संपादकीय

>> बुधवार, 11 जनवरी 2012




नई आशाओं और नई चुनौतियों का वर्ष – नव वर्ष 2012

‘कथा पंजाब’ का यह अंक भी विलम्ब से आपके समक्ष आ रहा है। मित्रो, वर्ष 2011 अपनी खूबियों और खामियों के साथ विदा हो गया और नव वर्ष 2012 नई आशाएँ, नई चुनौतियाँ लेकर हमारे समक्ष है। बीते वर्ष जो कमियाँ-खामियाँ रह गईं, जो कार्य अधूरे रह गए, उन्हें इस नये वर्ष में पूरा करने का संकल्प लेना है, नये सृजन की ओर उन्मुख होना है, ऐसा सृजन जो समाज, देश और विश्व में से घृणा, विद्वेष और अन्याय के काले अँधेरों को खत्म करके प्रेम, विश्वास, सौहार्द और नव-निमार्ण का प्रकाश फैलाये।
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बीते वर्ष 2011 पंजाबी के बहुत ही सशक्त चार लेखक - रामसरूप अणखी, जसवंत सिंह विरदी, गुरमेल मडाहड़ और डॉ स्वर्ण चन्दन – हमारे बीच से विदा हो गए। नाटककार गुरशरण भाजी भी हमसे अलविदा ले गए। इन सभी लेखकों के प्रति ‘कथा पंजाब’ अपनी विनम्र श्रद्धांजलि प्रकट करता है।
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पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक बलदेव सिंह को उनके उपन्यास ‘ढाहवां दिल्ली दे किंगरे’ उपन्यास पर भारतीय साहित्य अकादमी, दिल्ली की ओर से वर्ष 2010 के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, यह हम सबके लिए हर्ष और गर्व की बात है। बलदेव सिंह जी का उपन्यास ‘अन्नदाता’ एक ऊँचे स्तर का उपन्यास है। हिन्दी और पंजाबी में इसे लाखों पाठकों ने सराहा है। आशा करता हूँ, ‘ढाहवां दिल्ली दे किंगरे’ का हिन्दी अनुवाद भी हिन्दी के विशाल पाठकों को जल्द उपलब्ध होगा और यह उपन्यास भी उनके ‘अन्नदाता’ उपन्यास की भाँति पाठकों को दिलों में अपनी जगह बनाएगा। ‘कथा पंजाब’ की ओर से बलदेव सिंह जी को बहुत-बहुत बधाई।
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इस अंक में हम विरदी जी को याद करते हुए “पंजाबी कहानी : आज तक” स्तम्भ के अन्तर्गत उन की प्रसिद्ध कहानी “आग” प्रकाशित कर रहे हैं और ‘रेखाचित्र/संस्मरण’ स्तम्भ के अन्तर्गत डॉ. स्वर्ण चन्दन पर हरजीत अटवाल का मार्मिक संस्मरण। साथ ही, ‘कथा पंजाब’ के इस अंक से हम ‘उपन्यास’ स्तम्भ के तहत बलबीर मोमी के चर्चित उपन्यास ‘पीला गुलाब’ का धारावाहिक रूप में प्रकाशन प्रारंभ कर रहे हैं…
आप के सुझावों, आपकी प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी…

सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब

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पंजाबी कहानी : आज तक




पंजाबी कहानी : आज तक(5)


आग
जसवंत सिंह विरदी
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

जब मैं रात में शहर पहुँचा तो शहर वीरान था। कहीं भी रोशनी नहीं थी। मैंने बिना रोशनी की रात की कल्पना भी नहीं की जा थी। रोशनी रहित रात को देखकर मुझे रात की विपन्नता पर बहुत तरस आया।
'रात फिर भी रात है।' मैंने सोचा, 'पर रात उजली तो हो।'
लेकिन नहीं। शहर का पूरा शरीर रात की गहरी काली चादर में छिपा हुआ था। मेरा सांस घुटने लगा। पर रात से बचकर मैं कहाँ जा सकता था ?... कहाँ जाता?

मेरे सामने सारे शहर की सुनसान काली सड़कें खुली हुई थीं और दरवाजे बन्द थे। शहर भर के दरवाजे बन्द। सड़कों पर चलकर मैं चाहे जहाँ भी जा सकता था, पर मैंने देखा कि हर सड़क एक दूरी तक जाकर किसी एक दरवाजे के सामने दम तोड़ देती है। इस शहर में सड़कों की मंज़िलें भी निश्चित हो गई थीं। मैं चकित हो गया।
मैं बहुत दूर से इस शहर की ख्याति सुनकर आया था। लेकिन अब मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मैंने व्यर्थ में यह सफ़र तय किया।
लेकिन, अब मैं कहाँ जाऊँ ?
रात गहरी हो रही थी और अकेलेपन का सन्नाटा, ठंडी हवा की भाँति मेरे शरीर को बेंधे जा रहा था।
'मुझे कहीं न कहीं जाना चाहिए,' मैंने सोचा, 'सड़क तो मेरी मंज़िल नहीं है।' और मैं तेजी से आगे बढ़कर एक मुहल्ले में दाख़िल हो गया। मेरा ख़याल था कि मैं किसी एक घर के दरवाजे पर दस्तक दूँगा और अतिथि बनने का गौरव प्राप्त करूँगा। पर मेरे सामने जो मुहल्ला सांस ले रहा था, उसमें दरवाजे वाला कोई मकान नहीं था।
''इन मकानों के दरवाजे कहाँ गए ?'' मैंने एक बुजुर्ग़ से पूछा।
''दरवाजों वाले मकान शहर के दूसरी तरफ हैं,'' बूढ़े व्यक्ति ने मुस्करा कर कहा और मुझे अपनी झुग्गी में ले गया। यह झुग्गी एक कमरे का ही सैट थी और बूढ़े ने अपना बिस्तर धरती पर ही बिछाया हुआ था। मुझे यह जगह और मकानों से अधिक सुरक्षित प्रतीत हुई, क्योंकि मैं वहाँ फैल कर बैठ सकता था और जहाँ जी चाहता, सो सकता था, लेट सकता था। किन्तु यदि घर में स्त्रियाँ होंती, बेटियाँ होंती तो हर समय स्कैंडल बनने का खतरा बना रहता।
जवान लड़कियों के बीच उठ-बैठ कर आदमी अपनी मंज़िल भी तो भूल जाता है... पर मेरी मंज़िल ही कहाँ है ? क्या बेकार आदमी की भी कोई मंज़िल होती है ?
बुजुर्ग व्यकित ने झुग्गी के बाहर सरकंडों की बाड़ लगा रखी थी और उसका माल-असबाब कुछ झुग्गी के बाहर और कुछ अन्दर बिखरा पड़ा था। मैंने अंधेरे में दूर तक गौर से देखा। यह स्थान किसी महाराजा का कोई पुराना बाग था, उजड़ा हुआ। इस उजड़े हुए बाग को इन लोगों ने अब आबाद करने का प्रयत्न किया था, निष्फल प्रयत्न। 'कभी यह बाग महाराजा के हास-विलास का क्रीड़ा-स्थल रहा होगा, पर अब यहाँ रोशनी तक नहीं है' - मैंने सोचा।
मुझे इधर-उधर देखते हुए देखकर उस वृद्ध ने कहा, ''इस घर में न आग है, और न औरत।''
''क्यों ?'' मैंने अकस्मात पूछ लिया, आश्चर्य से।
''जिन घरों में आग न जलती हो, उनमें औरत नहीं रह सकती।'' वृद्ध ने सरगोशी में कहा, जैसे कोई तिलस्मी भेद खोल रहा हो...
''इसमें क्या भेद है ?'' मैंने कुछ भी न समझते हुए मूर्खों की भाँति सहज भाव से पूछा।
उसने कहा, ''इसमें भेद की कोई बात नहीं है।''
''कोई भेद तो होगा ही।''
''भेद काहे का ? जिस घर में आग नहीं जलती, उस घर में औरत कैसे रह सकती है ?'' (यह किसने कहा था कि औरत भी एक आग ही है, पर यह आग घर की आग से ही कायम रह सकती है।) आग के बिना घर कैसे उजड़ जाते हैं... इसके बारे में मुझे अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं थी।
अगले ही क्षण मैं उससे पूछ रहा था, ''आप गुजारा कैसे करते हैं ?''
''मांग-तांग कर,'' उसने बेझिझक कहा।
''गुजारा कर लेते हैं ?''
''बड़े मजे से,'' बूढ़े ने कहा, ''बल्कि कोई चिन्ता ही नहीं रही।'' और वह मुस्करा उठा। मुझे लगा जैसे उसके स्वर में व्यंग का तीखापन हो। मैंने सोचा, इसके घर में नहीं तो इसके अन्तर में अवश्य कोई आग जलती होगी - पर उसका सेंक कैसे अनुभव किया जाए।
इस शहर के संबंध में मेरे मन में बहुत उम्दा छवि बनी हुई थी, पर अब मैं इस शहर के संबंध में कुछ और ही शब्दों में सोच रहा था। किसी भी शहर में पहुँचने पर सबसे पहले उसकी रौनक और रोशनी का अहसास होता है। पर कहाँ ?
अगले कुछ पल हम बिलकुल खामोश रहे। उसके बाद के कुछ क्षणों में मैंने महसूस किया कि उस ठिठुरती हुई रात के कंधों पर सवार होकर कुछ स्त्रियों के गीतों का स्वर हमारे पास पहुँच रहा था। गीत के बोल स्पष्ट नहीं थे, पर जब ध्यान से सुना तो एक एक शब्द स्पष्ट हो गया।

''ये औरतें कहाँ गा रही हैं ?'' मैंने बूढ़े से पूछा।
''परले घरों में... एक लड़की की शादी है।''
''उस घर में भी आग नहीं है ?''
बुजुर्ग ने कोई उत्तर नहीं दिया। मेरी ओर एकटक देखता रहा। न जाने क्या सोच रहा था। मैं भी तो उसके संबंध में बहुत कुछ सोच रहा था।
''क्या सोच रहे हो ?'' मैंने पूछा।
''गाना सुनो।'' वह बोला और उसने बाहर की ओर इशारा किया। उसके इशारे के साथ ही गीत के शब्द दुबारा स्पष्ट होकर थिरकने लगे-
''दईं दईं वे बाबला ओस घरे, जित्थे अग्ग होवे, शहर रोशन होवे
तेरा पुन्न होवे, तेरा दान होवे...''
(बेटियाँ बाबुल से कह रही हैं कि हमें उस घर में ब्याहना, जहाँ आग हो, शहर में रोशनी हो, तुम्हारा पुन्न होगा, तुम्हारा दान होगा)
''गीत में भी आग की बात ?'' मैंने कहा। परन्तु उसने उत्तर नहीं दिया, सुन्न सा बैठा रहा, आग से रहित।
गायन के स्वर फिर थिरक उठो-
''दिने चानण होवे, रात रोशन होवे...
दईं दईं वे बाबला, ओस घरे
तेरा पुन्न होवे, तेरा दान होवे''

