैदा करने की इच्छा होती है। बच्चे के रूप में अपना अंश धरती पर छोड़ने के बाद, मौत को स्वीकार करना उसको सरल लगता है। बच्चा आदमी का अगला जन्म होता है, तुम मेरा पिछला जन्म हो।''
       मैंने इस बात को इस तरह जोड़ लिया - निन्दर अपने पिछले जन्म के कर्मों का फल खा रहा है। पिछले जन्म यानी मैं निरमैल सिंह ने मेहनत की, अपने घर की खेती को पैरों पर खड़ा किया, निन्दर को पढ़ाया, नौकरी पर लगवाया और अब वह मेरे कर्मों का फल खा रहा है। शहर में रहता है, आराम की नौकरी करता है, हमसे अधिक अच्छे दिन काटता है। लेकिन वह अपने कर्मों का फल हमें क्यों नहीं खिलाता ? वह तो कर्ज़ा उतारने के लिए मेरे द्वारा बेची गई ज़मीन में से भी अपने हिस्से के पैसे ले गया।
       ''पापा, फिर तो बड़े पापा का पिछला जन्म है ही नहीं, ये कहाँ से आ गए ?'' मेरे पोते नैवी ने सवाल किया था।
       ''नहीं बेटे, बड़े पापा के बापू जी थे, पर उनकी बहुत साल पहले मौत हो गई थी।''
       ''उनका नाम क्या था पापा ?''
       ''चुप ! ख़बरदार ! अगर उस काले मुँह वाले का नाम लिया किसी ने। कोई दूसरी बात नहीं की जाती तुमसे ?'' कुछ हटकर बैठी मेरी बीबी(माँ), निन्दर की दादी, नैवी की पड़दादी ऊँचे स्वर में बोली थी।
       हमारे घर में मेरे बापू नछत्तर सिंह का नाम कभी नहीं लिया जाता। हमने अपने बाप-दादा का सुख देखा ही नहीं। मुझे अपना पूर्व इतिहास गैर-हाज़िर प्रतीत होता है। नैवी की यह बात भी बड़ी शिद्दत से महसूस हुई कि मेरा पिछला जन्म है ही नहीं।
       हमारा बापू गाँव का सबसे अधिक बिगड़ा हुआ लड़का था। हमारे बापू के मामा ने भाँजे के मोह में उसका रिश्ता करवा दिया, दूर पुआध के गाँव चूहड़ माजरे से हमारी माँ का, जिसके जैसी सोहणी लड़की चूहड़ माजरे में दूसरी कोई नहीं थी और जिसके जैसी सुन्दर बहू हमारे गाँव में नहीं थी। पाँच भाइयों की अकेली बहन और सुन्दर भी खूब।
       माँ की सुन्दरता की बापू ने ज़रा भी कद्र नहीं की थी। वह जैसे उसकी सुन्दरता से चिढ़ता था। आए दिन वह माँ को भुट्टों की तरह कूट डालता। हम दोनों भाई गली में खड़े होकर चीखने-चिल्लाने लग पड़ते। अड़ोसनें-पड़ोसनें माँ को छुड़वातीं।
       ''रे मरजाणे, जान से मारना है अब इसे...चल निकल बाहर। ऐसी सोहणी बहू मिली है, लोग तरसते हैं... बंदरों को बनारस की टोपियाँ...'' देबो बुढ़िया उसको धकेल कर बाहर निकालती। हम डर कर दूसरी तरफ भाग जाते। बापू आग बरसाती नज़रों से हमारी तरफ देखता और फिर तेज़ कदमों से दूर चला जाता।
       ''रे दयाले! तेरा सात जनम भला न हो, तूने जो मुझे इस नरक में ला फेंका...'' रोना बन्द करके माँ अपने बिचौलिये को कोसना शुरू कर देती।
       अब मैं जब किक्करपुरे वाले दयाले के घर की ओर देखता हूँ तो मुझे माँ के बोल पूरे हो गए प्रतीत होते हैं। दयाले से लेकर उसके पड़पोतों तक चार पीढ़ियाँ तो मैं देख ही सकता हूँ। उसके पोते ज़मीन बेचकर बर्बाद हो गए और पड़पोते नशा करके घूमते रहते हैं।
       यूँ तो ज़मीन मैंने भी बेची है, दारू मेरा छोटा बेटा करमा रोज़ पीता है। फिर हमारे घर को किसकी बद्दुआ लग गई ?
       रात में बिस्तर पर सोते समय जब माँ की चोटें दुखती तो वह किसी गुरू पीर की तरह श्राप देते हुए कहती, ''नछत्तरे, मैं तो कहती हूँ, तू बाहर गया, बाहर ही रह जाए...।''
       यह माँ की बद्दुआ का असर था या बापू की करनियों को फल था, पता नहीं क्या था। बापू घर से बाहर गया तो बाहर ही रह गया था। बाहर से सिर्फ़ उसकी लाश आई थी। माँ रोई थी, पता नहीं लोक लाज को, पता नहीं अपनी खराब किस्मत को या शायद एक विधवा औरत के भविष्य को देखकर।
       माँ को लोगों ने घर आ-आकर बापू के कातिलों के बारे में बताया, पर माँ ने एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दी। सारा ध्यान उसने हम दो भाइयों को पालने में लगा दिया। हमारे पाँच मामों में से दो मामा हमारे पास रहने लग पड़े। हमारे जवान होने तक मामाओं ने हमारी माँ का रंडेपा कटवाया। माँ बारह बीघों में से दो बीघे अपने पास रखकर बाकी बटाई पर दे देती। दो बीघों में पशुओं लायक हरा चारा बीजवा लेती। बड़े मामे आकर बुआई कर जाते। छोटे मामे हमारे पास ही रहते। वे स्कूल कभी गए नहीं थे। मैं और मेरे से छोटा भजना स्कूल जाते। स्कूल से लौटकर दोनों मामा के साथ भैंसें चराने भी चले जाते।
       चीन की लड़ाई लगकर हटी थी। फौजी अच्छे लगते। ट्रालियों के पीछे 'जै जवान, जै किसान' लिखा अच्छा लगता। मैं और दीवेवाला बन्त दोनों स्कूल के ग्राउंड में बैठ सड़क पर से गुजरते किसी ट्रैक्टर को देखते तो ट्रैक्टर की शान को लेकर बातें किया करते। स्कूल के करीब वाले किसी खेत में ट्रैक्टर चलता हुआ देखते तो हम खेत की मेंड़ पर जा खड़े होते। धरती की छाती को चीरते ट्रैक्टर को देख कर हमें नशा-सा छा जाता। दसवीं में पढ़ते हुए मैंने और बन्त दोनों ने एक साझा ट्रैक्टर लेने मन बना लिया था।
       हम पढ़ने से हट गए। छोटा भाई भजना पहले ही बेमन से स्कूल जाता था, मुझे देख उसने भी पढ़ना छोड़ दिया।
       मामा लोगों ने हौसला बढ़ाया तो मैं और बन्त दोनों आसपास के 'ाहरों में ट्रैक्टर एजेंसियों के चक्कर काटने लगे। बन्त के पास पैसे तैयार थे। मैं आने वाली रबी की फ़सल की प्रतीक्षा कर रहा था।
       इधर आए दिन मुझे देखने वाले आए रहते। मैं किसी के आने के बारे में सुनता तो शरमा कर मुँह फेर लेता। माँ साफ़-सुन्दर कपड़े पहनकर घर को संवारती रहती। उसको जवान हुए बेटे का चाव चढ़ा था। ससुराल में तो उसने दुख ही देखे थे।
       ''देने लेने की कोई बात नहीं, पर लड़के-लड़की का मेल होना चाहिए।'' वह बिचौले को कहती।
       आख़िर माँ पाइलिये के जंग सिंह का लाया रिश्ता ले लिया जो मंडी के साथ बसे गाँव ककराले की लड़की का था। लड़की शहर में लड़कियों वाले स्कूल में नौवीं कक्षा में पढ़ती थी। माँ ने शर्त रख दी कि लड़की को नौवीं करके हटा लो। ककराले की लड़कियाँ पहले ही हमारे गाँव में ब्याही हुई थीं। वह माँ से कहतीं, ''चाची, ऐसी लड़की नहीं मिलने वाली। बिजली के लाटू जैसी लिश्कारे मारती है।''
       बिजली उन दिनों गाँवों में इक्का-दुक्का घर ही आई थी। जिस घर में बल्ब जलते होते, लोग उधर ही झांकते रहते।
       मेरी मंगेतर सुखजीत कौर उर्फ़ सुखजीत बहन जी सुन्दर तो सचमुच ही इतनी थी कि जब हमारा यह रिश्ता टूटा तो सचमुच ही हमारे बिचौले को दुबारा इतनी सुन्दर लड़की का रिश्ता बड़ी मुश्किल से मिल पाया था।
       रिश्ता टूटने के पीछे हमारे परिवार की कोई कमीपेशी कारण नहीं बनी थी। हम दोनों भाइयों की तो लोग मिसाल दे देकर बात करते थे। माँ हमारी ने रंडेपा अपने भाइयों के सिर पर काट लिया था, पर किसी शरीक(रिश्तेदार) को मदद के लए भी नहीं कहा था।
       ''रंडी औरत को तो लोग मुँह का निवाला ही समझा करते हैं, लड़कों मैंने तुम्हें कोई उलाहना नहीं आने दिया... अब खूब मेहनत से खेती करो, अपना नाम ऊँचा करो...'' माँ हमेशा 'अपना नाम ऊँचा करो' कहती। कभी यह नहीं कहती थी कि अपने बाप-दादा का नाम ऊँचा करो।
       हम अपनी ज़मीन के नंबर देकर दीवेवाले बन्ते के साथ साझा मैसीफरगुशन टै्रक्टर ले आए। मैसीकी कीमत उन दिनों पच्चीस हज़ार आठ सौ बत्तीस रुपये थी। गाँव में इस बात की पहले ही धूम मच गई थी कि निरमैल लुधियाना शहर ट्रैक्टर लेने गया हुआ है। हम ट्रैक्टर उन दिनों में लाए थे जिन दिनों में लोगों को टै्रक्टर का नाम लेना भी नहीं आता था। कोई टरैटर कहता और कोई टरैगटर बोलता।
       गाँव में घुसते ही लोग टै्रक्टर देखने के लिए चौपाल में से उठकर हमारे पीछे लग गए। फूल-मालाओं से सजाया हुआ लाल रंग का मैसीपहले गुरद्वारे में ले जाया गया। माथा टिकाकर फिर अपने घर की दालान में घुसाया। माँ ने देहरी पर तेल चुआया। लोग देख देखकर लौटते रहे। शाम के वक्त हम टै्रक्टर को बन्त के घर ले गए। उनके बच्चे इंतज़ार कर रहे थे।
      
       ककराले वाली 'सुखजीत बहन जी' के साथ चार वर्ष तक मेरी मंगनी चलती रही। मंगनी टूटने के पहले हमने बन्त के घरवालों से टै्रक्टर की साझीदारी तोड़ ली थी।
       यह साझेदारी बमुश्किल दस महीने चली। साझे टै्रक्टर से हमने गेहूं की कटाई की, भूसा घर लाए, चावल की पौध लगाने के लिए ज़मीन कद्दू की। या फिर, इस पर खरीफ़ की फ़सल मंडी में ले जाकर बेची।
       बन्त का भाई टै्रक्टर को भगाता बहुत था। शहर से लौटता तो ट्राली की बुरी हालत हई होती। मैं तड़प कर रह जाता। मैसीइंग्लैंड की फरगुशन कम्पनी का नाजुक टै्रक्टर था। हम दोनों भाई तो उसको चमकाते न थकते थे।
       मैंने और छोटे भाई भजने ने टै्रक्टर की साझेदारी तोड़ने का निर्णय कर लिया। बन्त का हिस्सा निकालने लायक पैसे नहीं थे। मैं अपने मामाओं के पास चला गया। सारी बात बताई। उन्होंने इधर-उधर से प्रबंध करके मुझे बन्त का हिस्सा लौटाने लायक कर दिया।
       अगले दिन हम बहाने से टै्रक्टर अपने घर ले आए। शाम के वक्त बन्त को सारी बात समझाकर पैसे उसके हाथ में थमा दिए। बन्त समझदार था, बरदाश्त कर गया। दूसरा कोई होता, प्रतिरोध करता। कड़वाहट पैदा करता। यूँ बन्त ने गुस्सा तो किया, पर उसे अपने अन्दर रखा। इसके बाद आज तक उसने हमारे साथ जुबान साझी नहीं की। मंडी जाने के लिए उसने हमारे गाँव वाला रास्ता ही छोड़ दिया। फतहपुर की ओर से जाता।
       बारह बीघे ज़मीन में से टै्रक्टर की किस्त नहीं भरी जा सकती। हम गाँव में यह भी नहीं कहलवाना चाहते थे कि सीबो बूढ़ी के लड़के चादर से बाहर पाँव फैलाने लगे। गाँव के कई कम ज़मीन वाले किसानों को तो इंजन ही डुबा बैठे थे। अब कोई कह सकता है कि भई इंजन क्या चीज़ होता है ! उस समय इंजन की किस्त भरना भी छोटे जमींदारों के लिए कठिन होती थी। हमारे पड़ोसी भोले का दुबारा काम ही नहीं संभल पाया। अब भोले का लड़का शहर में दिहाड़ी करने जाता है, चमारों के लड़कों के संग। बहू कपड़े सिलती है, गुजारा फिर भी नहीं होता। घर में भंग भुजती है। चाय बनाने को दूध तक नहीं होता। इनकी लड़कियाँ मेरे पोते को खिलाने के लिए अपने घर ले जातीं। कुछ देर बाद आकर कहतीं, ''बेबे जी, काका रो रहा है, उसकी शीशी में दूध डालकर दो।''
       करमे की घरवाली दूध डालकर दे देती। लड़कियाँ पौंने घंटे बाद फिर आ जातीं, ''भाभी जी, काका दूध मांगता है...।'' करमे की घरवाली फिर शीशी धोकर उसमें दूध डालकर दे देती। यह तो बहुत दिनों बाद पता चला कि वे इस दूध की चाय बना लेती थीं। बच्चे की शीशी में भी चाय ही डाल देतीं।
       जब पता चला तो हम एक तो उनकी होशियारी पर हँसे, और साथ भी अरदास करें, 'हे परमात्मा, यह गरीबी किसी को न देना।'
       खाली समय में हम ट्रैक्टर-ट्राली किराये पर दिए रखते। उन दिनों में ब्याह-शादियों वाले बड़े चाव से टै्रक्टर ट्राली किराये पर लिया करते थे। बारात में दो-तीन कारें होतीं जिनमें ख़ास-ख़ास रिश्तेदार बैठते। रिश्तेदार-संबंधी और गाँव के लोग आमतौर पर ट्राली में ही जाते। ट्राली में चालीस-पचास आदमी चढ़ जाते। ट्राली कारों से पहले चल पड़ती। बराती हँसते-गाते लड़की वालों के गाँव जा पहुँचते। बाद में, बारात में कारों की गिनती बढ़ती गई। ट्राली में बाजे वाले ही जाते। फिर तो बाजे वाले भी कारों में जाने लग पड़े।
       हम दोनों भाई ट्रैक्टर को पूरी तरह सजाकर रखते। भोले की घरवाली मजाक करते हुए कहती - ''रे निरमैल, बहू को तो पूरा सजा-धजाकर रखा करेगा !''
       ''भाभी, वो तो पहले ही बहुत सुन्दर है।''
       ''रे, पढ़ रही है अभी कि हट गई ?''
       ''भाभी, कोर्स करके हटी है।'' असल में सुखजीत ने पढ़ाई छोड़ी नहीं थी। उसका विदेश में रहता एक मामा उसको पढ़ाई जारी रखने के लिए कहता रहता था। उन्होंने बिचौले की मार्फ़त मेरी माँ को भी मना लिया था। कहते - आने वाला युग पढ़े-लिखे लोगों का ही है। अपने बच्चों को पढ़ाने योग्य हो जाएगी।
       ''ब्याह ला फिर उस पढ़ाकू को, हमको भी चार अक्खर सिखा देगी। कब तक टै्रक्टर पर डोरियाँ बांधता रहेगा ?''
       ''भाभी, चार कमरे छत लें, ये मकान तो जवाब देने लग पड़ा है।'' मैं भाभी के साथ बातें करता टै्रक्टर को चमकाये भी जा रहा था।
       ''निरमैल, एक बात कहूँ ? और ज्यादा न पढ़वाना। अगर ज्यादा पढ़ गई तो कोई और स्यापा न खड़ा हो जाए।''
       भाभी का ज़ाहिर किया संशय कुछ महीनों बाद ही सच बनकर सामने आ खड़ा हुआ था।
       चढ़ते जाड़े माँ ने बिचौले को विवाह की चिट्ठी लाने को कहा। कई दिन बीत गए। बिचौले से फिर कहा, फिर भी उसने कोई खोज-खबर नहीं दी। हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि बीच में बात क्या है ? एक दिन मेरा साला करनैल अचानक हमारे घर आ पहुँचा। वह चार साल पहले मंगनी करने आये लोगों के साथ हमारे घर आया था। दो-एक बार अपने बापू के साथ बाज़ार में भी मिला था। अब वह मंडी के कालेज में पढ़ता था। उसको जानने वाले उसकी प्रशंसा करते थे। बहन की तरह वह भी पढ़ने में होशियार था।
       उसका इस तरह कच्चे रिश्ते, वह भी बिना बिचौले के आ जाना अजीब लगा था। माँ ने सूत वाली चारपाई बिछा दी। मैं करनैल के पास बैठ गया। माँ ने काढ़नी में से दूध निकालकर चीनी घोली। पीतल के गिलास में दूध डालकर हम दोनों को पकड़ाया और फिर खुद पीढ़ी लेकर चारपाई के पास ही बैठ गई। उसने करनैल से उनके परिवार और ढोर-डंगर का हालचाल पूछा। करनैल भी 'मौसी जी, मौसी जी' कह कर जवाब देता रहा।
       ''बाई जी, मोटर की ओर चले ?''
       दूध पीने के बाद उसने कहा। मैंने और माँ ने यही सोचा कि मोटर देखने आया होगा। उन दिनों खेतों में बिजली की लाइनें पड़ रही थीं। बिजली वाली मोटर किसी किसी गाँव में ही लगी थी। मेरी बुआ का लड़का बिजली बोर्ड में भर्ती हुआ ही था। वह आता-जाता मेरे पास रुक जाता, कहता, ''कुनेक्शन ले ले, अब इंजनों का वक्त बीत गया। कोई नहीं पूछेगा इसे ?''
       उसके कहने पर हमने पाँच पावर की मोटर का कैनेक्शन ले लिया था। सीमैन की मोटर पानी की धार दूर तक मारती। इंजन की ठक-ठक बन्द हो गई। बटन दबाओ, पानी हाज़िर। मैं झौने(धान) की फ़सल को पानी छोड़कर शहतूत के नीचे कोई किताब खोलकर बैठ जाता। मेरे सहित गाँव के चार-पाँच लोगों को किताबें पढ़ने का थोड़ा-बहुत शौंक था ही। शहर जाता तो कोई न कोई किताब-मैगज़ीन ज़रूर खरीदता। किताब पढ़ते समय किताब की नायिका के पीछे से सुखजीत उभर जाती। वह मेंड़ पर खेत में रोटी लाती हुई दिखाई देती, पर अगले ही पल मुझे उसकी पढ़ाई याद हो आती। फिर वह मुझे किसी लेडी साइकिल पर किसी स्कूल की ओर जाती दिखाई देती।
       लोग हमारी मोटर देखने आते। देखकर हैरान होते। रहट की बातें करते। कुँओं और कुँओं से निकलते कम पानी की बात करते। इंजन और डीज़ल की बात करते। मोटर के चलने का तो पता भी न लगता। सिर्फ़ पानी की धार के गिरने का शोर होता।
       पर, करनैल ने तो मोटर की तरफ देखा भी नहीं। मोटर के बाहर बिछी हुई चारपाई पर बैठते हुए उसने बड़े-बुजुर्ग़ों की तरह बात करनी शुरू कर दीं।
       ''बाई जी, मैं आपके साथ बहुत ज़रूरी बात करने आया हूँ। हमारे घर में कई दिनों से क्लेश पड़ा हुआ है। आप में कोई कमी नहीं। सुन्दर, जवान हो, मेहनत से खेतीबाड़ी करते हो। सभी लोग आपकी खेतीबाड़ी की बातें भी करते हैं। मेरी बीबी और बापू जी हर हीले ये रिश्ता पूरा करने चाहते हैं, पर ?''
       करनैल ने नज़रें झुका लीं। मैंने उसके झुके चेहरे की ओर गौर से देखा। मैं कुछ कुछ समझ भी गया था, पर अगली बात सुनने के लिए स्वयं को तैयार भी कर रहा था।
       ''करनैल, घबरा नहीं, जो भी कहना है खुलकर कह।'' मैंने अपने डूब रहे दिल के बावजूद उसको हौसला दिया।
       ''मेरी बहन को सरकारी स्कूल में नौकरी के आर्डर आ गए हैं। वह कहती है, मेरा रिश्ता किसी मास्टर के साथ ही करो। हमने बहुत समझाया कि तू नौकरी करती रहना, पर बाई जी वह किसी भी तरह मानती ही नहीं। कहती है, विवाह तो मैं अपने जितने पढ़े-लिखे के साथ ही कराऊँगी, नहीं तो कुएँ में कूदकर मर जाऊँगी।''
       करनैल चुप हो गया। मेरे ऊपर मानो घड़ों पानी पड़ गया। आँखों के आगे भम्बू तारे नाचने लगे। बेइज्ज़ती और बेकद्री का अहसास एक लहर-सा बनकर उठा। मेरी समूची देह उसमें डूबती जा रही थी।
       अगले ही पल मुझे करनैल अपनी आँखों के कोयो का पानी साफ करता दिखाई दिया। मुझे उस पर तरस आ गया।
       ''अच्छा करनैल सिंह, यह बात है,'' मैंने उसको और अपने आप को संभालने का यत्न किया।
       करनैल ने खांसकर गला साफ़ करने के बाद कहा, ''बाई जी, हमारे घर में तो इस क्लेश के कारण किसी के गले से रोटी भी नीचे नहीं उतरती। अगर ऐसा ही रहा तो कोई न कोई मर जाएगा। माँ-बापू यह रिश्ता हर हाल में पूरा करना चाहते हैं। रिश्ता तोड़ने में वे अपनी बहुत बड़ी बदनामी होती समझते हैं। मुझे बीच में रहकर कुछ समझ में नहीं आता। आप ही बताओ, क्या करना चाहिए ?''
       शायद, पिता विहीन लड़का होने के कारण, मेरे स्वभाव में सहनशीलता थी। मैं फ़ैसला कर चुका था, ''हमें सुखजीत के साथ ज़ोर-जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए। विवाह से पहले ज़िन्दगी ज़रूरी है। तुम्हें लड़कों की कमी नहीं, मुझे लड़कियों की। मैं बिचौले को तुम्हारे घर भेजूँगा, वह तुम्हारा सामान लौटा देगा। सुखजीत पर कोई बात नहीं आएगी। तू अब जा, अपनी बहन को यह बात बता दे, बन्दे को जिन्दा रहना चाहिए। ये रिश्ते-नाते, इनका टूटना-जुड़ना छोटी बातें हैं।''
       हाँ, बन्दे को जीवित रहना चाहिए।
       यह बात मैंने तब भी कही थी जब हमारा परिवार फिर एक बार बड़े संकट में आ खड़ा हुआ था। उस समय जब कर्जे की गाँठ भारी हो गई थी और हमें अपने मैसी फरगुशन ट्रैक्टर ही नहीं, अपनी पैतृक ज़मीन भी बेचनी पड़ गई थी। निन्दर की माँ पाशो ने शरम के मारे घर में से बाहर निकलना ही बन्द कर दिया था। मैंने उसको कहा था, ''हम मर तो नहीं गए, बन्दा जिन्दा होना चाहिए, फिर वह कोई न कोई कुआँ खोद ही लेता है।''
       मुझे अपने गाँव वाला बेली सरपंच याद आ जाता। बेली जो दो बार सर्वसम्मति से सरपंच बना था। जिसने गाँव में गलियों, नालियों से लेकर हरिजनों की लैटरीनें तक बनवाई थीं, जिसने गाँव की हर खाली पड़ी जगह पर दरख्त लगवाये थे, पता नहीं कैसे गाँव को संवारता-संवारता वह अपने घर का तवाज़न गवां बैठा था। परिवार पर चढ़े कर्जे की उसको इतनी शरम आई कि गाँव के लड़कों को शराब ज़हर बताता बताता, खुद सलफ़ास की गोलियों को परिवार की मुक्ति का मार्ग समझ बैठा था। उसके परिवार की लाशें देखकर सारा इलाका त्राहि-त्राहि कर उठा था। हर सयाने व्यक्ति के मुँह से यही बात निकलती, ''सरपंच कोढ़ी ने यह बुरा काम किया, बच्चों का क्या कसूर था ?''