बूढ़ा मुस्कराया। न जाने क्या सोचकर मुस्कराया होगा। और मुस्कराकर उसने न जाने क्या सोचा होगा। मैं भी मुस्कराया, पर मैंने कुछ सोचा नहीं, केवल इतना ही कहा, ''इस शहर वाले आप को आग नहीं देते ?''
''आग केवल बड़े लोगों के घरों में होती है।''
''और रोशनी ?''
''रोशनी पैसे से मिलती है।''
''फिर आप ले क्यों नहीं लेते ?''
''हम छोटे लोग हैं, हमें नहीं मिल सकती।'' और उसने घबरा कर चारों ओर ऐसे देखा जैसे अपने आपको नगण महसूस कर रहा हो। जो व्यक्ति अपने आपको नगण्य महसूस करता है, उसे और कोई यातना नहीं दी जा सकती।
''अब तो देश में लोकतंत्र है और हम सब बराबर हैं,'' मैंने कहा, मानो मैं उसे कोई भेद की बात बता रहा था।
उसने कटुता से उत्तर दिया, ''लोग कहते तो हैं, पर हमें दिखाई नहीं देता... हमारे घरों में ज्यादा अंधेरा है, शायद इसलिए...।''
''आप कोई काम क्यों नहीं करते ?''
''मांगना काम नहीं है क्या ?''
''नहीं।''
''फिर और क्या किया जाए ?'' बूढ़े ने मुझे घूर कर देखा। मैं क्या उत्तर देता।
रात घनी अंधकारपूर्ण थी और वातावरण में अब फिर बोझिल निस्तब्धता फैल गई थी। मैं चाहता था कि उस बुजुर्ग को अपनी योग्यता का प्रमाण दूँ। फिर बातचीत में रात बिता देने का प्रश्न भी था।
मैंने कहा, ''कहते हैं, पिछले जमाने में भी आग सिर्फ़ देवताओं के पास होती थी। केवल देवता ही आग की गरमाहट ले सकते थे और घरों में प्रकाश कर सकते थे।''
''अब भी देवताओं के पास ही है।'' बुजुर्ग ने हामी-सी भरी, तल्ख़ लहजे में।
''पर आग सदा देवताओं के पास नहीं रही,'' मैंने कहा, ''लोगों के एक हितैषी शूरवीर ने आग को देवताओं से छीन कर लोगों में बांट दिया था।''
''उसका क्या नाम था ?''
''प्रोमिथिअस।''
''अपने देश का था ?''
''नहीं, किसी और देश का था, पर उसने आग धरती के लोगों को बांट दी थी।''
''क्या कहने, वाह !'' बूढ़े की आँखों में चमक आ गई, आग जैसी चमक।
''बाद में देवताओं ने उसे पत्थरों और जंजीरों से बांधकर बहुत यातनाएँ दीं।''
''चंडाल कहीं के।'' बूढ़े को प्रचंड ज्वाला की भाँति गुस्सा आ गया।
''पर प्रोमिथिअस आग को तो लोगों में बांट ही चुका था।''
''फिर उसका क्या हुआ ?'' निश्चिंत रहने वाला बूढ़ा अब चिंतित था।
''दिन भर गिद्ध उसका मांस खाते, पर रात को उसके ज़ख्म भर जाते।''
''रात में बड़ी ताकत है।''
''आखिर हरक्यूलीज नाम के एक बलवान व्यक्ति ने उसे देवताओं की कैद से छुड़ा दिया।''
''वाह वाह, भई, वाह वाह !'' बूढ़ा भावातिरेक में उछल-सा पड़ा और लगा जैसे उसकी आँखों की रोशनी से वातावरण चमक उठा हो। उसकी आँखों की इस चमक में मैंने देखा - झुग्गी के एक कोने में एक कपड़े में लपेटी हुई कुछ पोथियाँ रखी हुई थीं। मुझे उस बूढ़े के भिखारी होने पर शक होने लगा।
''तुम्हारे पास कोई बीड़ी-सिगरेट हो तो पिलाओ।'' उसने चैन का सांस लेते हुए कहा।
''मैं नहीं पीता।''
''क्यों ?''
''यों ही... जी नहीं करता।''
''फिर भी...''
''मेरे गुरू ने मना किया है।'' मैंने कहा, ''बल्कि प्रण करवाया है।''
''हूँ...।'' वह उठकर खड़ा हो गया। ''जब हम अपनी धरती छोड़कर आए थे, तब हमने भी प्रण किया था कि जब तक उस धरती को आजाद नहीं करा लेंगे, आग नहीं जलाएँगे।''
''तो यह बात है ?''
''हाँ, पर हम आग का त्याग करके ठंडे हो गए... और धरती बैरियों के पास ही रही। अब भी बैरियों के पास ही है।'' और वह बेचैनी से कहीं दूर एकटक देखने लगा।
मैंने बहुत ही सहज भाव से कहा, ''आपको अपनी धरती छोड़नी नहीं चाहिए थी... वहीं लड़कर मर जाना चाहिए था।''
''हाँ...।'' उसने तेजी से कहा, ''पर हमारे बुजुर्गों ने यह बात नहीं सोची थी।''
''धरती लोगों के पास तभी रह सकती है, जब वह उसकी रक्षा कर सकें।''
''हाँ...आं...'' बूढ़े ने स्वर दीर्घ करते हुए कहा, ''पर अब तो हम बड़े निस्तेज हो गए हैं, भिखमंगे। भिखमंगे को तो कोई एक मुट्ठी अनाज देने को भी तैयार नहीं है, धरती कौन देगा।''
''यह सूरमाओं का काम है।''
''हाँ...आं...'' बूढ़े ने फिर हामी-सी भरी।
''और आपके पास तो आग भी नहीं है।'' मैंने उसे चुनौती दी।
डस समय मुझे उन लड़कियों का गीत याद हो आया जो गीतों में भी आग की, रोशनी की कल्पना कर रही थीं। पर आग थी कहाँ ?
''हाँ...आं...'' वह फिर बोल उठा, ''पर हमारा ख़याल था कि हम अपने अन्दर आग जलाएँगे और सामन्तशाही को उसकी ज्वाला के हवाले कर देंगे।'' उसने एक लम्बा सांस लिया और खामोश होकर बैठ गया।
उस समय वह जो कुछ सोच गया होगा, उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं तो केवल इतना ही देख रहा था कि वह कहीं और पहुँच गया था - उस धरती पर जो उसकी अपनी थी, जहाँ रोशनी थी, जहाँ घरों में आग जला करती थी।
मैं चाहता था कि उसे झंझोड़ दूँ, पर मैं चुप ही रहा।
गीत के बोल अभी भी रात की खामोशी के कंधे पर सवार होकर हम तक पहुँच रहे थे।
''दईं वे दईं बाबला ओस घरे
जित्थे अग्ग होवे, शहर रोशन होवे
तेरा पुन्न होवे, तेरा दान होवे...।''

''यह गीत हमारी लड़कियों ने गढ़े हैं।'' बूढ़े ने कहा। वह बहुत परेशान था। कितना ? मैं बयान नहीं कर सकता।
इस समय वह न जाने क्या सोच रहा था। पर मैं सोच रहा था कि वह बूढ़ा जमाने से बहुत पीछे रह गया है। इसके पास न कोई हुनर है, न ज्ञान का विरसा, न ही कोई घर-बार। यह सारी उम्र मांग कर खाने के सिवा और कोई काम नहीं कर सकता। रात में उस समय ठंड बहुत ज्यादा थी और मैं यह भी सोच रहा था कि अगर मैं शहर की दूसरी ओर, बड़े मकान वालों के पास पहुँच गया होता तो रात आराम से बिता सकता था। पर फिर यह विचार आया कि शायद वे लोग मेरी खूसट शक्ल-सूरत देखकर दरवाजा ही न खोलते... आजकल मुझ पर कई प्रकार के अपराध भी तो लग रहे हैं।
फिर अगले ही क्षण मैं यह सोच रहा था कि आधे शहर में उजाला है तो आधा शहर क्यों वीरान है ? आखिर क्यों ?
मैं उस बुजुर्ग से कहना चाहता था कि मांग-मांग कर निर्वाह करना तो जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है। या है ?
बुजुर्ग कोई पल भर के लिए आँखें खोलकर मुझे एकटक देखता था और मुस्करा कर फिर आँखें बन्द कर लेता था, मानो वह मेरी बात का भेद पा गया हो।

रात आधी से ज्यादा बीत गई थी और उस जाड़े की रात में वह बुजुर्ग मेरे सामने बैठा हुआ था... उसके सांसों की गर्मी मैं महसूस ही नहीं कर रहा था, बल्कि वह मुझे गरमाहट भी दे रही थी। बुजुर्ग की आँखें कभी खुल जाती थीं और कभी बन्द हो जाती थीं। जब उसकी आँखें बन्द होतीं तो मुझे रात की वीरानी का अहसास होता। पर जब खुली होतीं तो ऐसा लगता कि उनकी चमक से कमरे का वातावरण रोशन हो उठा है।
फिर न जाने कब मेरी आँख लग गई।
मैं प्रकाश की एक किरण और आग की एक चिंगारी के लिए तरस गया था और प्रकाश रहित रात की विपन्नता पर मुझे बहुत तरस आ रहा था, इसलिए रात को सपनों में मैंने सब झुग्गियों में तेज लपलपाती लपटें देखीं। मैंने यह भी देखा कि ये लपटें समूचे शहर को अपनी लपेट में ले रही हैं ।
सवेरे जब मैं जागा तो मुझे मालूम हुआ कि मैं शहर के हाकिमों की हिरासत में हूँ, और रात को सपनों में सब झुग्गियों में लपटों का उठना देखने के अपराध में मुझे सश्रम कैद की सज़ा दी गई है।
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जसवंत सिंह विरदी
जन्म : 7 मई 1934, निधन : 2011
पंजाबी और हिंदी में समान रूप से पढ़े जाने वाले पंजाबी के चर्चित कथाकार। कहानियों के साथ साथ लेख, फीचर, नाटक, उपन्यास और बाल साहित्य में भी भरपूर लेखन। पंजाबी में पहले ऐसा कथाकार जिसने पंजाबी में फैंटेंसी विधि से कहानियाँ लिखने का चलन चलाया।
इनकी कहानियों में गाँव, कस्बे और शहर के साधारण लेकिन परिश्रमी लोग तथा निम्न मध्यवर्गीय लोग दृष्टिगोचर होते हैं जो रोज के हालात से लड़ते हैं, गिरते हैं पर हार नहीं मारते। पीड़ पराई(1960), अपणी अपणी सीमा(1968), ग़म का साक(1971), पावर हाउस(1974), नुक्कर वाली गली(1075),ज़िन्दगी(1976), नदी का पाणी(1977), सीस भेट(1977), सड़कां दा दर्द(1971), ख़ून के हस्ताक्षर(1982), बदतमीज लोक(1982), खुल्ले आकाश विच(1986), मेरीयां प्रतिनिधि कहाणियाँ(1987), रब्ब दे पहिये(1988), अध्दी सदी दा फर्क(1990), मेरीयां श्रेष्ठ कहाणियाँ(1990), हमवतनी(1995), तपदी मिट्टी(1995), पुल, तारे तोड़ना, सीस भेट आदि उसकी शाहकार कहानियाँ हैं।