       कसूर तो सरपंच का भी कोई नहीं था।    
       ''आपका कोई कसूर नहीं बाई जी।'' कहता हुआ करनैल चल पड़ा। साइकिल के पास जाकर उसने आँखों को पोंछा। साइकिल पर चढ़कर पैडल मारने से पहले उसने मेरी ओर देखा, आँखों ही आँखों में धन्यवाद किया और चला गया।
       'कसूर किसका था या किसका नहीं था, बात यह नहीं करनैल सिंह, यह तो सोचने के तरीक में फ़र्क़ है।' मैंने करनैल सिंह को सम्बोधित करते हुए मन ही मन अपने आप से कहा था।
       ''पापा, हटे तुम भी नहीं, सुखजीत भैण जी जितनी सोहणी लड़की ढूँढ़ कर ही विवाह करवाया फिर।'' निन्दर अक्सर ही मज़ाक करता।
       असल में, मेरी मंगनी के बाद मेरी मंगेतर के सुंदर होने की बात इतनी फैल गई थी कि मुझे अब उससे कम मंजूर ही नहीं थी। सुखजीत के गाँव ककराले के साथ हमारे खेत की हद मिलती है। तीन गाँव ही बीच में हैं बस। आदमी का सौ बार आमना-सामना होता है। सुखजीत को मैं बता देना भी चाहता था कि ईश्वर तुझे बनाकर सुंदर लड़कियाँ बनानी भूल नहीं गया। दुनिया आगे से आगे पड़ी है। ऊपर से शांत दिखने के बावजूद मेरे अन्दर बहुत कुछ ऊपर-नीचे हो रहा था। सुखजीत ने मेरे संग यह किया क्या ? मेरे में क्या कमी है ? नशे-पत्ते के पास से मैं कभी गुजरा नहीं था। सुखजीत के साथ मंगनी के बाद मैंने अमृत भी छक लिया था। चार उंगुल लम्बी दाढ़ी मुझ पर फबती थी। लोग फ़सल-बाड़ी में मेरी सलाह लेते थे। भरी पंचायत में जल्दी मेरी बात को कोई काटता नहीं था।
       पर शायद पढ़ा-लिखा होना और बड़ी बात होती होगी। पाइलिये वाले बिचौले ने टूटे रिश्ते की हतक मानते हुए दूसरा रिश्ता करवाने के लिए बड़ी दौड़धूप की।
       सुंदर शक्ल और सीरत की अपनी एक खुशबू होती है शायद। पाशो के आते ही घर महकने लगा था।
       ककराले गाँव की सुखजीत कौर मेरे लिए एक कड़वी याद बनकर रह गई। समय बीतने के साथ यह याद धुंधली पड़ती गई। हालांकि पूरी तरह खत्म कभी न हुई।
       ''बड़े पापा अगर आपकी शादी अपने गाँव के स्कूल वाली सुखजीत मैडम से हो गई होती तो फिर आपके घर पापा ने तो होना नहीं था ? पापा न होते तो मैं भी नहीं होता ?'' मेरा पोता नैवी पूछता है। ये नये बालक भी बस ! मैंने इस तरह तो कभी सोचा ही नहीं था। मेरी ऑंखों के आगे सुखजीत मैडम के बेटे की तस्वीर आ गई। एक दिन वह अपनी मम्मी को मोटरसाइकिल पर लेने आया था। मैं ट्रैक्टर पर उधर से गुजर रहा था। बेटा उसका पढ़ा नहीं था, बिगड़ा हुआ था, यह बात मैंने उड़ते-उड़ते सुनी थी। उसके तौर-तरीकों से भी यह बात सच ही प्रतीत होती थी। जब से वह हमारे गाँव के सीनियर सेकेंडरी स्कूल में बदली होकर आई थी, मैं उसके विषय में कुछ न कुछ सुनता आया था। कभी यह उसके मेहनती अध्यापक के बारे में होता, कभी बच्चों की खातिर प्रिंसीपल के साथ हुई उसकी लड़ाई को लेकर होता। स्कूल में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ अक्सर 'सुखजीत भैण जी, सुखजीत भैण जी' करते रहते।
       ''बड़े पापा, मेरे क्वेशचन का जवाब नहीं दिया ?'' नैवी मुझे स्मरण कराता है।
       ''हाँ बेटे, तुम क्यों न होते। तुम फिर भी होते।'' मैं नैवी को टालता हूँ। वह भी अगला सवाल किए बिना भजने के पोते की हांक सुनकर उनके घर की ओर दौड़ जाता है।
       दोनों घरों के बच्चे एक-दूसरे के घर में चले जाते हैं। अलग होने के बाद बड़े एक-दूसरे के घर साल-छह महीने में ही जाते हैं। वैसे हम जब तक इकट्ठे रहे, हमारी बढ़िया निभी।
       मेरे विवाह के चारेक वर्ष बाद हमने भजने का विवाह भी कर दिया। हमारी घरवालियाँ मिलकर रहतीं। हमारी माँ घर पर पूरा कंट्रोल रखती। हमारी आपस में इतनी बनती थी कि लोग हैरान होते रहते कि इन दोनों भाइयों की बातें ही खत्म नहीं होतीं। गेहूं बोते तो यह ट्रैक्टर चलाता और मैं मशीन के पीछे पीछे चल रहा होता ताकि दानों वाला पोर बन्द न हो जाए। यह नई उगी गेहूं को पानी दे रहा होता तो मैं इसकी रोटी देने जाता। चार लोग दिहाड़ी पर लगाकर हम दोनों भाई गेहूं बोते। फिर रोटियाँ ढोने को बच्चे उठ खड़े हुए। दो लड़के और एक लड़की मेरे हुई और एक बेटा-बेटी इसके हुए। बच्चे बस्ते उठाकर स्कूल जाते, स्कूल से लौटकर भैंसों को चराने भी ले जाते।
       गेहूं की ट्राली भरकर हम मंडी जाते तो दोनों भाई इकट्ठे ही जाते। लोगों के परिवार टूटने लग पड़े थे। फ़सलों में बरकत बढ़ती जाती थी पर परिवारों में बिखराब बढ़ता जाता था। लोग हमें एकसाथ देखकर जलते। हम टै्रक्टर पर बैठे हुए भी कान एक दूसरे से जोड़े रखते। लोगों ने हम दोनों भाइयों का नाम नगोजे(अलगोज़ा) रख लिया।
       एक दिन मैं घर के बाहर खड़ा था। बुआ के पोते के विवाह की गांठ देने के लिए नाई आ गया। मुझसे बोला- बाई जी, नगोजों का घर कौन सा है ? मैंने पूछा- कौन से नगोजे ? तूने जाना किसके है ? उसने बताया- मैं लिबड़े से आया हूँ, विवाह की गांठ देने। वहाँ अड्डे पर सरदार निरमैल ंसिंह का घर पूछा था। उसने बताया कि दरवाजे के पास जाकर नगोजों का घर पूछ लेना। मैं सारी बात समझ गया। मुझे बहुत गुस्सा आया, हँसी भी। सालों से हमारा इकट्ठे रहना भी सहन नहीं होता।
       ''बड़े पापा ! पहले भजना चाचा और बीबी इधर ही रहते थे ?'' नैवी एक दिन पूछता है। वह जब भी शहर से गाँव में रहने के लिए आता है, अधिकतर इधर ही खेलता रहता है। अपनी पड़दादी के पास और भजने के पोते-पोती के साथ।
       अलग होने से पहले साझे घर में खर्चों की आपाधापी पड़ गई थी। बच्चे जवान हो रहे थे। हरेक का अपना अपना मत था। हर एक का मुँह दूसरी तरफ था। इस बात को पुराने जमाने की नौ कक्षाएँ पढ़ा मैं समझता था। इस बात को पढ़-लिखकर शहर के ख़ालसा सीनियर सेकेंडरी स्कूल में मास्टर लगा मेरा बेटा निन्दर भी समझता था। बात निन्दर ने शुरू की थी, विरोध माँ की ओर से हुआ था।
       ''भाई, जब तक मैं बैठी हूँ, मिलजुल कर इसी तरह निभाये चलो। मेरे मरने के बाद जैसे चाहे रहना।''
       ''बीबी, देख तू चाहे चालीस साल और बैठी रह। तुझे रोटी और खर्चा देने से नहीं भागते। पर अब तेरे दोनों बेटों के बच्चे हो गए जवान। बापू अपनी मर्जी के रिश्ते ढूँढ़े और चाचा अपनी अपनी पहुँच के अनुसार लड़का-लड़की को ब्याहे। कोई खर्च कम करे, कोई ज्यादा।'' निन्दर ने दोनों को ठीक ही देखा था।
       और माँ के हल्के हल्के विरोध के बावजूद हम दोनों भाई अलग हो गए थे। कोई हो-हल्ला नहीं, कोई शोर नहीं। दिलों में नाराजगियाँ ज़रूर थी। हमने लोगों की तरह तमाशा नहीं दिखाया था। मुझको देव मामा ने समझा दिया था, ''निरमैल सिंह ! भजना तेरा छोटा भाई है। तू बड़ा है। बाप की जगह है। अलग होते समय झगड़ा न करना। अगर भजने की तरफ कोई चीज़ ज्यादा भी चली गई तो भी कोई बात नहीं। दस-बीस हज़ार से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा करता। रिश्तों में गाँठ नहीं पड़नी चाहिए। क्या विचार है ?''
       हमने खेती बाड़ी के संद साझा रखे। बाकी सबकुछ अपना अपना।
       माँ निन्दर को बहुत लायक बेटा समझती थी। पर अब तक उसके मन में यह रंजिश रही कि उसके बेटों का बंटवारा उसके पोते ने करवाया है।
       ''मेरे जीते जी निन्दर को ऐसा नहीं करना चाहिए था।'' वह मेरे सामने अपने दिल की बात कहती, ''ठीक है भई ! लड़का पढ़ गया है, नौकरी करता है। अब चाचा के परिवार के साथ बाँटकर क्यों खाये ?''
       ''बाँटकर कौन किसी के साथ खा सकता है, बीबी ? वक्त ही और तरह का आ गया है। पहले होता था, एक जना कमाता था और बाकी सारा परिवार खाये जाता था। नौकरी पर लगकर उसने पहले पहल कभी भूलकर चार पैसे ज़रूर मेरे हाथ में रखे होंगे। फिर विवाह होने पर उसकी तनख्वाह वह जाने और उसका परिवार जाने, हमारे से तो बल्कि गेहूं-चावल जो भी बन पड़ता है, ले जाता है।''
       निन्दर ने अपने विवाह पर मेरा खर्च नहीं होने दिया था। सुनारों की तो हमें देहरी भी लांघने नहीं दी थी। लड़की वालों को भी उसने व्यर्थ के खर्च से रोका। और तो और, उसने हमारे घर में कड़ाही भी नहीं चढ़ने दी। मिठाई खरीद लाया। बारात में बारहवाँ आदमी नहीं ले गया। उस समय मुझे गुस्सा भी आया था जब मैंने कार में बैठते हुए बिरादरी वालों को घरों के बाहर थड़ों पर बगल में हाथ दबाये खड़े देखा था। मैं इन सभी की बारातों में जाता रहा था। लोग क्या कहते होंगे, साला सारी उम्र खाता रहा, जब खिलाने की बारी आई तो लड़के को आगे कर दिया। मुझे अपनी तीस वर्षों के किए-कराए की याद आ रही थी। यदि आदमी ज़िन्दगी में एक खुशी भी साझी न कर सके, फिर तो ऐसी ज़िन्दगी का क्या लाभ। हम क्यों न मनाएँ खुशी ? चरण दास आढ़तिये के तोंदू लड़के का विवाह था। चार दिन पार्टियाँ चलती रहीं। मुझे चरण दास की हम जैसी असामियों को बार बार कही बात याद आई, ''जट्टो, ब्याह-शादियों पर खर्च कम करो, बच कर चलो भाई, नहीं मारे जाओगे, हाँ...।''
       ''तुम क्यों नहीं मारे जाते ?'' चरण दास के शहरी मेहमानों में इधर-उधर घूमता मैं अपने आप से सवाल कर रहा था।
       वैसे मेरी बिरादरी वाले निन्दर की प्रशंसा करते रहते, ''अगर भाई सारे जट्ट ही निन्दर जैसा करने लग पड़े तो बच जाएँ।''
       पर बच मैं फिर भी क्यों न सका ?
       छह बीघों में से दो बीघे तो मैंने भी बेच ही दिए।
       ''रे निरमैल ! यह मैं क्या सुनती हूँ। तू ज़मीन बेचने को फिरता है दीवेवाली ? रे सच है क्या ये बात ?'' माँ सोटी के सहारे चलकर मेरे पास बैठ गई। माँ का धूप में तपा चेहरा झुर्रियों से भरा पड़ा था।
       जब से बंटवारा हुआ था, माँ कभी कभार ही हमारे घर आती। भजने की घरवाली के साथ उसकी अधिक निभती थी। पाशों का उसके साथ बंटवारे के समय दरियों-खेसियों के बंटवारे को लेकर मन-मुटाव हो गया था। पाशो को एक गुस्सा यह भी था कि माँ ने अपने हिस्से में दो भैंसें क्यों रख ली थीं ? उसने इतना दूध इस बूढ़ी उम्र में क्या करना था ? जब कभी वह भजने को बाल्टी उठाये डेयरी की ओर जाता देख ले, अन्दर आकर मुझे सुनाते हुए बड़बड़ाती रहेगी, ''बीबी की भैंसों के दूध की कमाई अकेले ही खाए जाते हैं।''
       ''यह कौन सी कमाइयाँ हैं पाशो, जब इतनी इतनी कमाइयाँ पता नहीं किधर चली गईं !'' मैं अपने आप से बातें करने लग पड़ता हूँ। मुझे वे दिन याद हो आते हैं जब मैं मूँगफली की ट्राली भरकर मंडी में ले जाया करता था। हमारे दीवेवाले खेतों में टीले थे। वहाँ हम मूँगफली बोते। गाँव की नियाई वाली ज़मीन में जीरी(धान की पौध) लगाते। बाद में हमने दीवेवाली ज़मीन का रेता शहर में भरत डालने वालों को बेच दिया, जो बचा उसे इकट्ठा करके टीला बना दिया। फिर नीचे से बढ़िया मिट्टी निकाल कर एक तरफ ढेर लगाया। टीले वाले रेते को दुबारा उलट कर नीचे कर दिया। लाल मिट्टी ऊपर बिछा दी। धरती ही उल्टा दी एक तरह से। फिर दीवेवाली ज़मीन में जीरी होने लगी। रबी-खरीफ़ गेहूं और जीरी के बड़े बड़े ढेर लग जाते। चरण दास मंडी में हमारे लिए जगह खाली रखता। किधर गई उन ढेरों की कमाई ?
       ''रे बोलता नहीं ?'' माँ की आवाज़ से मैं चौंका।
       दीवेवाले तीन बीघों में से मैंने दो बीघे बेचने का फ़ैसला माँ से चोरी किया था। मैंने मघ्घर सिंह से यह कहकर सौदा किया था कि कुछ सालों के लिए यह ज़मीन वह मुझे ही ठेके पर देता रहेगा। मैं बाज़ार के भाव से उसे ठेके की कीमत अदा करता रहूँगा। इस तरह लोगों को पता भी नहीं लगेगा कि मैंने ज़मीन बेच दी है। दो-चार साल तो बात छिपी ही रहेगी। उसके बाद मुझे आस थी कि मेरे परिवार का कोई काम ठीक हो जाएगा। 'ठीक हो जाने का' यह सपना सड़क पर दिखते पानी की तरह मुझसे दूर दूर ही रहा।
       ''हाँ माँ, ठीक है। तूने सच ही सुना है।'' मैंने कहा।
       ''रे तुझे क्या विपदा पड़ गई ? तूने किसके पैसे चढ़ा लिए सर पे ? तेरा तो बेटा भी नौकरी करता है ?''
       मेरी 'हाँ' सुनकर माँ का मुँह उतर गया। माँ को बता किसने दिया ? लोगों ने मुझको मघ्घर के साथ कचेहरी में आता-जाता देख लिया होगा। मेरा उतरा हुआ चेहरा भी तो लोगों को कुछ न कुछ बताता ही होगा। बताती तो मघ्घर के चेहरे की खुशी भी कुछ न कुछ होगी ही। मुझे माँ को पता चल जाने का सचमुच दुख हुआ। पहले जब भजने ने बेटा-बेटी के ब्याह के बाद इकट्ठे ही चार बीघे बेचे थे तो माँ ने चारपाई पकड़ ली थी।
       भजने का बेटा काम नहीं करता। बेटे को सुधारने के लिए उसने उसका विवाह कर दिया। खर्चा कम हो यह सोचकर बेटा-बेटी का विवाह एकसाथ कर लिया। दोनों विवाहों के पैसे इतने हो गए कि भजने को ज़मीन बेचनी पड़ गई। उसका तीन बीघे बेचकर गुजारा हो सकता था, पर उसने चार बेचे। सोचा, बार-बार बेचकर शर्मिन्दगी क्यों मोल ले। एकबार तो बदनामी होनी ही है। चौथे बीघे के पैसों से कोई काम करेंगे। खेती में से अब क्या निकलना है। और नहीं तो ब्याज पर दे देंगे।
       ''ज़मीनें नहीं अब अपने जैसे जमींदारों के पास रहने वालीं। कोई पहले, कोई बाद में सब बेचेेंगे...'' भजने ने मानो मेरे पास अपनी सफाई दी थी।
       ''अपने पड़ोसियों की ओर देख ले। नाजर के पास अपने जितनी ज़मीन है। ब्याज पर पैसा चलता है...'' मैंने अपना उदाहरण नहीं दिया था। उस समय मेरी भी कबीलदारी निबटाने को पड़ी थी। करमो और जीतो के ब्याह आगे पड़े थे।
       ''नाजर, उनकी कोई ज़िन्दगी है ? सारा दिन खेतों में घुसे रहते हैं। समय से नहाना नहीं, धोना नहीं। बगलों में से इनके बू आती है। दाल-सब्जी ये कभी नहीं धरते। साले मिरचों की चटनी से ही रोटी खाए जाते हैं। लड़की को दिया है कुछ ? अपने जैसे कीड़ों पर फेंक दिया उसको, मुड़कर बात नहीं पूछी कभी कि सुखी बसती है या दुखी। ऐसी ज़िन्दगी से तो बन्दा मर ही जाए।'' भजना अलग होने के बाद कुछ और तरह से ही सोचने लगा था।
       ''कल को बच्चे होंगे, बड़े होंगे, उनको क्या जवाब देगा ?'' मैं भजने को कहना चाहता था, पर चुप ही रहा। अब माँ मेरे सामने बैठी थी। मुझे उसको जवाब देना था।
       ''माँ, मैंने अपनी सारी कबीलदारी निभाई है। तीन ब्याह किए हैं। निन्दर के ब्याह पर खर्चा बहुत कम हुआ, पर जीती के विवाह पर तीन लाख लग गया। अगर और अच्छा लड़का ढूँढ़ने लग जाते तो कार भी देनी पड़ती। कार के खर्चे से बचने के लिए मैंने बी.ए. पढ़ी लड़की को नौवीं फेल लड़के के साथ भेज दिया। अब इससे माड़ा लड़का क्या मिलता ? अपने खून को यूँ फेंका भी नहीं जाता। फिर करमे का ब्याह किया। न करते करते भी अस्सी हज़ार लग गया। ऊपर से घर के खर्च ही साँस नहीं लेने देते।'' मैंने माँ के आगे सारा चिट्ठा खोलकर सुना दिया।
       तीन ब्याहों के बाद मैं रबी-खरीफ़ पर पैसे उतारने का यत्न करता, पर हर फ़सल के बाद जब मैं हिसाब करता तो पैसे पहले से भी ज्यादा मेरे सर पर खड़े होते। कर्ज़ा बढ़ता चला गया। मैंने निन्दर के साथ बात की। सोच-विचार कर निन्दर गाँव आया। उसने हम दोनों भाइयों को बिठाकर टै्रक्टर और सारे औजार बेचने की सलाह दी।
       ''रे निन्दरे ! टैक्टर न बेचना रे। ये मेरे पुत्तों की जवानी की कमाई है रे। लोग देखने आया करते हैं... और यह तो मेरा तीसरा बेटा है रे...'' हमारी बातें सुनती हटकर पीढ़ी पर बैठी माँ ने वास्ता डाला था।
       माँ ने दस साल पहले तब भी मैसी को बेचने नहीं दिया था जब लोगों ने दूसरे चले नये ट्रैक्टर खरीद लिए थे।
       ''रे इसी से काम चलाये जाओ, कहाँ नये की किस्तें भरते फिरोगे। और नया पता नहीं कैसा निकले। यह तो देखा-परखा है। बस, मरगाटें ही तो नहीं हैं, और तो कोई इसमें कमी नहीं। इसने तो ढंग की रोटी खाने लायक बनाया है।'' उस समय माँ ने कहा था।
       ''माँ, यह पुराना हो गया है। तीसरे महीने तो वर्कशाप ले जाना पड़ता है। अगर ज़मीन बेचे बिना बात बन जाए तो टै्रक्टर का क्या है, फिर ले लेंगे। अगर ये दोनों मेहनत करेंगे तो ट्रैक्टर लेना कोई कठिन नहीं। अगर नहीं करेंगे तो इनकी मर्जी।'' निन्दर ने कहा था।
       ''रे, फिर कहाँ लिया जाएगा, मेरे बेटों ने मुश्किल से तो लिया था, उस समय तो पच्चीस हजार रुपया इकट्ठा होने पर नहीं आता था। अब तीन चार लाख का कहाँ से ले लेंगे ये। तीन लाख तो ठीकरी नहीं इकट्ठी होती। फिर कहाँ लिया जाना है।'' माँ को जैसे सच की समझ थी।
       जब मलकपुरिये वाले ग्राहक ट्रैक्टर को ले जाने वाले थे तो दोनों घरों के सदस्य अपने अपने दरवाजों में चुपचाप खड़े थे। माँ वैसी की वैसी बैठी रही थी चारपाई पर, सिर पकड़कर।
       अभी वह ट्रैक्टर के दुख में से निकली भी नहीं थी कि अगले दिन ट्राली के गाहक भी आ पहुँचे। पैसे ठीक मिल रहे थे, हमने बेचने की की। माँ सोटी खटखटाती हमारे पास आ पहुँची।
       ''रे इसको क्यूँ बेचते हो ? वेहड़ा(आँगन) बिल्कुल ही खाली हो जाएगा!'' माँ जैसे सती की जा रही बहू को बचाने का यत्न कर रही थी। भजना उसे अन्दर छोड़ आया।
       माँ निन्दर को अपने दूसरे दोनों पोतों से अच्छा समझती थी, जो पढ़-लिखकर नौकरी पर लग गया था। ख़ालसा स्कूल के उसूलों के अनुसार दाढ़ी-केश रखकर पगड़ी बांधता था, शहर में रहकर अपने बच्चे पालता था, साल-छमाही दादी को सूट सिला देता था, घर के हर सदस्य की चिन्ता करता था। जब ट्रैक्टर की बात चलती तो माँ निन्दर के प्रति अपनी रंजिश को छुपा न पाती। जब किराये पर खेत जोतने के लिए किसी का ट्रैक्टर लाया जाता तो वह कह उठती, ''घूमे जाओ अब लोगों के पीछे, अब तक तो वह चल फिर रहा होता खेत में, पर निन्दर तो हटा ही नहीं।''
       खेत जोतने या फ़सल कटाई के दिनों में सवेरे सवेरे लोगों के घरों में से ट्रैक्टर बाहर निकल निकल कर खेतों की तरफ जाते तो घर की दहलीज़ में बैठी माँ आह भर उठती, ''अपने घर में से नहीं निकलना अब मैसी ने।''
       जितने पैसे ट्रैक्टर और अन्य औजार आदि बेचकर उतारे थे, उतने ही साल बाद मोटर ने फिर चढ़ा दिए थे। पानी नीचे चले जाने के कारण लूम्बी की मोटर कतई जवाब दे गई। हमें लाख रुपया खर्च करके मछली पम्प लगवाना पड़ गया। अब ज़मीन बेचकर कर्ज़ा उतारने का एक ही रस्ता मेरे पास बचा था।
       ''रे ज़मीन न बेचना, जमींदार की माँ होती है ज़मीन, पता नहीं, अपने कितने बड़े-बुजुर्ग़ इस ज़मीन के सिर पर ज़िन्दगियाँ गुजार गए। तुम दोनों भाइयों को कौन से दुनिया से बाहर के खर्चे हो गए ? पहले उसने बेच डाली, अब तू खत्म कर ले।'' माँ ने दोनों हाथों में पकड़े सोटी के सिरे से सिर टिका लिया।
       ''माँ, तू मुझे यह बता कि मैं कौन सा खर्चा न करता ? लड़की को किसी भूखे-नंगे के घर फेंक देता या बेटे के विवाह में बहू के लिए वरी न लेकर जाता ? और बता, अब क्या करें, टेलीफोन कटवाते हैं तो टेलीफोन के बिना गुजारा नहीं, बिजली का कनैक्शन हम कटवा नहीं सकते। केबल करमा नहीं कटवाने देता। अब बता स्कूटर न चलाएँ कि बस न चढ़ें ? सिनमे-क्लब हम जाते नहीं...'' मैंने माँ को घर के हालात से वाकिफ़ करवाते हुए कहा।
       ''अगर ज़मीन नहीं बेचते तो कर्ज़ा दुगना-चौगुना होता जाता है, उतारना तो हमको ही पड़ेगा न।'' पाशो ने कहा।
       ''निन्दर को कह, वो उतारे।'' माँ ज़मीन बचाना चाहती थी।
       ''उसकी तनख्वाह से तो उसके अपने परिवार का गुजारा मुश्किल से चलता है। स्कूल मास्टरों की कौन सी तनख्वाह होती है बीबी ! ऊपर से कोई कमाई ये नहीं कर सकते। अगर उसकी घरवाली ट्यूशनें न पढ़ाये तो वे शहर में रह नहीं सकते।'' मैं निन्दर की हालत समझता था। पहले मुझे भी यकीन नहीं आता था। मुझे सारे दुखों की दवा निन्दर ही लगता था। जब उसकी नौकरी लगी तो मुझे लगता था कि अब हमारे परिवार की डूबती नैया पार लग जाएगी। लेकिन यह मेरा भ्रम ही था। जीती के ब्याह पर निन्दर ने मेरी पचास हजार की मदद कर्जा उठाकर की थी। दो साल जैसे तैसे होकर कर्जे की किस्तें उतारता रहा। अब मकान खरीदने का खर्चा सामने खड़ा है। शहर में मकान लेना कौन-सा खाला जी का वाड़ा है। पी.टी. मास्टर लगा होने के कारण उसको रहना भी स्कूल के नज़दीक होता है। बच्चों को सुबह-शाम खेल खिलाने होते हैं।
       ''लोगों का बनेगा क्या ? अपने गाँव के कितने ही घरों ने ज़मीन बेच ली, किसी ने थोड़ी, किसी ने ज्यादा।'' पाशो ने कहा।
       ''अगर एक बार बेच ले तो बन्दे का मुँह पड़ जाता है। लोगों की शरम मानने से हट जाता है। फिर धीरे धीरे सारी बेच देता है।'' माँ ने ज़िन्दगी का निचोड़ निकाला। कुछ देर चुप रहकर माँ फिर बोली, ''तू कम बेच ले, एक किल्ले में नहीं बनती बात ?''