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रेखाचित्र/संस्मरण

2 सितम्बर 1941 को अमृतसर के गांव बोहरु में जन्में पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक डॉ.स्वर्ण चंदन का देहान्त गत वर्ष 7 दिसम्बर 2011 को इंग्लैंड में हृदयाघात से हुआ। कृषि में बी.एससी करने के बाद डॉ. चन्दन यू के चले गए और सन 1964 से वह यू, के. में रह रहे थे। इन्होंने अपनी माँ-बोली पंजाबी में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा-संस्मरण, फिल्म –स्क्रिप्ट और आलोचना की कई पुस्तकें लिखीं। मुख्यत: डॉ चन्दन एक कथाकार, उपन्यासकार और आलोचक के रूप में पहचाने जाते हैं । डॉ चन्दन पर उनके मित्र हरजीत अटवाल ने एक बहुत ही मार्मिक संस्मरण पंजाबी में लिखा है जो इधर पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका ‘शबद’ में प्रकाशित हुआ है ,जिसका हिन्दी अनुवाद हम हिन्दी के पाठकों को यहाँ उपलब्ध करा रहे हैं। - सुभाष नीरव


डॉ. स्वर्ण चन्दन : एक जेंटलमैन
हरजीत अटवाल

शाम का समय है, झुटपुटा सा। मैं मैलिन रोड के 28 नंबर के बाहर खड़ा हूँ। इस घर के भारी पर्दे अभी गिराये नहीं गए हैं। जालीदार पर्दों के रास्ते एक कोने में टेबललैम्प जलता दिखाई दे रहा है। टेबल लैम्प की सीमित रौशनी में वह एक किताब पर सिर झुकाये बैठा है। शेष कमरे में अँधेरा है और एक चुप सी पसरी दिखाई दे रही है। इसको वह 'सुन्न' कहा करता है। मैं दरवाजे की घंटी बजाता हूँ। घर की बत्तियाँ जलने लगती हैं। वह आकर दरवाज़ा खोलता है। एक ज़ोरदार मुस्कराहट देता हुआ वह मेरे साथ कसकर हाथ मिलाता है। घर के अन्दर घुसते ही सिगरेट का एक रेला मेरे नाक में आ घुसता है। ज़रा और अन्दर प्रवेश करता हूँ तो रसोई में से भुनते मीट की खुशबू आने लगती है। मुझे पता है कि यह मेरे लिए विशेष है। वह हँसता हुआ कहता है -
''लैम चॉप बन रही हैं। मुझे पता है कि भाई को ये पसंद हैं। बस, अभी तैयार हुईं।''
मैं अपनी जैकिट उतार कर एक तरफ टांग देता हूँ और सैटी पर बैठ जाता हूँ। वह बोतल की गर्दन पर हाथ डालते हुए कहता है -
''धीरे की तरफ से आ रहा है ?''
''उसके नये उपन्यास पर फंक्शन था।''
''माईयाव(एक गाली), उसके नावल में क्या होगा।... तुझे भी खाली बर्तन बजाने की आदत पड़ गई है।''(आम पंजाबियों की तरह स्वर्ण चंदन को भी बात बात में ‘माई याव’ की गाली देकर बात करने की लत सी थी)
''भाऊ, आजकल फंक्शन करने इतने आसान नहीं, विवाह रचाने की तरह हैं। तू मेरे आ और मैं तेरे आऊँ।''
''समझता हूँ मैं तेरी बात, पर ये सारे ज़ीरो बन्दे हैं, सारे ही बी-टीम, सी-टीम के प्लेयर हैं। इनके साथ खेलकर अपना स्टैंडर्ड गिराने वाली बात है।''
''भाऊ, बातें तो तेरी ठीक हैं पर अब क्या करें... खेलने की आदत पड़ चुकी है। तगड़ा प्लेयर खेलता नहीं और कमज़ोर के साथ खेलें ना... कैसे प्लेयर हुए?''
बात करते हुए मैं उसकी तरफ देखता हूँ। वह सिगरेट सुलगा लेता है और कहता है -
''तू अब दूर भी बहुत रहता है। तू यहाँ आ जा, दोनों भाई मिलकर कुछ करते हैं। ऐसे बढ़िया साहित्यिक कार्यक्रम करवाएँगे कि वाह-वाह हो जाएगी।''
मैं कुछ नहीं कहता। वह भी जानता है कि लंदन छोड़कर मेरे लिए वुल्वरहैम्पटन जाना संभव नहीं, जबकि वह तो लंदन आ सकता है। पर वह भी अब नहीं आएगा।
वह मेरे लिए एक पटियाला शाही पैग बनाता है और स्वयं के लिए बोतल में से पव्वा भर व्हिस्की डालते हुए कहता है-
''बस एक पव्वा ही... साली...अब पी नहीं जाती।''
हम अपने अपने गिलास छुआकर चियर्स करते हैं। मैं पूछता हूँ-
''कोई मिलने-जुलने आया, कोई फोन वगैरह ?''
''न, कोई नहीं आया माई यावा। न कोई फोन आया, चारों तरफ बाबे नानक वाला अरबद-नरबद धंधूकारा है, सन्नाटा ही सन्नाटा।'' वह उदास-सा होकर कहता है।
इस दृश्य को मैंने लगातार दस-ग्यारह साल देखा। वर्ष में दो या तीन बार। मैं किसी कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज क़रवाने वुल्वरहैम्टन जाता तो रात स्वर्ण चंदन के यहाँ काटता। वह भी मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा होता। वुल्वरहैम्पटन के लेखकों ने उसका बॉयकॉट किया हुआ था या उसने उनका। बात तो एक ही है, चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर। लेखकों ने तो उसका बहिष्कार किया ही होगा, पर शहर का कोई गैर-लेखक व्यक्ति भी उसका दोस्त नहीं था। वह दिनभर अकेला रहता। अकेला जागता, अकेला ही सोता। धीरे-धीरे उसने नज़दीक के पॉर्क में बैठने वाले कुछ शराबी-से लोग दोस्त बना लिए थे जो उसको और ज्यादा अकेला कर जाते। उसकी बेटी अलका कभी कभी उसके पास जाकर रह आती और कभी-कभी मैं। बाकी समय वह अकेला ही रहता। हाँ, उसका एक पड़ोसी अमरीक सिंह उसका हालचाल लेता रहता। अमरीक स्वयं एक अनपढ़-सा व्यक्ति था, स्वर्ण चंदन उसका पेपर-वर्क कर दिया करता। बदले में अमरीक की घरवाली कई बार उसको रोटी बनाकर दे जाती। यूँ रोटी की उसको ज़रूरत नहीं होती थी। वह खुद एक बढ़िया रसोइया था। दाल-सब्जी बनाने में कोई भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। उसको किसी दूसरे की बनी रोटी की ज़रूरत तब पड़ती जब उसने ज्यादा शराब पी ली होती और रोटी बनाने के काबिल न रहता।
मेरा उसके साथ तीस वर्ष से भी अधिक समय का नाता रहा था। वह हर कार्यक्रम मे जेंटलमैन बनकर आता, सूट पहना होता और साथ में मैच करती टाई। ऐनक लगा रखी होती, या फिर वह जेब में से बाहर दिखाई दे रही होती और साथ ही पार्कर का पैन भी। इन तीस वर्षों में मैंने उसके कई रूप देखे और देखे भी बहुत करीब से। उसके स्वभाव का शायद ही कोई पक्ष अनदेखा रह गया हो। फिर भी कहते हैं कि ''दिल दरिया समुन्द्रों डूंघे, कौण दिलां दीयां जाणे !'' हो सकता है, उसके मन की बहुत सारी तहों से मैं अनजान ही होऊँ। तीस साल पहले वह एक दिन अचानक ही मेरे घर मिठाई का डिब्बा लेकर आया था। ये वो दिन थे जब साउथाल की प्रगतिशील लेखक सभा ने विश्व पंजाबी कांफ्रेंस करवाई थी। इस सभा के ओहदेदारों का बहुत मान-सम्मान था। स्वर्ण चंदन इसका अध्यक्ष बनना चाहता था। अध्यक्ष बनने के लिए उसको वोट चाहिए थे। मैं सभा का नया नया सदस्य बना था। इसलिए वह मुझसे मेरी वोट मांगने आया था। उसने इतने प्यार से कहा कि मैं सदा के लिए उसकी वोट बनकर रह गया। अब उसकी मृत्यु के पश्चात भी मेरी वोट उसके हक में भुगत रही है। यह अलग बात है कि उस समय मेरी वोट उसके किसी काम नहीं आई थी क्योंकि उसको किसी ने अध्यक्ष तो क्या बनाना था, उसकी सारी मित्र टोली को ही सभा में से बाहर निकाल दिया गया था।
हमारे सम्पर्क के पहले पन्द्रह वर्षों में हमारा संबंध सीनियर-जूनियर वाला रहा है। मेरी कहानियों की उसने भूरि-भूरि प्रशंसा की, सलाहें भी दीं, पर बदले में उसको अपनी कहानियों की तारीफ़ भी चाहिए थी। मुझे करनी भी पड़ी। वैसे मैं उसको उपन्यासकार ही बढ़िया मानता था। उसकी किसी भी कहानी ने मुझको प्रभावित नहीं किया था। उसके नावल 'नवे रिश्ते' और 'कच्चे घर' मुझे बहुत पसन्द थे। 'कख कान ते दरिया' मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। 'कंजका' भी स्थिति से बाहर का नावल था, पर उसको ये बातें कहे कौन ? कम से कम मैं तो नहीं कह सकता था। उसके समकालीन भी कहने से डरते थे। वह अपनी आलोचना सह नहीं सकता था। उसके उपन्यासों को आलोचकों की ओर से मिलते हुंकारे के कारण उसकी ईगो बड़ी होने लगी थी। भाषा विभाग(पंजाब) का ईनाम मिलने तक उसकी ईगो बिगड़नी शुरू हो गई थी। उसके सख्त और जिद्दी स्वभाव ने इसको और ज्यादा तूल दिया। इस समय तक वह अपने विरुद्ध छोटी-सी बात भी नहीं सुन सकता था।
आरंभ में वह एक अच्छा सामाजिक प्राणी था, परन्तु बेटी की मर्ज़ियों ने उसके स्वभाव में एक बड़ा परिवर्तन कर दिया था। बेटी के घर से चले जाने के कारण उसने सामाजिक लोक राय से डरना बन्द कर दिया था। कोई उसको लेकर क्या कहता है, उसने इसकी परवाह करना छोड़ दिया। पहली पत्नी सुरजीत की मौत उसकी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा मोड़ लेकर आई। सुरजीत कौर का किसी हद तक उस पर नियंत्रण था। उस कारण वह घर से जुड़ा हुआ था। पत्नी की मौत ने उसकी नकेलें खोल दीं। दविंदर कौर पहले ही उसके सम्पर्क में आ चुकी थी। उसने अपना घर किराये पर दे दिया और यूनिवर्सिटी में पढ़ते बेटे को एक फ्लैट किस्तों पर ले दिया और स्वयं दिल्ली के लिए चल पड़ा। बेटा बहुत छटपटाया कि पढ़ाई के साथ-साथ फ्लैट की किस्तें कैसे देगा। इसके परिणामस्वरूप बेटे की पढ़ाई पर बहुत असर पड़ा। उसको अपनी डिग्री लेने के लिए दो साल अधिक लग गए। चंदन की इस बात ने उसके बेटे के मन पर गहरा प्रभाव किया जो बाप-बेटे के रिश्तों को खराब बनाने के लिए सारी उम्र काम आया। जब वह दिल्ली के लिए रवाना हो रहा था तो मैंने पूछा-
''डाक्टर साहब, दिल्ली जाकर क्या करोगे ?''
''मैं अब माई याव बड़ा लेखक हूँ, यहाँ अब मेरा क्या काम ?... यहाँ मेरी टक्कर किसके साथ है ? सब मेरे आगे पिछड्डी, निकम्मे !... मेरी कर्मभूमि अब दिल्ली है।''
एक विशेष बात यह कि उसने डॉक्टर बनते ही मित्रों पर रौब डालना आरंभ कर दिया था कि अब उसे डॉक्टर कहा जाए। यदि कोई जूनियर लेखक उसको डॉक्टर साहिब न कहता तो वह उसके गले पड़ जाता। इसी बात पर वह कइयों को लेखक के तौर पर खत्म कर देने की धमकियाँ भी देने लगता। वैसे मुझको उसने अपने अन्तिम वर्षों में डॉक्टर साहिब न कहने की छूट दे दी थी। उसके डॉक्टर कहलवाने के बारे में एक दिलचस्प बात बाद में करेंगे। बहरहाल, वह इतना ज़हीन था कि डॉक्टर बनना, पी.एच.डी. की डिगरी लेना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी, जबकि इस डिग्री को लेते समय कई गलत-सही सी ख़बरें भी छपी थीं।
दिल्ली वह बहुत शान से गया था। दिल्ली जाने का उसका प्रमुख कारण किसी न किसी तरह ‘भारतीय साहित्य अकादमी’ का ईनाम लेना था जिसका वह अब अपने आप को हकदार समझने लग पड़ा था। वैसे भी, वह दिल्ली सर कर लेना चाहता था। डा. हरभजन सिंह को वह स्टेज पर से सैद्धान्तिक चुनौती दे चुका था। यही नहीं, वह उसको यूँ ही समझने लगा था। दिल्ली में वह बड़ा लेखक बनकर घूमने लगा। उसके जगह जगह पर लेक्चर होने लगे। सतिंदर सिंह नूर का सूरज उन दिनों में अभी उदय नहीं हुआ था। नूर तो चंदन का चेला बना घूम रहा था, शेष सारी दिल्ली भी। बहुत शीघ्र वह दिल्ली के साहित्यिक हलकों का महत्वपूर्ण अंग बन गया। वह कार्यक्रमों में अध्यक्षताएँ करता, लच्छेदार भाषण देता, वाहवाही लूटता। उसको लगता कि साहित्य अकादमी का ईनाम तो इस बार उसको मिलना ही मिलना है। उसके दोस्त उसके इस सपने को और ज्यादा रंग लगा देते, परन्तु वह यह बात भूल बैठा था कि जहाँ दिल्ली में उसके दोस्त थे, वहीं दुश्मन भी थे। डा. हरभजन सिंह को उसने मंच पर बिठा कर सैद्धान्तिक चुनौती तो दी ही थी, पर एक बार जब वह लंदन आए थे तो अपने घर में से बाहर भी निकाला था। वह उसको यह ईनाम कैसे लेने देता। यूँ भी भारतीय साहित्य अकादमी के ईनाम के लिए पहले ही लेखक कतार में खड़े थे। वे सारे भी तो इस बाहरी व्यक्ति को ईनाम कैसे ले जाने देते। सो, ईनाम वाला सपना लटक गया। इस कारण उसके अन्दर शून्य भरने लगा।
कुछ पुरस्कार न मिलने की रंजिश और ऊपर से उसका स्वभाव, चंदन ने शीघ्र ही अपने रंग दिखलाने आरंभ कर दिए। यहाँ बता दूँ कि चंदन के व्यक्तित्व के दो हिस्से थे। शराब के बग़ैर वह कुछ और होता था, और शराब पीकर कुछ और। शराब पीकर वह कैसा व्यक्ति था, इस बारे में लिखना असाहित्यिक होगा। शराब के बग़ैर भी उसके स्वभाव के दो हिस्से थे। एक तो समझौतावादी चंदन जो कि सहजता से ही किसी भी किस्म की लेन-देन कर सकता था और दूसरा - अड़ियल चंदन, हठी चंदन, अतिभावुक चंदन, वो चंदन जिसे हर समय सींग फंसाकर रखने की आदत थी। अपने स्वभाव के इस चंदन को वह 'चेतू' कहा करता। 'चेतू' उसके उपन्यासों की त्रि-श्रृंखला 'पंजाब सैंताली' का किरदार था। यह उसका आत्मकथात्मक उपन्यास था। जब कभी समझौतावादी चंदन काम न आता तो वह 'चेतू' को बाहर निकाल लेता। एक और पक्ष भी था उसके स्वभाव का कि जो लोग उसको बड़ा लेखक मानते, उनके प्रति उसकी नज़रे-इनायत रहती, जो उसको समकालीन या साधारण लेखक समझते, उनसे वह बहुत नफ़रत करता और आड़े हाथ लेता। जब दिल्ली के लेखकों को शराबी चंदन से वास्ता पड़ा तो वे उसको बड़े लेखक की बजाय आम-सा लेखक और छोटा आदमी समझने लग पड़े। पुरस्कार न मिलने के साथ साथ उसके उपन्यास 'कंजकां' के विषय में दिल्ली के लेखकों द्वारा चुप्पी साध लेने पर चंदन के तेवर बदलने लगे। वह सारी दिल्ली को गालियाँ बकने लगा। गालियाँ उसके स्वभाव का अटूट अंग थीं। दिल्ली के लेखकों ने उसका बायकॉट कर दिया। उसको साहित्यिक कार्यक्रमों बुलाना छोड़ दिया। कभी आ भी जाता तो अध्यक्षता सौंपनी तो दूर की बात, स्टेज पर बोलने के लिए भी उसे आमंत्रित न किया जाता। दोस्तों की किसी महफ़िल में भी न बुलाया जाता। और तो और, एस. बलवन्त का घर उसके बिलकुल निचले फ्लैट में था, वहाँ लेखक मित्र इकट्ठा होते, पर चंदन को शामिल न किया जाता। वह अकेला बैठा किलसता रहता, कुढ़ता रहता, अपने आप में ज़हर घोलता रहता। गुस्से में आकर पागलों जैसा व्यवहार करने लगता। दविंदर कौर उसके संग रहती थी। बदले हुए स्वर्ण चंदन के नतीजे उसको भुगतने पड़ते। दविंदर की दवाओं की मात्रा बढ़ने लगती।
ऐसे हालात में नीम पागल होकर लौटे चंदन को मैं सन् 1994 में मिला। मेरी किताब 'खूह वाला घर'(कहानी संग्रह) पर प्रोग्राम था, मैंने उसको निमंत्रण देने के लिए उसके बेटे के फ्लैट पर फोन किया जहाँ वह ठहरा हुआ था, परन्तु उसने प्रोग्राम में शामिल होने से इन्कार कर दिया। कुछ दिन बाद वह एक अन्य प्रोग्राम पर मिला तो मैंने देखा कि उसकी आँखें बिलकुल खाली थीं। मैंने कारण पूछा तो उसने दिल्ली के बारे में बहुत सारी शिकायतें कर मारीं। इसके बाद हमारी फोन पर कुछेक बातें हुईं। कई महीने बीत गए। दो-एक बार अन्य कार्यक्रमों में मिला। अब वह बहुत ज्यादा मोह दिखलाता, ऐसा मोह पहले कभी नहीं दिखलाया था। एक दिन उसने कहा-
''क्यों न हम माई यावी कोई लेखक सभा बनाएँ। मैं प्रधान और तू सचिव।''
मैं तैयार हो गया। मैं भी लंदन के कई हिस्सों में रहकर साउथाल आ बसने की तैयारी कर रहा था और था भी खाली ही। बाद में शेरजंग जांगली ने मुझे बताया कि लेखक सभा बनाने के लिए वह कइयों को कह चुका था, पर उसके संग मिलने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। इन दिनों में साउथाल में कोई लेखक सभा सक्रिय भी नहीं थी। खालिस्तान के दौर के समय लेखकों में हिन्दू-सिक्ख जाग पड़े थे। लेखक सभाएँ खत्म सी हो गई थीं। खैर, हमने पंजाबी लेखक सभा, साउथाल बना ली। साहित्यिक संवाद रचाने प्रारंभ कर दिए जो कि काफी समय से खत्म-से थे। लेखक मित्र हमारे संग जुड़ने लगे। एक दिन चंदन कहने लगा-
''क्यों न हम कुछ और मेंबर भर्ती कर लें ?''
''डाक्टर साहब, यदि और लेखक भर्ती कर लिए तो आपकी प्रधानगी चली जाएगी और मेरा सचिव पद। ... ऐसे ही काम चलाये चलो।''
''माई याव... बात तो तेरी ठीक है।''
कहकर वह हँसने लगा। हुआ भी यूँ ही। हम तो बल्कि दूसरे लेखकों के लिए उदाहरण बन गए। इंग्लैंड के पंजाबी के पचास लेखकों ने पच्चीस लेखक सभाएँ बना लीं जो अभी भी चल रही हैं। हमारी सभा भी उसके वुल्वरहैम्पटन चले जाने तक चलती रही।