       ''तेरा पोता करमा कहता है, मुझे बाहर भेजो। मुझे इतनी ज़मीन पर खेती नहीं करनी। इसीलिए मैंने दो किल्ले का सौदा कर लिया।'' मैंने बताया।
       मैंने जिस दिन मघ्घर सिंह से बयाना पकड़ा था, उसके अगले दिन निन्दर और उसकी घरवाली सुखराज पहुँच गए। वे यूँ ही आए थे। पर बेटे-बहू से बात छिपानी जायज़ नहीं थी। मैंने दोनों का बिठाकर बात चलाई, ''निन्दर, तू तो जानता ही है, हमें आढ़तिये का पैसा लौटाना है, ब्याज पर ब्याज बढ़ता जाता है।''
       ''क्यों, पैसा अभी उतारा नहीं गया, इतने साल हो गए ?'' वे दोनों एकसाथ ही बोले।
       ''पैसे मैं कैसे उतारता ? खेती में से बचता ही क्या है ? मैंने तो ट्रैक्टर बेचने से पहले स्कूल के पास वाला फॉर्म भी ठेके पर लेकर देख लिया। इतनी मेहनत की, पर रत्ती न बचा। पैसे ब्याज लग लगकर बढ़े जाते हैं।'' मैंने कहा।
       मेरा कसूर बस इतना ही था कि मैं खेती में से कर्जा उतारने की उम्मींद लगाये बैठा रहा जब कि खेती में से तो बस मुश्किल से घर का गुजारा ही हो सकता था, जैसे नाज़र सिंह करता है। टेलीफोन लगवाया ही नहीं। स्कूटर का तो लोगों को पता ही नहीं कि उसके है भी कि नहीं। छह छह महीने बाहर ही नहीं निकालते। केबल की जगह छतरी-सी से काम निकाले जाते हैं। नाजर का पोता रोज़ शाम कोठे पर चढ़कर ऐंटीना घुमाता रहता है और नीचे की ओर मुँह करके अपनी माँ से कहता है - ऐ मम्मी, देखना डी.डी. वन चल पड़ा ? वह छतरी को ठीक करने पर रोज़ इतना वक्त लगाता है, देखने के लिए पता नहीं कितना वक्त बचता होगा। लोगों ने उसका नाम ही डी.डी.वन रखा हुआ है।
       ''फिर अब ?'' निन्दर ने पूछा।
       ''ज़मीन बेचनी पड़ेगी। नहीं तो यह कर्जा सारी ज़मीन को ले बैठेगा।'' मैंने सच छुपा लिया। यह बेटे-बहू का कौन सा भय था कि मैं सच बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।
       ''हमारे हिस्से की ज़मीन को हाथ न लगाना, हमने अपने नैवी के भविष्य का भी ख़याल रखना है। मैं नैवी के हिस्से की ज़मीन नहीं बेचने दूँगी। हमने आपसे कभी कुछ नहीं लिया। अपना कर्जा जैसे चाहे उतारो।'' निन्दर की बीवी सुखराज ने हाथ मारकर कहा। दूर खेलता नैवी अपनी बात सुनकर करीब आ गया। वैसे भी उसका स्वभाव है, घर में तू-तू, मैं-मैं वाला माहौल हो तो चुप रहता है, सारी बात ध्यान से सुनता है।
       ''ज़मीन तो भाई इन्होंने एक तरह से बेच दी है, बयाना पकड़ लिया है, सच बात तो यह है।'' करमे की घरवाली रमन ने आकर सबकुछ सच सच बता दिया। मुझे बहुत गुस्सा आया। अब बहू-बेटी को बन्दा क्या कहे।
       ''बेच भी ली ?'' बड़ा बेटा और बहू दोनों एक साथ बोले। बहू रोने लग पड़ी। नैवी अपनी मम्मी को रोता देख दौड़ा आया। पहले अपनी मम्मी के साथ लगकर खड़ा हो गया, फिर मेरी तरफ उंगली का पिस्तौल बनाकर बोला, ''बड़े पापा, अगर मेरी ज़मीन बेची तो मैं आपको सुपरमैन से मरवा दूँगा।''
       मैंने उसे पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह मेरा हाथ झटककर अपनी मम्मी के पास चला गया। मेरा मन बेइंतहा उदास हो उठा। पूरे परिवार में मैं दोषी बना बैठा था। मानो सारा कसूर मेरा ही हो। था भी तो मेरा ही। मैंने उनको पैदा किया था, पाला था, पढ़ाया था, ब्याहा था। यह सबकुछ करते कराते ही मैं कहीं बाजी हार गया था।
       ''फिर हमसे छिपाकर क्यों रखा आपने ?'' निन्दर ने सवाल किया।
       ''तू बेचने नहीं देता और बेचे बिना गुजारा नहीं था।'' मैंने झूठ बोलने का सच्चा कारण बताया।
       ''कितनी बेची है ?''
       ''करमा के हिस्से के दो किल्ले। पहले हम कर्जा उतारेंगे, जो पैसे बचेंगे, उनसे करमे को बाहर भेजेंगे।'' मुझे स्थिति नियंत्रण में होती-सी लगी।
       ''यहाँ तो इसने ढंग से काम नहीं किया, उधर जाकर कौन से झंडे गाड़ देना।'' निन्दर ने करमे की ओर देखा।
       ''और तू करता है काम मेरी जगह ?'' हटकर बैठा करमा आँखें निकालने लगा।
       ''पापा, ठीक है जो आपने कर लिया। हम हमारे हिस्से की ज़मीन निन्दर के नाम लगवा दो।'' सुखराज ने ऑंखें पोंछकर, गला साफ़ करते हुए कहा। मैं उसकी बात पर एकदम चौंक पड़ा। बहू ने इतनी बड़ी बात सोच कैसे ली ! ''अपने जीते जी भाई मैं ज़मीन तुम्हारे नाम कैसे लगा दूँ ? मैं अपने हाथ कैसे कटवा लूँ ? अभी तो हमारी माँ बैठी है जिन्दा।''
       ''तू चुप कर सुखराज।'' निन्दर बोला।
       ''चुप कैसे रहूँ ? मेरे बाप ने तीन किल्ले देखकर रिश्ता किया था। इन्होंने ने तोड़-तोड़कर खाना शुरू कर दिया। अपने साथ पता है क्या होना है निन्दर ? अगर इनका बाहर के देश जाने का काम न बना तो इन्होंने सारे के सारे पैसे मिट्टी में मिला देने हैं। फिर कहेंगे, निन्दर तेरे पास तो नौकरी है, तू करमे पर दया कर, चार किल्ले जो बचे हैं, उनमें से आधे ये फिर उसको देंगे, यही होता आया है...।''
       ''मैं धार नहीं मारता तुम्हारे हिस्से पर, बड़े आए दया करने वाले।'' करमा उठकर खड़ा हो गया। मुझको लगा, टंटा अब पड़ा कि पड़ा। मैं लोगों का तमाशा दिखाने से डरता था। मैंने देखा, नैवी डरकर अपने पापा की गोद में जा दुबका। इसी तरह यह निन्दर भी किया करता था। जब भी मेरे और भजने के बीच 'तू तू, मैं मैं' हो जाती, तो यह आकर मेरी गोदी में बैठ जाता। है तो यह मेरा ही विस्तार, पर अब कैसे बेगाने बने बैठे हैं !
       ''लड़के ! भाषा शुद्ध रख अपनी! तेरी बड़ी भाभी है वो। थप्पड़ मारूँगी खींचकर अगर दुबारा बोला तो।'' अब तक चुप बैठी पाशो करमे पर लपकी।
       मैं निन्दर की ओर देखे जा रहा था। उसको अपनी घरवाली की बात समझ में आ गई थी। वह कोई फैसला ले रहा था। सुखराज बोली, ''पापा जी, ज़मीन तो अब आपने बेच ही ली है, हमें हमारा हिस्सा दे दो ! मैं आपके बेटे को शहर के किराये के मकान में डरते-सहमते रहते देख नहीं सकती। हमसे स्कूल की तनख्वाह से शहर में मकान कहाँ बनेगा।''
       ''मैं तो डरता झेंपता जैसे रहता था, रहे जाता था। आपको ज़मीन बेचने के लिए कभी नहीं कहा था। पर आपने तो कमाल ही कर दी, मुझसे पूछा तक नहीं ! मैंने इस घर के लिए क्या-क्या नहीं करता ? ठीक है, सुखराज ठीक कह रही है। हम क्यों किराये के मकानों में धक्के खाते फिरें? ज़मीन के पैसों में से आधे पैसे हमको दे दो।''
       उधर करमा कहे, मैंने ज़मीन अपने हिस्से में से बेची है। मुझे बाहर जाना है। अगर तू आधे पैसे ले गया तो मेरे बाहर जाने के लिए पैसे कम पड़ जाएँगे। निन्दर कहे, तुमने मेरी सलाह क्यों नहीं ली। ज़मीन तेरे नाम तो नहीं लिखी हुई। निन्दर और सुखराज तो किसी भी हालत में झुकने को तैयार नहीं थे। लड़ाई-झगड़े के बढ़ जाने के डर से मैंने करमे को चुप हो जाने के लिए कहा। मैंने निन्दर की बात मान ली। मैंने उसको कर्ज़ का हिस्सा उठाने के लिए कहा, पर निन्दर माना नहीं। बोला- मैं कौन सा घर से कुछ लेकर गया हूँ। इतने सालों से हाथ झाड़ ही रहा हूँ। जीती के विवाह में मदद की। मैं गाँव वाला घर इस छोटे के लिए छोड़ रहा हूँ। मैंने मेहनत की, पढ़-लिखकर नौकरी लगा। कर्ज़ा आपने खुद उठाया है। करमा काम ढंग से करता नहीं, भइयों से काम करवाता है।
       रजिस्ट्री होते ही हमने एक बीघे के पैसे निन्दर को दे दिए। करमा ही देकर आया था। निन्दर ने उन पैसों से और कुछ लोन लेकर शहर में मकान खरीद लिया। वेतन मिलते ही वह  लोन की किस्त भर देता।
       करमे का बाहर जाने का काम बन नहीं पा रहा। वह एजेंटों के पास दौड़ता-भागता रहता है। उसके हिस्से के पैसों में से कुछ तो कर्ज़ा उतारने में लग गए। बाकी बैंक में जमा थे। वक्त-बेवक्त ज़रूरत के समय इन पैसों में से पैसे निकलते रहते। मुझे करमे के कम होते जाते पैसों की चिन्ता खाये जाती। मैंने सब्जियाँ बो लीं। फरवरी के महीने में बरसीम वाला आधा बीघा जोत लिया। मैं सब्जियों वाला प्रयोग करके देखना चाहता था। मलेरकोटले के मियां लोग बीघा बीघा ज़मीन पर फोर्ड ट्रैक्टर रखे बैठे थे। मैंने कद्दू, पेठा और भिंडी बो दिए। सब्जियों की फसल मेहनत बहुत मांगती है। दिनभर खुरपा लेकर खेत में रहना पड़ता है। मलेरकोटले की मियां लोग तो पूरे परिवार को टै्रक्टर पर लादकर खेत में ले आते। शाम को घर लौटते। यहाँ न पाशो आ सकती थी और न हमारी बहू रमन। करमा कभी कभी चक्कर लगाता। ज्यादातर वह एजेंटों की ओर ही गया रहता। स्प्रे वही करता। कद्दू को लाल भूंडी से बचाने के लिए सेवन दवा लेकर आए। पेठे और भिंडी पर इंडोसलफान की स्प्रे होती। इन दवाइयों का खर्चा बहुत था।
       शाम को मैं बस्ती में से किसी को साथ लगाकर सब्जी तुड़वा लेता। वह एक तो सब्जी तुड़वा जाता और साथ ही, अपने लिए भी ले जाता। सवेरे साढ़े पाँच बजते ही मैं बोरी को स्कूटर के पीछे बांध कर शहर की मंडी की ओर चल पड़ता। अगेती सब्जी को आढ़तिये तोलकर लेते। सीज़न वाली सब्जी की बोरी या गाँठ का ही सौदा होता। सस्ती होने के कारण किलो, दो किलो का फ़र्क़ कोई मायने नहीं रखता था। कभी कभी पैसे बचते, पर अधिकतर मैं जितने पैसे कमाता, वे सब घर के सौदों में या स्प्रे वाली दवाई पर ही खत्म हो जाते। मंडी से फुर्सत पाकर मैं निन्दर की तरफ चला जाता। उनके लिए सब्जियाँ ले जाता। सवेर की रोटी मैं वहीं खाता। नैवी मेरे पास आ बैठता। हम दादा-पोता एक ही थाली में खाते।
       ''हमारा बेटा पढ़कर क्या बनेगा ?'' मैं पूछता।
       ''जज बनूँगा बड़े पापा।'' वह कहता।
       एक दिन उसने टेलीविज़न पर ख़बरों में एक जज को गिरफ्तार होते देख लिया। देखते-देखते उसने अपना फैसला बदल लिया।
       ''बड़े पापा, मैं तो अमरीका जाऊँगा। इंडिया तो गन्दा देश है। यहाँ तो जजों को भी पुलिस वाले पकड़ लेते हैं।''
       शहर से लौटकर मैं फिर सब्जियों की देखभाल में लग जाता।
       ''ताया, अगर पैसे बनाने हैं तो खुद मंडी में जाया करो, जो सुबह-सुबह लगती है।'' बस्ती वाला कपूरा मुझसे कहने लगा। वह स्वयं शहर से सब्जी लाकर गाँवों में फेरी लगाता था। कभी-कभार वह मुझसे भी सब्जी खरीदकर ले जाता।
       ''कपूरे, मैं अब अच्छा लगूँगा, भइयों के बराबर बैठकर सब्जी बेचता।'' असल में, मन तो मेरा भी करता था, पर मैं कपूरे से कोई हौसला बढ़ाने की दलील सुनना चाहता था।
       ''क्यों ? इसमें अच्छा लगने की क्या बात है ? पैसे बचते हैं। और फिर अपनी मंडी में तो बहुत सारे जट्ट-जमींदार बैठे होते हैं। कई तो ट्रैक्टर-ट्राली लेकर आते हैं, ट्राली में बैठे बैठे ही तोले जाते हैं।'' कपूरे को सब जानकारी थी।
       मुझे अपने ट्रैक्टर मैसी की याद हो आई। ट्राली के पीछे लिखा, फीका पड़ चुका - ''जय जवान, जय किसान'' याद आया। कपूरे की दलीलों ने मुझे भीतर से तैयार कर दिया। एक दिन मैं तराजू और बाट खरीद लाया। पत्नी पाशो ने देखा तो बोली-
       ''यह क्या ?''