सन् 1994 से पहले हम दोस्त तो थे, पर बहुत करीबी दोस्त नहीं थे। अब हम एक -दूजे के विशेष दोस्त बन चुके थे। दोस्ती कायम रखने के लिए अनकही शर्त थी कि मैं उसको बहुत बड़ा लेखक और आलोचक मानूँ, वह मैं मानता ही था। वह मेरी कहानियाँ सुनकर मुझे सलाह देता, इनकी तारीफ़ करता। हमारी दोस्ती ऐसी जमी कि हम दोनों ने अमेरिका-कैनेडा का दौरा भी एक साथ किया। हर महफ़िल में मैं मजाक में कहता कि मैं अपना आलोचक साथ लिए घूमता हूँ। वह हर महफ़िल में मेरी कहानी कला की प्रशंसा करता। अमेरिका-कैनेडा के सफल दौरे के बाद हमने इंडिया का चक्कर भी लगाया। यहाँ भी उसने मुझे कहानीकार के तौर पर पूरा प्रमोट किया।
इन्हीं दिनों में एक मज़ेदार बात यह हुई कि मैं उपन्यास लिखने के लिए अपने पर तौलने लगा। मैंने सोचा कि नावल लिखकर मैं उसका सरप्राइज़ दूँगा। मैंने नावल लिखा- 'वन वे'। इसे चार बार संशोधित किया अर्थात् चारों बार हाथ से पुन: लिखा। मैं उत्साहित-सा होकर चंदन के पास अपना नावल लेकर गया। उसने पता नहीं नावल कितना पढ़ा, पर दूसरे दिन ही मेरा नावल उठाकर मेरे सामने फेंकता हुआ बोला-
''माई यावे, इसे डस्टबिन में फेंक दे।... तू नावल नहीं लिख सकता। तू कहानीकार है और कहानीकार ही रह। उपन्यास लिखते लिखते कहानी से भी जाएगा... और फिर उपन्यास माई यावे तो मैं लिख ही रहा हूँ।''
मैं अपना सा मुँह लेकर रह गया। उपन्यासकार बनने के सपने को दूर झटक दिया और वह उपन्यास सेल्फ के नीचे दे दिया। साल भर बाद मान सिंह ढींडसा मेरे घर आया तो उसने सलाह दी कि मैं उपन्यास भी लिखूँ। मैंने उसे अपने लिखे हुए उपन्यास के बारे में बताया। उसने कुछ दिन लगाकर मेरा उपन्यास पूरा पढ़ा और बोला कि यह तो बहुत ही बढ़िया उपन्यास है। इस नावल में तो बिलकुल भिन्न इंग्लैंड के दर्शन होते हैं। उस दिन इस बात ने मुझे बहुत उत्साहित किया। मैं तो पहले ही सोच रहा था कि मैं चंदन से अगली पीढ़ी का लेखक हूँ और मेरे अनुभव भी उससे भिन्न हैं, सो मेरा उपन्यास इतना बुरा नहीं होना चाहिए। मैंने उस उपन्यास को एक बार फिर संशोधित किया और छपने के लिए भेज दिया। परन्तु स्वर्ण चंदन को बिलकुल नहीं बताया। इन दिनों में वह वुल्वरहैम्पटन मूव हो चुका था। जब उसको मेरे उपन्यास का पता चला तो उसने मुझसे बोलना बन्द कर दिया। कई महीनों तक हमारे बीच चुप छाई रही। जब मेरा दूसरा उपन्यास 'रेत' आया तो स्वर्ण चंदन दिल का मरीज़ रहने लगा, उसको दिल का आपरेशन करवाना पड़ा। यद्यपि ऐसा होना कुदरती ही था परन्तु दोस्त मज़ाक में कहते कि यह सब मेरे नावल ने करवाया है। अब हमारी पहले जैसी दोस्ती नहीं रही थी। जब भी उसको समय मिलता तो वह मेरे उपन्यास के खिलाफ़ बोलता। स्टेज पर से वह किसी न किसी से मेरे उपन्यास के खिलाफ़ बुलवा देता। फिर मेरा उपन्यास 'सवारी' भी आ गया। अब मैं अपने आप को उपन्यासकार समझने लगा था और स्वर्ण चंदन का समकालीन भी। हम कभी-कभार मिलते। मैं वुल्वरहैम्पटन जाता तो उससे ज़रूर मिलता। हमारे कार्यक्रमों में वह आता भी, पर मेरे उपन्यास की कभी बात न करता। बल्कि मुझे उपन्यासकार ही न मानता। सुरिंदर सीहरे से मिलता तो कहता-
''अपने मित्र माई यावे को कह दे कि नावल लिखना उसके वश की बात नहीं।''
इंडिया से जिंदर आया तो वह एक रात स्वर्ण चंदन के पास भी रहा। जिंदर ने पूरी कोशिश की, पर चंदन ने मुझे उपन्यासकार के तौर पर तस्लीम नहीं किया। एक बार उसने किसी से कहा कि हरजीत नावल में बच्चा है और मैं उसका बाप हूँ। मैंने झट नब्ज़ पकड़ ली और उस दिन फोन पर यह मान लिया कि वह मेरे से बड़ा उपन्यासकार है, मैं तो अभी सीख ही रहा हूँ और वाकई उसके सम्मुख मैं बच्चा हूँ। फिर क्या था, हमारे संबंध सुधर गए, परन्तु फिर भी उसने मेरे उपन्यास 'रेत' को ही उपन्यास माना। इस तरह हम दोनों के बीच फिर से बढ़िया दोस्ती हो गई। अब वह अपने भाषणों में मेरे उपन्यास 'रेत' की तारीफ़ें करने लगा। फिर कुछ देर बाद मेरे उपन्यास 'ब्रिटिश बॉर्न देसी' की उसने जी भरकर तारीफ़ की और उस पर हुए कार्यक्रम में आकर मेरे उपन्यास पर बोला भी। मैंने अपना नया उपन्यास 'अकाल सहाय' उसको पढ़वाया। उसको यह उपन्यास बहुत पसन्द था। अब तक उसने दिल से मुझे अपना समकालीन मान लिया था। कई बार हम दोनों यह बात करके बहुत खुश होते कि इंग्लैंड में सिर्फ़ हम ही दो लेखक हैं, बाकी सब तो घासफूस हैं। जिस प्रकार सभा का वह प्रधान और मैं सचिव, उसी तरह अब उपन्यास में भी। जब कभी हम इकट्ठा होते तो किसी न किसी दोस्त को इंडिया में फोन करते- रामसरूप अणखी या बलदेव सिंह को। फोन करते हुए हम उसको भी अपने बाद तीसरे नंबर का उपन्यासकार मान लेते। अन्दर ही अन्दर उसको बहुत ग़म था कि पिछले समय में आया उसका कोई भी उपन्यास नहीं चला था। उसके उपन्यासों की त्रि-श्रृंखला 'पंजाब सैंताली' आई, पर किसी ने कोई जिक्र तक नहीं किया। ऐसे ही उसके उपन्यास 'समां' के साथ हुआ। इस उपन्यास का तो शायद एक-आध रिव्यू भी लगा हो, वह भी नकारात्मक। इस बात का उसको बहुत ग़म था और यह ग़म उसके अन्तिम दिनों तक रहा।
उसके और दविंदर कौर के मध्य क्या कुछ घटित हुआ, यह एक पृथक और बहुत लम्बी कहानी है। मेरे लिए दोनों ही एक से थे, इसलिए मैंने कभी किसी एक का पक्ष नहीं लिया, पर मैं इतना जानता था कि उस जैसे रफ-टफ व्यक्ति के साथ दविंदर जैसी कोमल औरत का रहना बहुत कठिन था। मैं कई बार कहता-
“डाक्टर साहब, कहाँ आप ये डाक्टरनी के पीछे पड़ गए। आपको तो कोई अनपढ़ सी कम्बोजों की लड़की चाहिए थी। जब दिल करता दो थप्पड़ मार लेते और जब दिल करता, गिरा लेते।''
''बात तो तेरी माई याव ठीक है।''
वह हँसता हुआ कहता।
दविंदर अलहदा होकर वुल्वरहैम्पटन जा बसी थी। स्वर्ण चंदन हेज़ में अपने घर में रहता था। हमारी रोज़ मुलाकातें हुआ करतीं। इन दिनों में ही वह एक्सीडेंट का शिकार हो गया। वह किसी के साथ वैन में जा रहा था। पूरे नशे में था कि अचानक वैन का दरवाजा खुल गया और वह नीचे सड़क पर गिर पड़ा। बहुत चोटें आईं। टांग टूट गई। कई महीने अस्पताल में रहा। लेटे लेटे का शरीर गलने लगा। दविंदर से अलहदगी तो काफी देर की हो चुकी थी। उसने दविंदर को फोन करने शुरू कर दिए कि वह वापस आ जाए। दविंदर नहीं मानी तो वह निरंजन सिंह नूर को फोन करने लग पड़ा। मैंने एक दिन कहा-
''डाक्टर साहब, क्या तुम सच ही दविंदर को वापस चाहते हो कि यूँ ही भावुक से होकर कह देते हो ?''
''साली, बात तो तेरी ठीक है। यूँ ही भावुकपने में फोन हो जाता है।''
उसने सोचते हुए कहा, पर दविंदर को और निरंजन सिंह नूर को फोन करने बन्द नहीं किए। मैंने निरंजन सिंह नूर से कहा भी कि वापस आकर दविंदर बहुत पछताएगी। अस्पताल से घर आकर स्वर्ण चंदन और अधिक अकेला हो गया। बेटा-बेटी तो पहले ही उसके पास कम ही आते थे। ऐसे हालात बनें कि दविंदर वापस आ गई, पर उसकी शर्त थी कि वह लंदन छोड़ कर वुल्वरहैम्पटन चले। उसने लंदन छोड़ दिया। किसी समय वह दविंदर के साथ लंदन छोड़कर दिल्ली गया था और अब वुल्वरहैम्पटन। दिल्ली जाते समय उसने अपना लंदन वाला घर नहीं छोड़ा था और वापस लौट आया था, परन्तु वुल्वरहैम्पटन जाते समय वह अपना घर बेच गया। मैंने जब कहा कि यह घर न बेच तो वह मजाक में कहता कि मजा तो इसी बात में है कि किसी किनारे पर पहुँचकर किश्ती को लौटा दो ताकि पीछे की ओर देखना ही न हो। दिल्ली की भांति ही उसने वुल्वरहैम्पटन में जाकर भी छा जाने की कोशिश की। दिल्ली की तरह ही इस शहर में भी उसका स्वभाव उसके खिलाफ़ खड़ा हो गया और उसको अकेला कर दिया गया। शहर के लेखकों ने उसको बुलाना छोड़ दिया। किसी प्रोग्राम में उसके प्रवेश पर मनाही लगा दी। ‘पंजाबी साहित्य अकादमी’ सी बनाकर उसने दिल को कई किस्म के नकली-से हौसले देने के यत्न किए, पर असफल रहा। अब वुल्वरहैम्पटन या आस पास के शहरों में उसका कोई भी लेखक दोस्त नहीं था। कोई भी उससे मिलने नहीं आता था। सभी उसको विद्वान तो मानते, पर उससे दूर ही रहते।
डाक्टर स्वर्ण चंदन की ज़िन्दगी एक खुली किताब की तरह है। उसने न कभी किसी से कुछ छुपाया था और न ही कभी झूठ बोला था। यदि किसी से नफ़रत करता या प्यार करता तो वह खुलकर बता देता। उसके व्यक्तित्व की एक और विशेषता यह थी कि वह कभी भी किसी के ऊपर पीछे से वार नहीं करता था, अपितु अगले व्यक्ति को ललकार कर कहता था कि मैं आ रहा हूँ। वह समझौते वहीं करता था, जहाँ उसको बहुत ही अधिक ज़रूरत होती। उदाहरण के तौर पर एक बार उसको एक समारोह करवाने के लिए किसी खालिस्तानी की मदद की ज़रूरत पड़ी तो उसको उसने कार्यक्रम की अध्यक्षता भी दे दी। साधारण स्थिति में एक खालिस्तानी ने उसको अपनी एक किताब की भूमिका लिखने के लिए कहा तो उसका जवाब था कि पहले यह लिखकर दे कि खालिस्तान की लहर गलत थी। यद्यपि वह अपने उपन्यास में कामरेडों के खिलाफ़ बोलता रहा है पर वह पक्का मार्क्सवादी था। इसी प्रकार उसने कुछेक समझौते भारतीय साहित्य अकादमी के पुरस्कार पाने के बारे में भी किए थे, पर वहाँ वह सफल नहीं हो सका था। बाद में सतिंदर सिंह नूर जब इंग्लैंड आया तो वह पुरस्कार की खातिर उसका लकड़-बग्घा बनने को तैयार था क्योंकि पंजाबी साहित्य अब उस दौर में शामिल हो चुका था कि भारतीय साहित्य अकादमी के ईनाम नूर के इशारे पर ही दिए जाते। ऐसे समझौते करते समय वह अपने स्वाभिमान वाला दाव भी छिपाकर रखता, बात बनती न देख वह एकदम बदल जाता।
उसके द्वारा दोस्त बनाने और उसके सिगरेट पीने में बहुत समानता थी। वह सिगरेट पीता, कुछ कश खींचकर सिगरेट का फूल काट देता और जब दिल करता, फिर सिगरेट सुलगा लेता। इसी प्रकार वह दोस्ती में करता। कोई दोस्त बनाता, जब दिल करता उससे दूर हट जाता और जब दिल करता, दुबारा नाता जोड़ने की कोशिश करता। उसको हर समय सींग फंसाकर रखने की आदत थी। कोई और लेखक आदि न मिलता तो पड़ोसियों से ही पंगा लिए फिरता। यदि पड़ोसी ही दौड़ जाएँ तो फिर उसका अपना बेटा तो कहीं गया ही नहीं था। ऐसे ही उसका एक और स्वभाव बहुत अजीब था कि जब उसको कोई व्यक्ति पसंद न आता तो वह उसके फोन नंबर पर सफेद स्याही फेर देता। जब उसी व्यक्ति को उसे फोन करने की आवश्यकता महसूस होती तो मुझे फोन करके उसका नंबर मांगता। उसने सबसे अधिक बार सफ़ेद स्याही अपने बेटे के फोन नंबर पर फेरी थी। एक बार मैंने मजाक में कहा-
''डाक्टर साहब, दिखाओ तो ज़रा डायरी, मैं अपना नाम भी देखूँ।''
''ओ माई यावे, तेरा नंबर तो दिल पर उकरा हुआ है जहाँ टिपिकस काम नहीं करती।''
अकेलेपन ने उसके स्वभाव को अतिभावुक बना दिया था। उसका अकेलापन तो पहली पत्नी सुरजीत की मौत के बाद ही शुरू हो गया था, पर वह इस अकेलेपन को अपने से छिटकने की कोशिश करता रहा, कभी विवाह करवाकर, कभी मुम्बई जैसे शहर में रीमा सी तवायफ़ ढूँढ़कर, कभी अपने बेटे के संग रहने की कोशिश करके और कभी साहित्यिक समारोह आयोजित करके। आख़िर अकेलेपन ने उसको पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब वह पिछले पाँच सात साल से बहुत अकेला था। दोस्त उससे दूर भागते थे या वह दोस्तों से। वह कहा करता कि मैं बिना सिर वाले व्यक्ति के साथ बात नहीं कर सकता। अपने उपन्यास 'समां' पर फंक्शन करवाना चाहता था, परन्तु दोस्त इकट्ठे ही नहीं हो सके, बल्कि इसका बहुत विरोध होता रहा। उसके उपन्यासों में एक वक्रता यह होती कि वह पात्र अपने इतने नज़दीक से उठाता कि आसानी से ही पहचाने जाते या उसकी कोशिश होती कि लोग इनको पहचान लें। उपन्यास 'कंजकां' में साउथाल के जाने पहचाने लोग लिए और उनके चेहरे-मोहरे बिलकुल वैसे ही रहने दिए। इसी प्रकार उपन्यास 'समां' में भी। दिल्ली और इंग्लैंड के नामवर चेहरों को लेकर उन्हें विधागत बनाकर पेश कर मारा। दोस्त कहते कि उसने यह उपन्यास अपने मन की आंकाक्षाओं के अधीन लिखा है, जैसे कोई बच्चा वीडियो गेम खेलते समय स्वयं हीरो बन जाता है और विलयनों के नाम अपने विरोधी दोस्तों वाले रख लेता है और चुन चुन कर उन्हें मारता है, ऐसा ही कुछ किया है चंदन ने इस उपन्यास में। मेरा अपना विश्वास है कि एक दिन इस उपन्यास की कद्र ज़रूर होगी।
अपने अकेलेपन का हल खोजने के लिए वह अपने घर के करीब वाले पॉर्क में जाया करता था। पॉर्क में पंजाबी बुजुर्ग़ लोग आकर बैठा करते। अब चंदन भी पिछले कुछ सालों से उनके बीच बैठने लगा था, पर वे सभी अनपढ़ ग्रामीण लोग, हिस्सा डालकर शराब पीते, आपस में 'माँ की, धी की' करते। चंदन उनके साथ ही बोतल में हिस्सा डालने लगा था। चंदन को अपने आप को डाक्टर कहलवाने का शौक था, पर वह उनको किसी तरफ से भी डाक्टर नहीं दिखाई देता था, सो वे लोग चंदन का यह शौक पूरा न करते। अपने इस शौक के लिए उसको उनके लिए व्हिस्की खरीदनी पड़ती। इस तरह उसका अकेलापन और अधिक बढ़ गया।
स्वर्ण चंदन के साथ दोस्ती के तीस वर्ष का सफ़र 'लव एंड हेट' वाला रहा है। बेशक इसमें 'लव' ज्यादा और 'हेट' बहुत कम रही। किसी और के वह कितना काम आया या नहीं, परन्तु मेरे लिए बहुत सहायक रहा। परोक्ष रूप से मुझे लिखने के गुर बताए। यह मैंने उससे ही सीखा कि अपने लेखन को अपना सौ फीसदी देना चाहिए। हर रचना इस तरह लिखो जैसे कि वह आख़िरी हो। मेरी रचनाओं पर उसने भरपूर आलोचना की, सलाहें दीं, परचे पढ़े। मैंने उससे अपने अन्य दोस्तों की किताबों पर भी परचे लिखवाए। कई बार अपने कार्यक्रमों को कामयाब करने के लिए उसकी मदद ली। साहित्य और राजनीति को लेकर भी मैं उसके साथ बात करके अपने दिल को हल्का कर लिया करता। साहित्यिक सांझ के साथ साथ हमारी पारिवारिक सांझ भी थी। हम अपने अपने परिवारों के दुख-सुख भी साझे कर लिया करते। मुझे कोई दुख होता या कोई खुशी मिलती, स्वर्ण चंदन पहले व्यक्तियों में से था, जिसे मैं फोन करता। वह सामाजिक तौर पर एक अच्छा सलाहकार तो नहीं था, परन्तु दूसरे की बात को ध्यान से सुनकर जज्ब कर सकता था।
अपने अड़ियल और सख्त स्वभाव के बारे में वह चेतन था। अपने इस स्वभाव का कारण वह अपने यतीम बचपन को मानता। माता-पिता की मौत के बाद उसको हर किसी ने दुत्कारा था। उसने अपने प्रारंभिक जीवन में नफ़रत ही नफ़रत देखी है। अपनी सारी कहानी उसने अपने त्रि-श्रृंखलीय उपन्यास 'पंजाब सैंताली' में लिखी है। इसका मुख्य पात्र 'चेतू' वह स्वयं ही है। जब भी अपने स्वभाव को लेकर बात करता तो कहता -
''माई यावे, चेतू को हराने की, उसे खत्म करने की लोगों ने बहुत कोशिश की, पर हर वार के साथ चेतू तगड़ा हुआ है। इस चेतू ने ऐसे ही रहना है, यह चेतू सुधरने वाला नहीं।''
जब उसके स्वभाव के कारण नाराज़ हुए लोगों की बात चलती तो वह कहने लगता-
''दोस्तो, यह माई यावा चेतू ऐसा ही है, इसे ऐसे ही कुबूल करो।''
मैं इन गर्मियों में उससे मिलने गया तो तीन दिन उसके पास रहा। अपने अकेलेपन को लेकर उसने बहुत सारी बातें कीं। मैंने कहा-
''भाऊ, तू ये खामखाह की ईगो पाले बैठा है। अच्छा भला तेरा बेटा है और हीरे जैसा पोता है, जाकर उनके बीच रह।''
''तुझे पता है कि अमीं (उसका बेटा) ने एकबार मुझे बास्टर्ड कहा था, भला माई याव, चेतू गाली कैसे खा सकता। मैं यहाँ अकेला ही मर जाऊँगा, पर जाऊँगा नहीं। चेतू को अकेले मरना मंजूर है।''
यह उसकी जिद्द थी और मैं जानता था कि इस जिद्द को वह आख़िर तक पूरा निभाएगा। मैंने कहा -