       ''सब्जी मैं खुद बेचा करूँगा ?''
       ''शर्म तो नहीं आती, बेटा मास्टर लगा हुआ है, नीची जात के मजदूरों वाले काम करेगा अब ये। इन्हें वापस करके आओ, जहाँ से लाए हो।'' पाशो की खूबसूरती में अभी भी कोई रम्ज़ थी।
       ''लड़का तुझे खाने को नहीं देने वाला। और वो बहू देगी जो ज़मीन बेचने पर रोने-धोने बैठे गई थी। जब तक आदमी के हाथ पैर चलते हों, उसको दूसरों के हाथों की ओर झांकना भी नहीं चाहिए। वह भी कोई आदमी है जो दूसरों के हाथों की तरफ देखता रहे। और फिर, मंडी में से कुछ नहीं बचता। वहाँ मुनाफा तो आढतिये और रेहड़ी वाले खाए जाते हैं। मैं तो अपनी मंडी में जाऊँगा, वहाँ शहरी लोगों को खुद बेचूँगा सीधे।'' मैंने कहा।
       मैंने अपनी मंडी में जाना प्रारंभ कर दिया। मैंने देखा, शहर के व्यापारी और कर्मचारी मंहगी सब्जियाँ बहुत खरीदते। चढ़ते साल का नया नया उतरा मटर मंहगा था, पर झटपट बिक जाता। कई शहरिये हिसाब में चालाकी बरतते, वे मुझे अनपढ़ जट्ट समझते। मैं पुराने जमाने का नौ कक्षा पास उनकी रग-रग से परिचित होता चला गया। वैसे हिसाब-किताब में चतुराई तो मेरा सगा बेटा निन्दर भी दिखा ही गया था। कर्ज़ा अकेले करमे की वजह से ही तो नहीं चढ़ा था। ये तो चलते घर के खर्चे ही थे जो कर्ज़ा बन गए। निन्दर को कर्ज़े का कुछ हिस्सा ज़रूर उठाना चाहिए था। और फिर करमे ने अपने हिस्से की ज़मीन बेची तो थी बाहर जाने के लिए, पर वे दोनों आकर फालतू का लफड़ा डालकर बैठ गए। पैसे लेकर ये गए, वो गए। मकान ले लिया। अब मारूति कार लेने को घूमता है। कहता है, स्कूल से एरियर मिला है। करमे बेचारे के हिस्से वाले पैसें में से तो आधा पैसा कर्ज़ा उतारने में ही लग गया। बाकी बचे तीन लाख से अब वह किस देश में जाए ? अच्छे देशों के भाव तो दस-दस लाख से ऊपर चल रहे हैं।
       फुर्सत पाकर बगल के सब्जीवाले ने बात चलाई, ''मैं तुम्हारे गाँव वाले पंडित के पास जाता रहता हूँ, पूछताछ के लिए। वैसे किस भाईचारे में से हो ?''
       मुझे एकदम कोई जवाब न सूझा। सोचा, यह बीस लोगों से बात करेगा मजा लेकर।
       ''बस्ती में से हैं...'' मैंने कह दिया।
       ''फिर तो अपना एक ही भाईचारा हुआ,'' वह बोला। वह उच्चे गाँव से था। सब्जी मंडी में से सब्जी लाकर बेचता था।
       'अपनी मंडी' में भइयों और रेहड़ी वालों की भी कमी नहीं थी। ट्रैक्टर ट्रालियों वाले भी आते। मैं अपनी जगह पर स्कूटर खड़ा करके पल्ली बिछा लेता। फिर सब्जी की ढेरियाँ पल्ली पर लगाता। तराजू सामने रखकर मैं पालथी मारकर बैठ जाता। शहर के लोग झोले लेकर आते। सब्जियाँ खरीद कर लौटते रहते। उस दिन मेरा चौथा दिन था। मुझे वहाँ सब्जियाँ खरीदती सुखजीत बहन जी दिखाई दे गई। मेरा शरीर पसीने से नहा उठा। यह किधर से आ गई ? मेरी समझ में नहीं आ रहा था, क्या करूँ ? मेरी हालत पाड़ में रंगे हाथों पकड़े गए चोर जैसी हो गई। मंडी तक आने के लिए घड़ी हुई सारी दलीलें पल भर में बिखर गईं। मैं अपना ठीया छोड़कर बीपुरिये वाले जैले की ट्राली के पास जा खड़ा हुआ।
       रिश्ते का वह कौन सा धागा था जो अभी तक टूटा नहीं था।
       इस धागे के अस्तित्व का अहसास मुझे तब भी हुआ था जब सुखजीत की बदली हमारे गाँव के स्कूल में हुई थी। स्कूल में पढ़ते निन्दर ने मुझे अपनी नई बहन-जी के बारे में बताया था तो मेरा दिल तेजी से धड़क उठा था।
       तीन बच्चों का पिता होने के बावजूद मेरा ध्यान स्कूल की तरफ ही रहता। यह सुखजीत की स्कूल में उपस्थिति ही थी जिसने मुझे रजवाहे के साथ वाला फार्म छोड़कर स्कूल के पास वाला फार्म ज्यादा बोली देकर लेने के लिए मज़बूर कर दिया था। फिर कितने ही साल स्कूल के पास वाला पंचायती फार्म मेरे और भजने के पास ही रहा था। स्कूल में इधर-उधर जाती सुखजीत मुझे दिखाई दे जाती। निन्दर, करमा और जीती तीनों उसके पास पढ़ रहे थे। ये तीनों बच्चे उसके पुराने मंगेतर निरमैल सिंह के हैं, यह बात वह जान गई थी। उसने जीती से हमारे परिवार के बारे में कईबार पूछा था। यूँ तो वह सभी बच्चों का ही बहुत ख़याल रखती, पर मेरे तीनों बच्चों का ख़याल वह हर तरह से कुछ अधिक ही रखती। मैंने अपने बच्चों को कह रखा था कि दबे हुए मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिएँ। मेरे बच्चे घर में तो बेशक हँसी-मजाक में मेरे रिश्ते वाली बात बार बार छेड़ते रहते थे, पर स्कूल में किसी को कुछ नहीं बताया था। करमा शरारती था, पढ़ता भी कम, लेकिन सुखजीत की क्लास में वह भी शरीफ बनकर रहता। मैं स्कूल में कई बार गया। सुखजीत से सामना भी हुआ।
       हम सब चुपचाप एक टूट चुके रिश्ते का सम्मान किए जा रहे थे।
       उन दिनों में हम दोनों भाइयों की गाँव में खूब चढ़त थी। भजना दस साल पंच रहा। बेली सरपंच हमको अपने साथ साथ रखता। हर फ़ैसला हमसे पूछकर करता। स्कूल में कोई झगड़ा होता, सरपंच मुझे पढ़ा-लिखा समझकर अपने साथ ले जाता। सुखजीत के मन में मेरे गाँव से कोई लगाव था या वैसे ही उसका स्वभाव मेहनती था, वह बच्चों को खूब मेहनत करवाती। स्वभाव की थोड़ी सख्त भी थी। हाथ में डंडा रखती। बच्चे पीठ पीछे भी 'सुखजीत भैण जी, सुखजीत भैण जी' करते रहते। उसका घरवाला किसी दूसरे स्कूल में मास्टर था। वह जाते हुए स्कूटर से उसको उतार जाता।  छुट्टी के बाद लौटते हुए स्कूटर पर बिठा लेता। मैं उसको जब भी स्कूटर पर बैठते या उतरते देखता तो मेरे मन में उथल-पुथल होने लग जाती। पर जल्द ही मैं इसको शांत कर लेता।
       उथल-पुथल तो अब मंडी में खड़े हुए भी मेरे अन्दर मची हुई थी, पर मैं उसे शांत नहीं कर पा रहा था। एक ऑंख सुखजीत की ओर रखकर मैं जैले के ट्रैक्टर के फट्टे पर बैठ जैले से बातें करने लगा-
       ''गोभी लगी जाती है।''
       ''लगे क्यों नहीं निरमैल सिंह, मलाई जैसी गोभी है... आ, ले जा... लेजा मलाई जैसी गोभी...ले जा दस रुपये की डेढ़ किलो...''
       मुझे बताने के लिए सूझे शब्द जैले न गाहकों को हांक मारने के लिए भी इस्तेमाल कर लिए। उसका बेटा गोभी तोले जा रहा था। जैला भी चरन दास आढ़तिये को ही फ़सल बेचा करता था। बोली के इंतज़ार में हम कई कई रातें मंडी में एकसाथ रहे थे।
       ''अब तो सारे साल ही आए जाती है ये गोभी,'' मैंने कहा। मेरी एक नज़र सुखजीत की ओर थी। वह मेरे ठीये से चौथे नंबर वाले ठीये पर भइये से भिंडी का भाव कर रही थी। भिंडियाँ तुलवाकर वह अगले सब्जीवाले से टमाटर लेने लग पड़ी। पैसे देकर उसने भइये से कुछ कहा। भइये ने एक मुट्ठी मिरचें उसके हाथ वाले लिफाफे में डाल दीं। सुखजीत मास्टरनी ने उसको पर्स में से निकाल कर कुछ चिल्लर और दी। भइये ने मिरचें मुफ्त में नहीं दी होंगी। मिरच तो मेरे पास खूब पड़ी थीं। पर क्या करूँ सुखजीत, मैं अब तेरा सामना नहीं सकता।
       चलती चलती वह मेरे ठीये पर आकर रुक गई। झुककर मटर देखने लगी। उच्चे गाँववाले मेरे पड़ोसी ने सिर घुमाकर आसपास देखा। मुझे खोजा। मैं उसको दिखाई नहीं दिया। वह आगे बढ़ गई। और ग्राहक भी आ आकर लौटते रहे। मैंने परवाह नहीं की। मैं बीपुरिये वाले जैले के साथ तब तक बात करता रहा, जब तक वह मंडी में से बाहर निकलकर एक गली में लुप्त नहीं हो गई।
       मैंने मंडी में जाना बन्द कर दिया। सब्जी कपूरे को बेच देता। या बड़ी मंडी में ले जाता। बोली पर बेच आता।
       ''क्या बात, तू अब तराजू-बट्टे लेकर नहीं जाता ?'' पाशो ने पूछा।
       ''क्या साला घटिया काम, मेरे से नहीं जाया जाता,'' मैं पगड़ी उतारकर जूड़े को कसकर बाँधने लगा।
       ''अब तो चार पैसे बचने लगे थे...'' वह बोली। मैं उसको सारा हिसाब देता था।
       ''बचत तो है पर भइयों के बराबर बैठना आसान नहीं,'' अभी मैंने उसको उच्चे गाँववाले की बात नहीं बताई थी।
       सर्दियाँ बीतीं तो मैंने सब्जियाँ नहीं बोईं। फिर जीरी लगा ली। सब्जियों से चार पैसे जुटे थे, वो अब खत्म होने शुरू हो गए। कुछ महीने बाद ही बेची हुई ज़मीन के पैसों में से भी पैसे खर्च होने लग पड़े। एक महीने टेलीफोन का बिल ज्यादा आ गया। मन ही मन मैं टेलीफोन महकमे पर भी खीझा - तुम भी उतार लो जो चमड़ी उतारनी है।
       ऊपर से बेटी का खर्चा सिर पर आ पड़ा। उसे बच्चा आपरेशन से हुआ। गुरू नानक अस्पताल वालों ने बिल अट्ठारह हजार का बना दिया। लड़की को विदा करने के बाद मुझे रुपये-पैसे की चिंता सताने लगी। रातों की नींद उड़ गई। करमे को बाहर भेजने के लिए रखे रुपये कम होने शुरू हो गए थे। उधर उसको एजेंट हाथ नहीं रखने दे रहा था।
       ''बेटी का इतना तो करना ही था। उसके ससुराल वाले तो ज़रा भी लालच नहीं करते। हमने कम से कम किया है...'' एक रात मुझे करवटें बदलते देख, पाशों मेरे पैताने आ बैठी।
       ''मुझे पता है, लड़की बेचारी क्या ले गई...'' मैंने कहा।
       हम आधी रात तक अपने अच्छे दिनों को याद करके दुखी होते रहे।
       एक दिन मैं लिबड़े से आ रहा था। माजरी वाले ऐतिहासिक गुरद्वारे के बाहर मैं पानी पीने के लिए रुका। वहाँ गेट के बाहर हमारे गाँव का प्रीतम ज्ञानी खड़ा था। वह ज़मीन बेच बाचकर कई सालों से गुरुद्वारे में पाठी बना हुआ था।
       ''बाबा जी, यहाँ कैसे ?'' मैंने पूछा।
       ''यहाँ निरमैल सिंह, अखण्ड पाठ आरम्भ हुआ है। ग्यारह पाठ रखे हुए हैं लड़ीवार।'' उसने गले में लटकाये हुए पटके से मुँह पर आ गया पसीना पोंछते हुए कहा।
       वह मुझे अन्दर लंगर में ले गया। दो गिलासों में चाय डलवा लाया।
       मर्द और औरतें इधर-उधर सेवा करते हुए आ-जा रहे थे।
       ''प्रीतम सिंह तुम्हें कितनी सेवा मिल जाती है ?'' मैंने पूछा।
       ''तीन सौ रुपया मिल जाता है। अगर तू खाली रहता है तो आ जाया कर, लंगर-पानी सब यहीं छकना है। पाठ तू पढ़ लेता है, मुझे मालूम है।'' फिर वह मेरे करीब होते हुए बोला, ''कपड़ा-लीड़ा और बादाम भी मिल जाता है, कौन सा ज़ोर लगना है। सोच ले, जब आना हो आ जाना, यहाँ पाठियों की ज़रूरत है।''
       सोचने तो मैं उसे देखते ही लग पड़ा था। उसे मेरे दिल की बात कैसे पता चल गई ? सच बात तो यह है कि गाँव में हमारे परिवार की हालत किसी से छिपी हुई नहीं थी। गाँव का हर आता-जाता आदमी हमारे चढ़े हुए काम को याद करके सिर मारने लगता। और तो और, भंत जैसे मोटी अक्ल के बन्दे को भी हमारी बुरी हालत का पता था।
       टोभे वालों का भंत एक दिन हमारे घर आकर करमे से बोला, ''करमे, हमने अपने लड़की धागा फैक्टरी में लगवानी है। अगर तूने अपनी घरवाली का नाम लिखवाना है तो लिखवा दे। फैक्टरी वालों की वैन आई हुई है।''
       ''चाचा, तेरा डमाग तो ठीक है ?'' सुनते ही करमे की ऑंखें लाल हो गईं।
       ''क्यों भाई, दिमाग को क्या हुआ ?'' भंत अपने ठिगने, पर चौड़े शरीर को संभालते हुए हैरानी से करमे की ओर देखने लगा।
       ''ये सीबो बूढ़ी का टब्बर है, सीबो बूढ़ी के पोतों की घरवालियाँ अब फैक्टरियों में धक्के खाएँगी ?'' करमा गुस्से में उसके करीब इस तरह जा खड़ा हुआ जैसे अभी कुछ कर देगा।
       ''क्यूँ ? मेरी लड़की नहीं जाएगी ?''