''और कुछ नहीं तो तू यह घर बेचकर साउथाल में घर ले ले। कम से कम साउथाल में तुम्हारा बेस तो है। वहाँ लोग तुम्हे यहाँ से ज्यादा जानते हैं।''
''बात तो तेरी ठीक है, वहाँ मुश्ताक जैसे, तेरे जैसे मेरे माई याव इस स्वभाव को झेल लेते हैं। मैं करता हूँ कुछ।''
उसने कहा पर कभी आया नहीं। आना इतना सरल भी नहीं था। वुल्वरहैम्पटन वाला घर बेचता और दूसरा खरीदता। इंग्लैंड की बिगड़ती इकोनिमी के कारण आजकल घरों के बिकने की कोई आस नहीं, खास तौर पर मिडलैंड के इलाके में।
एक दिन मैं सवेरे उठा तो वह बैठा सिगरेट पी रहा था और किसी गहरी सोच में गुम हुआ पड़ा था। मैंने पूछा-
''क्या बात है ?''
''सोच रहा हूँ कि माई याव, मैं न भी होऊँ तो क्या फ़र्क़ पड़ता है।... मुझे लगता है कि अब इस दुनिया में मेरा काम खत्म हो चुका है।''
''तुम्हें नहीं लगता कि तुम अपने आप को गलत एस्टीमेट किए जा रहे हो। साहित्य में कभी तुम्हारे नाम के डंके बजते रहे हैं।''
''पर अब तो माई याव कोई नहीं पूछता।''
''सारी उम्र किसको पूछा जाता है। हर लेखक का एक समय होता है। उम्र आती है तो बड़े बड़े फिल्मी हीरो अन्दर बैठ जाते हैं।''
''बात तो तेरी ठीक है, अब मेरे माई याव, 'समां' का समय नहीं नहीं।''
कहते हुए वह हँसने लगा। कुछ देर बाद फिर बोला-
''असल में मेरा किसी भी तरफ समय नहीं रहा, अब देख औरत के साथ का आनन्द लिए कितने साल हो गए।''
''क्यों ? रीमा तो अभी कल ही की बात है।''
''नहीं, छह सात साल हो गए। रीमा ठीक थी, पर थी तो माई याव आखिर वेश्या ही।''
फिर वह बताने लगा कि कैसे दिल्ली में रहते समय वेश्याओं के पास जाया करता था। वह कुछ कहानियाँ दविंदर के बारे में भी सुनाने लगा जिन्हें मैं कई बार सुन चुका था। कुछ देर बातें करते करते वह ग़मगीन सा हो कर बोला-
''कितनी देर हो गई माई याव औरत का आनन्द उठाए, औरत की निकटता को महसूस किए... नंगी औरत का जिस्म देखने को बहुत दिल करता है।''
''बुजुर्गो, पैसे तुम्हारी जेब में है, यह पड़ा है फोन और घुमा लो स्क्रोट सर्विस को...।''
''माई याव, ऐसे नहीं।'' कहते हुए वह बगीचे के अँधेरे की ओर देखने लग पड़ा। मैं सोच रहा था कि सत्तर साल की उम्र में यह कैसी लालसा है।
एक दिन उसका सवेरे सवेरे फोन आया। इतनी सवेरे वह फोन नहीं करता था। मैंने सोचा कि रब खैर करे। उसकी आवाज़ बहुत उदास थी, बोला-
''मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ। माई याव, चारों तरफ एक सुन्न पसरी है, दूर दूर तक। दिल करता है कि पिस्तौल मेरे पास हो और मैं हैमिंग्वे की तरह अपने आप को खत्म कर लूँ।''
''आज सवेरे ही पी ली ?''
''नहीं, आज माई याव, पिये बिना ही उदास हूँ।''
मैंने घंटाभर उससे बातें कीं। कुछ लतीफे सुनाए, दोस्तों की चुगलियाँ कीं। उसका मिज़ाज बदल गया। अगले रोज मैंने फोन किया तो वह बिलकुल ठीक था। उसकी खासियत थी कि जब भी ऐसी रौ में होता तो वह कई दोस्तों को फोन करता और एक सी बातें साझी करता।
उसके निधन के दो दिन पहले मैं उसके पास ठहरा था। मैं अचानक गया था। मुझे देखकर वह बहुत खुश हुआ। हमने ढेर सारी बातें कीं। वह अपने पोते अनीश की बातें बड़े चाव से सुना रहा था और साथ ही साथ अपने बेटे को गालियाँ दिए जा रहा था। मैंने कहा-
''बुजुर्गो, मेरी बात मानो, यह घर बेचकर वापस हेज़ आ जाओ, अपने बेटे के घर के नज़दीक घर ले लो। कम से कम पोता तो तुम्हें प्यार करता ही है।''
''हाँ, अनीश मुझे बहुत चाहता है, पर इस माई यावे चेतू का क्या करूँ। मेरे अन्दर का चेतू नहीं मानता।''
कहकर वह हँसने लगा। फिर बातें करते करते वह अचानक चुप हो गया मानो कुछ याद आ गया हो। कुछ देर बाद वह गुस्से में आते हुए बोला-
''तुझे याद है जब मैं माई याव वैन में से गिर पड़ा था।''
''हाँ, यह तो बारह-तेरह साल पहले की बात है।''
''बिलकुल। पर तूने इसकी कहीं भी माई याव ख़बर नहीं भेजी, याद है ?''
''बुजुर्गो, मैंने तो इस कारण अखबारों को ख़बर नहीं भेजी थी कि लोग हँसेंगे कि स्वर्ण चंदन शराबी होकर वैन में से गिर पड़ा।''
''लोगों को माई याव ख़बर में से शराब की स्मैल आ जाती ?''
''और नहीं तो लोग ये सोचते कि स्वर्ण चंदन सिगरेट लगाते समय गिर गया ?''
कहते हुए मैं हँसने लगा। वह भी हँस पड़ा। फिर बोला-
''मेरे मरने की माई याव, ख़बर ज़रूर सबको भेजना।''
''बुजुर्गो, क्या पैसीमिस्टिक सी बातें किए जा रहे हो।''
मैंने खीझते हुए कहा। उसने अपनी ग़ज़लों वाली कॉपी उठा ली और नई ग़ज़लें सुनाने लगा। कोई कोई शेर अच्छा था, पर मैं सभी शेरों पर ही दाद देता रहा। यह शनिवार की बात है। इतवार मैं दस बजे तक उसके साथ रहा। इतवार रात को मैं घर पहुँचा तो उसका फोन आ गया और वह फिर वही मरने के बाद अखबारों को ख़बर देने वाली बातें करने लग पड़ा। मैंने बात को दूसरी तरफ लगाया तो उसने फोन रख दिया। सोमवार सवेरे ही उसका फोन आ गया और कहने लगा-
''ले मेरे भाई, आज मैंने माई याव फ़ैसला कर लिया... सोचा कि इस बारे में सबसे पहले तुझे ही बताऊँ।''
''कैसा फ़ैसला ?''
''मैंने माई याव चेतू को क़त्ल कर देने का फ़ैसला कर दिया। यह मुझे बहुत सारे काम नहीं करने देता। मैंने तय कर लिया है कि यह घर बेचकर मैं अमनदीप के घर के नज़दीक घर ले लूँगा और अमनदीप से कहूँगा कि बेटा, जितनी चाहे गालियाँ मुझे निकाल, जितने मर्जी धक्के मार, पर मैं तेरा बाप हूँ।
कहते हुए उसका गला भर आया। मैंने कहा-
''बुजुर्गो, तुम यूँ ही चेतू के गुलाम बने जाते हो, यह फैसला तो तुम्हें बहुत पहले ले लेना चाहिए था।''
ऐसे फ़ैसल वह पहले भी कई बार ले चुका था, पर चेतू को मारने वाली बात पहली बार कर रहा था। मंगलवार सवेरे फोन आया। वह बहुत खुश था। बताने लगा-
''ले भई छोटे भाई, मेरी अमनदीप से बात हो गई है। वह कहता है कि डैड हमारे पास आ जाओ, हमारे पास रहो। जब तुम्हारा घर बिक जाएगा तो अपना ले लेना। मैं बहुत खुश हूँ। मैं माई याव, आज ही हेज़ पहुँच जाऊँगा।''
उसकी बात में दृढ़ता थी। मैं बहुत खुश हुआ। मुझे प्रतीत होने लगा कि आज शाम तक वह हेज़ पहुँच जाएगा। कल वह ज़रूर मुझे फोन करेगा।
बुधवार की शाम थी। मेरे घर में कुछ मेहमान आए हुए थे। अचानक फोन की घंटी बजी। फोन अमनदीप का था। वह बोला-
''अंकल, डैड चल बसे।''
''ओ माई गॉड ! वो कैसे ?''
''कल कहते थे कि मैं आ रहा हूँ। फिर कहने लगे कि आज मेरे से कार नहीं चल रही। मैंने कहा कि टैक्सी लेकर आ जाओ क्योंकि मेरे भी घुटने का कल आपरेशन हुआ है। वह कहते थे कि टैक्सी पर नहीं, मैं कल आ जाऊँगा। आज सुबह से हम फोन किए जा रहे थे पर वह उठा नहीं रहे थे। हमने पड़ोसी अमरीक सिंह से कहा कि जाकर देख आए। अमरीक के पास घर की चाबी थी, उसने जाकर देखा तो डैड तो पूरे हो चुके थे। रात में ही कहीं दिल का दौरा पड़ गया लगता है।''
कहते हुए अमनदीप रोने लगा। मैं समझ गया था कि स्वर्ण चंदन चेतू को मारने की कोशिश करता करता ही मर गया होगा।
दो वर्ष पहले जब मेरे पिता जी का निधन हुआ तो मैं पिताजी को अन्तिम सफ़र के लिए तैयार करते हुए स्नान करवा रहा था। उसी समय स्वर्ण चंदन का फोन आ गया था। मैंने बताया तो वह बहुत उदास हो गया। एक साल पहले जब मैं अपने छोटे भाई को उसके आख़िरी सफ़र के लिए तैयार करके वापस लौटा स्वर्ण चंदन का फिर फोन आ गया। मैं बात करते हुए रोने लगा। वह भी रो रहा था और अचानक बोल उठा-
''माई याव, मुझे भी नहलाएगा कि नहीं ?''
मैंने उसके बेटे अमनदीप को संग लेकर स्वर्ण चंदन को अन्तिम स्नान कराया। उसे सूट पहनाया, टाई लगाई और जेब में ऐनक रखी और पार्कर का पेन भी, लाल रंग की पगड़ी बांधी... आख़िर एक जेंटलमैन को अपने आख़िरी सफ़र पर निकलना था।