       ''तेरे टब्बर का हमारे टब्बर से फ़र्क ही नहीं कोई ?'' करमा उसके और अधिक करीब हुआ तो भंत डर गया। मुँह में बुदबुदाता हुआ वह पीछे की ओर लौट गया। मैंने करमे को भंत की मोटी अक्ल का ख़याल करवाया। मुझे स्वयं भंत की इस जुर्रत पर गुस्सा आ रहा था। लेकिन, अब प्रीतम सिंह की ज़र्रत पर मुझे गुस्सा नहीं आया। घर जाकर चुपचाप इधर-उधर टहलता मैं अपने आप को तैयार करता रहा।
       गुरद्वारे जाना और पाठ करना मेरे लिए पराये काम नहीं थे। मैंने चालीस साल पहले अमृत छका था। गुरद्वारे हालांकि कभी कभार जाऊँ, पर पाठ से तो मैंने एक दिन भी नागा नहीं किया था। इस पाठ और उस पाठ में फ़र्क़ था और इस फ़र्क़ को पार करने के सिवाय मेरे पास कोई चारा भी नहीं था।
       मैंने अगले दिन सवेरे नहा-धो कर नीली पगड़ी बाँधी और माजरी गुरद्वारा साहिब पहुँच गया। प्रीतम सिंह ने मुझे सब कुछ समझा दिया।
       तीन दिन मैं साइकिल पर जाता रहा। खर्चे से डर कर स्कूटर नहीं उठाया। तीन सौ रुपये तो कुल मिलने थे। यूँ भी वहाँ कोई स्कूटर मांग सकता था। कृपाण पहन रखी हो और बन्दा बन्दे के काम न आए, यह भी अच्छी बात नहीं।
       तीसरे दिन भोग के बाद मैं घर लौटा तो मैंने हाथ में पकड़ा बादामों, इलाइचियों और मिसरी वाला लिफाफा पाशों को थमा दिया।
       ''तू कहाँ से आया है ?'' उसने पूछा।
       मेरा जवाब सुनकर उसने मेरी ओर इस तरह देखा कि उसकी ताब मैं झेल न सका। मैंने अपने प्रति इतनी निराशा और दया कभी किसी की नज़रों में नहीं देखी थी।
       मैं पशुओं को चारा डालकर फिर माजरी की ओर चला गया। एक महीना माजरी में ही बीत गया। मैं कई बार दो दो दिन घर न लौटता। अखण्ड पाठ करने की बारी मेरी रात में पड़ती। अखण्ड पाठ करवाने वाला परिवार विदेश से आया हुआ था। उस परिवार ने ग्यारह पाठ की मन्नोती की हुई थी। गुरू घर का श्रद्धालू परिवार था। 'बाबा जी, बाबाजी' कहते उनका मुँह नहीं थकता था। अन्तिम पाठ के भोग के समय सभी पाठियों को सरोपे भेंट किए गए। हर पाठी को एक एक सफ़ेद वस्त्र दिया गया, कुरता-पायजामा सिलवाने के लिए। चलते समय मिठाई का एक एक डिब्बा भी दिया। प्रीतम सिंह ने भानरी वाले पाठी से मेरे हिस्से के पैसे ले दिए। बस एक ही बात खराब लगी। भानरी वाले ने हर पाठ में से अपना कमीशन बीस रुपये काट लिया था। मेरे दो सौ बीस रुपये कट गए। यह पाठ की साई दिलवाने का कमीशन था।
       मैंने आसपास के गाँवों में पाठों पर जाना प्रारंभ कर दिया। छोटे बेटे और बहू ने कोई विरोध न किया। एक दिन बस्ती के घरों के आगे से जा रहा था। बिशने व्यापारी ने रोक लिया। बिशना सारी उम्र भैंसों का व्यापार करके बच्चे पालता रहा था। उसका लड़का तेजा सिंह हमारे निन्दर के साथ पढ़ता रहा था। अब मास्टर लगा हुआ था।
       ''निरमैल सिंह ! तुझसे एक बात कहनी थी। कितनी तुम्हारी चढ़त रही है गाँव में... अब यह काम करता अच्छा नहीं लगता। मेरी बात का गुस्सा न करना।''
       ''बिशन सिंह, गुस्सा कैसा करना। पर रोटी तो अब खानी ही है, जो चार पैसे थे, खत्म हो गए।'' मैंने सचमुच बिशन सिंह की बात का गुस्सा नहीं किया था। वह बस्ती के सूझवान व्यक्तियों में था।
       ''क्यों, रोटी बेटा नहीं देता ? ईश्वर की कृपा से नौकरी पर लगा हुआ है। हम भी दोनों जन खाते ही हैं। तेजा ने कभी माथे पर शिकन नहीं आने दी।''
       ''यूँ तो रोटी से निन्दर भी नहीं भागता। पर मैं कहता हूँ, जब तब साँस चलते हैं, क्यों खाली बैठा जाए। क्यों किसी के हाथों की तरफ देखना। जब तेरी उम्र में आएँगे, फिर तो किसी के द्वारे बैठना ही पड़ेगा।'' मैंने कहा।
       ''फिर कोई दूसरा काम कर ले।''
       ''इस उम्र में अब और कौन सा काम कर लूँगा, बिशन सिंह ?'' मैंने अपनी बेबसी ज़ाहिर की। बूढे शरीर से तो ढोर-डंगर को भी संभालना कठिन होता जा रहा था। असल में, मैं पहली उम्र में ही शरीर से ज़रूरत से ज्यादा काम ले चुका था। शरीर का अंग अंग इस्तेमाल हो चुका था। करमे की शब्दों में कंडम हो चुका था।
       ''मेरी बात पर विचार करना निरमैल सिंह। तुम्हारे टब्बर ने बहुत यश कमाया है।''
       मैं चला आया था। बिशन सिंह की बातें मेरे इर्द गिर्द भिनभिनाती रहीं। यह बात नहीं कि गाँव में हमारे बाद किसी के काम ने शिखर नहीं छुए थे। परन्तु एक अन्तर था। किसी के काम में उन्नति अधिक ज़मीन होने के कारण हुई थी, किसी ने चढ़त गलत तरीके से कमाये पैसे से हासिल की थी, पर हमारा दोनों भाइयों का काम मेहनत के बलबूते पर ऊपर चढ़ा था। हम थोड़ी ज़मीन के बावजूद उन दिनों में अपने काम को पहले स्थान पर ले गए थे।
       यह भी नहीं था कि गाँव में और किसी का काम नीचे नहीं लगा था। नीचे लगे थे, पर हमारे काम के नीचे गिरने को अधिक महसूस किया गया था। हमने गाँव के साझे कामों में ट्रैक्टर हमेशा आधे पर भेजा, गाँव में नगर कीर्तन निकलता तो महाराज की सवारी हमेशा हमारी ट्राली में होती, चाहे रौणी के खेल हों, जरग का मेला हो या इस्तू के मेले पर कामरेडों के नाटक हों, ट्राली मेरी ही जाया करती। चार भाइयों ने कहा नहीं कि मैंने ट्रैक्टर-ट्राली बाहर निकाली नहीं।
       निन्दर और सुखराज को पता नहीं किसने बता दिया। वे मिलने के लिए आए हुए थे। करमा बरादमे में बैठा बादाम तोड़ रहा था। उसने मुट्ठी भरकर बादाम नैवी को पकड़ा दिए। सुखराज तुरन्त बोल उठी, ''शर्म तो नहीं आती होगी ? बादाम जैसे देखे नहीं कभी। किस चीज का घाटा था तुम्हें ? खबरदार नैवी, अगर एक गिरी भी खाई, चल वापस करके आ इसे।''
       सारा परिवार अवाक् रह गया। नैवी ने बादाम चाचा को लौटा दिए।
       ''पापा जी ! कुछ करने से पहले हमसे पूछ तो लिया करो। हम इतने तो गए-गुजरे नहीं कि आपको रोटी भी नहीं दे सकें। यह अच्छा काम ढूँढ़ा आपने ? लोग बातें कर रहे हैं।'' निन्दर ने कहा।
       ''क्यों, काम को क्या हो गया, यह महाराज पढ़ना कोई खराब काम है ? लोगों ने महाराज का मजाक बना रखा है। पाँच पढ़ते हैं, पच्चीस उलटते हैं। लोग जानते हुए भी डरने से ही हट जाते हैं। मैं ईमानदारी से पढ़ता हूँ, एक एक शब्द पढ़ता हूँ।'' मैंने कहा।
       ''आप लाख ईमानदारी से पढ़ो, पर लोगों में इस काम की ज़रा भी इज्ज़त नहीं। आपने सब्जियों का काम क्यों छोड़ा ? इस करमे को साथ लगाकर सब्जियाँ बोओ। मैं कहता हूँ, दो महीने घर में चक्कर न लगाओ तो परिवार के लक्षण ही बदल जाते हैं। उधर माता जी की तरफ देखो।'' निन्दर ने पाशो की ओर इशारा करके कहा, ''कैसे पटके की चुन्नी बनाकर ले रखी है। कल रूमालों के सूट बनवाने लग जाओगे। रंग तो आपको चढ़ना भी शुरू हो गया। मैं कहता हूँ, अगर मैं न पढ़ा होता, आपको रोकता कौन ? आप तो अब तक ठूठे लेकर मंगते बने होते।''
       मुझे निन्दर में से उसकी घरवाली बोलती सुनाई दी। यह लड़का तो ऐसा था ही नहीं। पाशो मानी ही नहीं थी, कहती थी, इसी लड़की का रिश्ता लेना है। लड़की अक्ल वाली है। देख ले, ज्याद अक्ल वाली के रंग। लड़के को नया नया पढ़ाकर ले आती है। बोलता तो देखो कैसे है! कहता है, अगर मैं न पढ़ा होता ! अरे, पढ़ाया किसने ? सातवीं तक तो मैं खुद माथा मारता रहा। फिर झण्डे मास्टर के पास ट्यूशन रखवाई। मास्टर को फीस भी देना और कपास की छिट्टियों के बालण की ट्राली अलग देनी। यही नहीं, गाजर-मूली खत्म न होने देते थे। यह सब इसलिए कि लड़का पढ़ जाए।
       पढ़ क्या गया निन्दर तो अब बात ही जालंधर से करता है। एक दिन ये आए हुए थे। करमे ने खाली दिनों में ट्रक ड्राइवरी शुरू कर दी थी। उस दिन भी वह गाँव के नाइयों के ट्रक का कांडला की ओर चक्कर लगाकर आया था। मैं भी बीस साल पहले एक बार मामा के ट्रक पर कांडला गया था। मैं करमे से उस इलाके के शहरों की बात कर रहा था। निन्दर हमारी तरफ उछल कर पड़ा, ''बाप-बेटा बातें देखो कैसे कर रहे हैं ? अपनी ज़मीन नहीं सम्भाली गई, ट्रैक्टर नहीं संभाला गया, अब नाइयों की गाड़ियों की ड्राइवरी करते फिरते हैं। इससे तो बन्दा गर्क ही हो जाए।''
       ठीक है, शर्म तो हमें भी आती है, पर आदमी ने जीना भी तो होता है। लड़का ड्राइवरी ही करता है, लूटपाट तो नहीं करता। मेहनत की कमाई करता है।
       और अब मेरे पाठ करने को, दस नाखूनों की कमाई करने को यही निन्दर बन्द करने को कह रहा था।
       ''चल मान ले बहू-बेटे की बात अगर रोक रहे हैं तो। चुप हो जा लड़के, नहीं जाता अब ये आगे से...'' इनकी माँ ने हथियार फेंक दिए।
       ''देखो तो... अरे, मैं कहता हूँ, इस टब्बर को हुआ क्या है ! मैं कोई कंजरियाँ नचाने जाता हूँ कि परिवार की बेइज्ज़ती होती है। गुरुद्वारे जाता हूँ, रब का नाम लेता हूँ, गुरबाणी पढ़ता हूँ। ठीक है, तुम कहते हो तो मैं नहीं जाता। घर के खर्चे संभालो फिर...'' बोलते हुए मैं उठकर घर से बाहर चला आया। पास ही पड़े एक कटे हुए दरख्त के तने पर बैठ गया। कुछ देर बाद खेलता-खेलता नैवी भी मेरे पास आकर बैठ गया।
       ''बड़े पापा, क्या हो गया था ?'' नैवी ने सारी बात सुन ली थी, फिर भी मुझसे पूछ रहा था।
       ''तेरे पापा का दिमाग खराब हो गया। घर में आते चार पैसे संभाले नहीं जाते...'' मैंने उसके गंजे सिर पर हाथ फेरा।
       ''सवेरे मेरे पापा कहते थे कि हमारे बूढ़े का दिमाग फिर गया है। ज्ञानी बना फिरता है। आपको कड़ाह खाने की तो पूरी मौज होती होगी ?''
       ''हाँ...'' मैंने मंद-मंद हँसकर कहा, ''जा, उन बच्चों के साथ खेल ले।''
       ''ऊँ हूँ... वे तो गन्दे हैं।'' उसने हमारे घरों के बच्चों को देखकर कंधे उचका कर कहा।
       ''तेरा बाप यही खेला करता था। अगर वो नौकरी पर न लगा होता तो बेटा तू यहीं लुक्कन-छिपाई खेलता होता।''
       मैंने फैसला किया कि अब मैं कोई काम नहीं करूँगा। करमा सारा काम संभाले। बन्दे को कभी तो ज़िन्दगी में आराम मिलना चाहिए। साठ साल के बाद तो सरकार भी रिटायर कर देती है। मैंने बड़ा काम किया है। मेरे जितना काम किसने किया होगा। पहले ट्रैक्टर चलाकर गीली ज़मीन का कद्दू करना, फिर मेड़ों को मिट्टी लगाना, घर को लौटते समय चार- पाँच गाँठें चारे की काट लाना। पहले कुतरा हाथों से करते थे, फिर जब खेत में बिजली वाली मोटर लगी तो हमने इंजन खेत में से घर लाकर गंडासे वाली मशीन में लगा लिया। गर्मियों में नलका गेड़ गेड़कर पशुओं को पानी से निहलाना। शाम को मच्छर से बचाने के लिए धुऑं करना। अब कौन से काम हैं ! नलके की जगह मछली पम्प लग गया। मोटर एक रह गई, वह भी ऑटोमेटिक चलती है। करमे को काम संभालना चाहिए।
       मैं चौपाल में जाकर बैठा रहता। अख़बार पढ़ लेता। ताश की बाज़ी लगा लेता। पर न जाने क्यों, मेरे पैरों के नीचे खुजली मची रहती। जिस आदमी ने उम्र भर काम किया हो, वह खाली नहीं बैठ सकता। मुझे भैंसें हाँफती सुनाई देतीं। मैं उठकर घर आ जाता। करमा कहीं गया होता तो बहू भैंसों के संग जूझती दिखाई देती। मैं सारा काम फिर से करने लग पड़ा।
       ''तेरे कर्मों में आराम नहीं है।'' पाशो कहती।
      
चढते साल करम की घरवाली ने बेटे को जन्म दिया। हम सब बारी बारी लड़का देखने गए। करमे की घरवाली रमन को उसके मायके वालों ने अस्पताल में दाख़िल करवा रखा था। जितने दिन वे अस्पताल रहे, रोटी निन्दर के घर से जाती रही। सुखराज आधा दिन अस्पताल में ही गुजारती। फिर छुट्टी मिल गई। हमने पंजीरी देकर आना था। मैं और पाशो दोनों शहर निन्दर के पास गए। उनको सामने खड़े खर्च के बारे में बताया। नए जन्मे लड़के को कम से एक तोला सोना तो डालना ही बनता था।
       रमन के मायके वालों को सूट चाहिए थे। बच्चे के कपड़े और खिलौने भी लेकर जाने थे।
       ''इतना खर्च करना ज़रूरी है ?'' निन्दर ने पूछा।
       मुझे बड़ा गुस्सा आया, पर मैं पी गया। मैंने कहा, ''बच्चे के जन्म की खुशी न मनाई जाए ? तेरी नहीं मनाई गई थी कि तेरे बेटे की नहीं मनाई गई ? यूँ भी दुनिया के व्यवहार से टूटकर जिया जाता है ?''
       ''यह तो जी करना ही पड़ता है,'' रसोई में से चाय लेकर आती सुखराज बोली।
       ''करना पड़ता है तो फिर डालो हिस्सा।'' मैं कहना चाहता था पर कहा नहीं। यह बात मैं और पाशो सोचकर ही गए थे कि उन्हें खर्चे के बारे में बता देना है, पैसे नहीं मांगने। यदि हिस्सा देंगे तो ठीक, नहीं तो न सही।
       हम लौट आए। मैंने ज़मीन वाले जमा किए हुए पैसों में से पैसे निकलवाकर सारा खर्च किया। रकम गलती देखकर मेरी नींद फिर गुम हो गई। जब ये पैसे खत्म हो गए, फिर क्या करेंगे! और ज़मीन बेचेंगे ! माँ की बात याद आ गई। आदमी जब पहली बार पुश्तैनी ज़मीन बेचता है तो शर्मिन्दगी महसूस करता है। जैसा कि पाशो महीना भर घर से बाहर नहीं निकली थी। दूसरी बार बेशर्म बन जाता है।
       अभी पंजीरी देकर आए को महीना भी नहीं बीता था कि हमारी माँ चल बसी। रात को सोये-सोये ही दम तोड़ गई। भजने ने सवेरे चार बजे आकर मुझे उठाया। मैं घबराकर एकदम उठा। भजना मेरे गले से लिपटकर रो पड़ा, ''माँ साथ छोड़ गई रे वीरे... हम दोनों रह गए ओए...।''
       कितनी ही देर हम एक-दूजे के गले लगकर रोते रहे। तब तक पाशो और करमा भी जाग गए। पाशो ने हम दोनों को अलग किया। मैं चारपाई पर पड़े माँ के शरीर से लिपट कर जी भरकर रोया। सभी रो रहे थे। हमारा रोना सुनकर अड़ोसी-पड़ोसी भी आ गए।
       मैंने निन्दर को फोन किया, ''निन्दर गाँव आ जाओ... बीबी नहीं रही।''
       मुझसे बात भी पूरी न हो सकी।
       दोपहर तक हमने माँ की चिता का आग दे दी।
       दूसरे दिन फूल चुगे गए। हफ्ते बाद भोग पड़ गया। हम माँ का दिया उतार नहीं सकते थे। हमने अपनी हैसियत के अनुसार सारी रस्में पूरी कीं। दोनों भाइयों का दस-दस हज़ार रुपये खर्चा आ गया। मुझे निन्दर से बहुत उम्मीद थी, पर उसने मुश्किल से दो हज़ार रुपये ही दिए।
       हमारी माँ को ज़मीने का दुख ले गया था। माँ से बड़े हमारे तीन मामा अभी जीवित थे। हमारे ननिहाल में लोग लम्बी उम्र भोग कर मरते थे। हमारे नाना-नानी अभी दस वर्ष पहले ही पूरे हुए थे। माँ अभी और जी लेती अगर उसे हमारे काम के नीचे लगने का दुख न खाता।
       मैंने अपनी ज़मीन को बचाने की एक आख़िरी कोशिश करने का निर्णय कर लिया। फरवरी के महीने में मैंने फिर सब्जियाँ बो दीं। मैं सारा दिन क्यारियों में गुड़ाई करता रहता। करमा कभी कभी ट्रक का चक्कर लगाने चला जाता। कभी मेरी मदद भी करता। दोपहर की रोटी मैं घर जाकर खाता। तीसरे पहर की चाय देने आई पाशो सूरज छिपने तक मेरे पास मेंड़ पर बैठी रहती। डूबते सूरज की किरणें उसके बूढ़े हुस्न को चमका देतीं। पाशो उम्र के 55 साल पार करके हुस्न का तीसरा पहर संभाले बैठी थी। उसको इस तरह देखते हुए मुझे सुखजीत बहन जी की याद आ गई। इस बार मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि मैं उसको देखकर मंडी नहीं छोड़ूंगा।
       जब सब्जियाँ उतरने लगीं, मैंने अपने तराजू और बाट निकाल लिए। मैंने मंडी में जाना आंरभ कर दिया। सुखजीत बहन जी से मेरा सामना महीने बाद हुआ। सब्जियाँ खरीदती वह मेरे ठीये पर आ खड़ी हुई। उसने मुझे नहीं देखा। वह कच्ची-पक्की भिंडियों को परख रही थी।
       ''सुखजीत भैण जी... सासरी काल...'' मैंने कहा तो वह चौंक गई। एकदम सिर उठाकर उसने मेरी तरफ देखा। वह हैरान हुई, पर उसने मुझे पहचान लिया। इससे पहले कि वह भाव पूछती या कुछ कहती या चल देती, मैंने उसे एक मिनट रुकने को कहकर तीन लिफाफों में तीन किस्म की सब्जियाँ डाल, लिफाफे उसे थमाते हुए कहा, ''आपने आधी उम्र हमारे गाँव में बिता दी, हमारे बच्चे पढ़ाये, आपका तो हम बहुत सत्कार करते हैं। आप ऍंधेरे मे भटके हुओं को रास्ता दिखाते रहे हो, यह मेरी तरफ से सत्कार के तौर पर है। पैसे मैं नहीं लूँगा। मिन्नत की बात है, लौटाना नहीं। अगली बार आओगे तो पैसे ले लूँगा।''
       ''आप जबरदस्ती कर रहे हो...फिर पैसे तो लो...'' वह अवाक् रह गई थी।
       ''कोई जबरदस्ती नहीं, ये कौन सी बड़ी रकम है। हम आपकी देन कहाँ उतार सकते हैं।''
       ''आप निन्दर के पापा हो न ?''
       ''हाँ जी...'' मैंने कहा।
       ''वो तो यहीं रहता है, मिला करता है। बड़ा लायक लड़का है।''
       ''बस जी, आपसे ही पढ़ा है।''
       सुखजीत बहन जी चली गई।
       बहुत से सब्जी वाले खाली होकर एक तरफ एकत्र हो रहे थे, मैंने भी अपनी बची हुई सब्जी एक रेहड़ी वाले को उठवा दी। और बैठने को अब मन नहीं था। सभा की ओर से एक आदमी ऊँचे स्थान पर खड़ा हो सबको करीब आने के लिए बुला रहा था।
       ''मीटिंग है...'' उधर जाता हुआ उच्चे गाँव वाला बोला।
       मैंने बोरी में नीचे बिछाने वाली पल्ली और तराजू-बाट डाले और उसे स्कूटर की पिछली सीट से बाँध दिया। धीरे-धीरे कदम उठाता मैं भीड़ की ओर चल पड़ा। भीड़ के उस पार मेन रोड पर मुझे निन्दर कार चलाते जाता हुआ दिखाई दिया। उसके बगल वाली सीट पर नैवी बैठा था। निन्दर उसको स्कूल छोड़ने जा रहा होगा।
       भीड़ के बीचोबीच खड़ा कत्थई रंग की पगड़ी और लम्बी दाढ़ी वाला व्यक्ति बाँह हवा में लहराकर बोल रहा था, ''भाइयो, यह तो हमारी रोजी-रोटी पर सीधा डाका है। हमने फैसला किया है कि शहर की समूची सब्जी मंडी यूनियन सोमवार को तहसील के बाहर धरना देगी।''
       मुझे उसकी बात समझ में नहीं आई। मैंने उच्चे गाँव वाले के नज़दीक होकर पूछा तो उसने बताया, ''रिलैंस वाले स्टोर खोल रहे हैं, सब्जियों और फलों के.... उनके विरुद्ध हड़ताल करनी है।''
       स्कूटर पर गाँव लौटते समय मुझे हमारा मैसी मिल गया। सामने से आता देख मैंने उसे दूर से ही पहचान लिया। उसे मलकपुरिया जट्ट चलाये ला रहा था, वही जो इसे हमसे खरीदकर ले गया था। ट्रैक्टर के पीछे ट्राली मर्दों और औरतों से भरी पड़ी थी। उनके सफ़ेद कपड़ों से पता चलता था कि वे किसी के मरने पर जा रहे थे। मैसी मेरे पास से गुजर गया।
       हम भारतीय किसान यूनियन के धरनों पर मैसी को ले जाते रहे थे। सोमवार को शहर में हिंदुओं, भापो, हरिजनों और भइयों के बीच खड़ा मैं कैसा लगूँगा ! मेरी समझ में नहीं आया कि मैं अपनी बूढ़ी टांगों से इस बदले हुए मैदान में लड़ाई लड़ भी सकूँगा कि नहीं।
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बलजिन्दर नसराली
शिक्षा : एम ए, पीएचडी
प्रकाशित कृतियाँ : कहानी संग्रह डाकखाना खास(1995), उपन्यास हारे दी अग्ग(1990) और बीहवीं सदी दी आखिरी कथा(2004)
सम्मान : पहले कहानी संग्रह डाकखाना खास पर गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी अमृतसर अवार्ड 1995
सम्प्रति : लेक्चरर, पंजाबी विभाग, जम्मू यूनिवर्सिटी, जम्मू।
सम्पर्क : मकान नं0 2675, अरबन एस्टेट, फेज़ -2, पटियाला(पंजाब)
फोन नं0 094192 13117  

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
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