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पंजाबी उपन्यास




पंजाबी के विद्बान लेखक बलबीर सिंह मोमी के विषय में जानकारी, विदेश यात्रा पर ब्रैम्पटन (कैनेडा) गए हिंदी के प्रख्यात लेखक-कवि रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' द्वारा मुझे दिसम्बर 2011 में मिली। बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ बलबीर मोमी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं – सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल ‘इमिग्रेंट’ का पंजाबी अनुवाद ‘आवासी’(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास ‘सत गवाचे लोक’ का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश –विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित डॉ. बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बार ‘ख़बरनामा’ (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास ‘पीला गुलाब’ भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। ‘कथा पंजाब’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं।

- सुभाष नीरव



पीला गुलाब

बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव

1

बीते दिनों की शूल तो जनती है शूल ही
बीते दिनों के फूल भी देते हैं ग़म जगा।

जब वह पीला गुलाब तोड़ने लगा तो न जाने उसकी आँखों में क्या आया, जिससे उसकी आँखें परिचित थीं और दोस्त भी। उसका हाथ एकाएक पीछे हट गया। अब अधिक समय नष्ट करने का कोई लाभ नहीं। उसने पुन: एक बार सजी हुई कोठी के ड्राइंग रूम की ओर देखा और फिर तेजी के साथ सड़क पर आ गया। लॉन में अभी भी फूल मुस्करा रहे थे। दिन छिप चला था और धीमे धीमे अँधेरा पसरने लगा था। पंछी अपने सफ़रों से अपने घरों की ओर लौट रहे थे, जहाँ सघन वृक्षों में उनके घोंसले उनका इंतज़ार कर रहे थे। घड़ियाल समय की गति के निरंतर चलते रहने की सूचना दे रहे थे, पर समय तो घड़ी में से निकल चुका था। यादें, फरियादें, परेशानियों के ज्वार-भाटे चढ़ते आ रहे थे। उसका सफ़र करीब पहुँचकर भी अभी लम्बा था।

वह चलता रहा, चलता रहा। कई जंगलों-बियाबानों, नदियों, नहरों, खेतों, चरागाहों, बादल, सूरज और तारों को पार करके वहाँ पहुँचना था। वर्षों का सफ़र था जिसे अब महीनों, दिनों और पलों में खत्म करना था - और गुलाब ने सोचा कि आख़िर ज़िन्दगी का यथार्थ क्या था ? मानवीय सच कहाँ थे ? वफ़ा को जाने वाली सारी पगडंडियाँ क्यों बेवफ़ाई के जंगलों में से गुजर कर जाती थीं। और उसका पिछला सारा जीवन उसकी आँखों के सामने आ गया।

बचपन में मुझे अच्छी जूती और अच्छे बूट पहनने का बहुत शौक था। यह इच्छा इसलिए भी बड़ी तीव्र थी कि अक्सर मुझे नंगे पैर ही रहना पड़ता था, क्योंकि जो जूती या बूट घरवाले लेकर देते, उन्हें मैं प्राय: स्कूल पढ़ने गया अथवा नहर में नहाने गया भूल आता था।
अच्छी जूती के साथ साथ मुझे बढ़िया कपड़े पहनने का भी बहुत शौक था। इकलौता और सुशील बेटा होने के कारण मुझे अच्छे कपड़े पहनने को मिलते रहते थे, पर पुराने कपड़ों से भी मेरा इश्क था। पुराने कपड़े पहनकर मुझे नये कपड़ों से कम खुशी महसूस नहीं होती थी। पुराने कपड़ों की तो शरीर से मित्रता हो जाती थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि सर्दियों की ठंड से बचने के लिए मेरी माँ मुझे पलश का लाल कोट कोट ज़रूर पहनवा देती थी जो कि उसने बर्मा से बेघर होकर आए एक परिवार से कपड़ा खरीदकर बनवाया था। पाँचवी जमात तक मुझे 'लूण-मिर्च' का झग्गा और लट्ठे की सलवार ही मिलती रही।
अच्छे सूट-बूट के आलवा, मुझे सैर करने, नहर में नहाने, गुल्ली डंडा खेलने, पशु चराने, बागों में से आड़ू, जामुन, संतरे, अमरूद और आम तोड़ने का भी बहुत शौक था। हमारा अपना भी बाग था जिसमें हमारे अपने ताया से सांझ थी। अंगूरों की बेलें, मिट्ठे, निम्बू और शकरगंदी साझे में बोई जाती थी। जब भी दांव लगता, मैं ये चीज़ें ज़रूर तोड़ लाता।
उन दिनों में ताया को नई नई सब्ज़ियाँ बोने का भी बहुत शौक था जैसे - हल्दी की गांठें, आलू, कचालू और अरबी। मैं तिनकों से ज़मीन खुरच कर हल्की की गांठें ज़रूर उखाड़ता।
हमारे खेतों के समीप सरकारी डाक बंगला था जहाँ कई प्रकार के फूल होते थे। माली की मेरे बापू से यारी थी। इसलिए कुछ फूल मुझे माली स्वयं दे देता और कुछ फूल मैं आँख बचाकर खुद तोड़ लेता।
हमारे गाँव के पास से एक नहर बहती थी। तीजें इस नहर के किनारे ही लगा करती थीं। नहर में मेरे डुबाव पानी था। लेकिन नहाने के लिए मेरा मन बड़ा उतावला रहता। डुबकियाँ मारने, छलांगे लगाने और उल्टा होकर तैरने के लिए मैं मज़बूर था। मुझे तैरना नहीं आता था।
आख़िर मैंने एक दिन अपने बापू से कहा और उसने मुझे कई दिनों की मेहनत के बाद तैरना सिखा दिया और फिर मैं अभ्यास के लिए नहर के किनारे किनारे बहते पानी की दिशा में तैरने लगा। जब साँसें फूलने लगतीं तो किनारे की ओर आ जाता। धीरे धीरे मैं चढ़ते पानियों का तैराक भी बन गया, उल्टे होकर तैरना भी सीख गया। गोता लगाकर कहीं का कहीं जा निकलता। काफी देर तक नाक और मुँह बन्द करके पानी के नीचे बैठा रहता।
और, एक दिन क्या हुआ ?
मैं अपने खेत की ओर जा रहा था। क्या देखा कि कुछ लड़के हमारे तरबूज तोड़ रहे थे। मुझे देखकर वे भागने लगे। किसी ने तरबूज हाथ में पकड़ा और किसी ने पैली में ही फेंक दिया। वे आगे आगे और मैं पीछे पीछे। वे गिनती में अधिक थे और मैं अकेला था। वे कदकाठी और ज़ोर में भी मुझसे तगड़े थे, परन्तु मेरे अन्दर अपने मालिक होने का रौब था, शक्ति भी थी और उनमें अपनी चोरी का भय। उनमें से कुछ मेरे परिचित भी थे और दोस्त भी, परन्तु जब मैं उनके पीछे दौड़ने लगा तो वे उस वक्त मेरे दोस्त नहीं थे।
वे नहर में कूद गए और जैसे तैसे ज़ोर ज़ोर से बांहें मारते दूसरे किनारे जा लगे और नहर के उस पार ढोर चराते अपने साथ के लड़कों में जा मिले। मैं गुस्से में भरा नहर के इस पार खड़ा था। मेरे से दो दो, चार चार साल की बड़ी उम्र के मेरे चोर नहर के उस पार पहुँचकर चरवाहों के साथ जा मिले थे। मैं अभी इस नहर को तैरकर परली पार नहीं पहुँच सकता था। यह नहर अधबीच में जाकर मेरे बापू के कद से भी ज्यादा डुबाऊ थी। इसमें पैर लगने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। मैंने इस नहर को भी पार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
उसी दिन शाम को जब नहर पर गया तो मौसम ठंडा था। आकाश में बादल थे। परले किनारे की हरी घास पर एक पठान नमाज पढ़ रहा था।
मैंने तेजी से कपड़े उतारे और नहर में छलांग लगा दी। छलांग मैंने दूर से दौड़ते हुए आकर लगाई थी ताकि पानी में दूर तक बिना तैरे ही जा सकूँ। और मैं लगा हाथ-पैर मारने। अधबीच में पहुँचते ही मेरे हाथ-पैर फूल गए। साँस चढ़ गया। मुँह और नाक कभी पानी में चले जाते और मैं फिर ज़ोर मारकर साँस लेने के लिए मुँह को बाहर निकालता। दूसरी ओर का किनारा दूर था। इस ओर का किनारा उससे भी दूर। न मैं आगे पहुँच सकता था और न मैं पीछे मुड़ सकता था। मेरी माँ को मेरे डूबने का अक्सर ही भय सताता रहता था। नहर में नहाने मैं चोरी चोरी जाया करता था। परन्तु पिछले साल मेरे हमारे गाँव के नाइयों का लड़का जो मेरी उम्र का ही था, डूबकर मर गया था। मैं अब डूबने भी लगा था और मरने भी। मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया और मैं हिम्मत हार बैठा। पानी का एक भंवर-सा आया और फिर मुझे कुछ पता नहीं।
जब होश आया तो मैं परले किनारे पर था और पठान मुझे अपने घुटनों पर पेट के बल उल्टा लिटाकर मेरे मुँह में से पानी निकाल रहा था। काफी देर तक मैं वहाँ पड़ा रहा। मेरे कपड़े अब उस पार पड़े थे जहाँ मैं वापस तैर कर नहीं जा सकता था। पठान की नमाज में जहाँ मेरे डूबने से विघ्न पैदा हुआ था, वहीं उसने मुझे बचाकर अल्ला ताला की दरगाह में एक पुण्य का काम भी किया था।
इतने में हमारे गाँव का चरवाहा नहर के परले वाले किनारे पर आया। मैंने उसको आवाज़ लगाकर मेरे कपड़े लेकर पुल तक लाने के लिए कहा। चरवाहा मेरे कपड़े उठाकर खतानों में से ढोर-डंगरों को हांकता-हांकता पुल तक पहुँच गया। मैं दौड़कर उससे पहले ही पुल पर पहुँच उसकी ओर बढ़ा और अपने कपड़े लेकर उससे मिन्नतें करने लगा कि घर में जाकर वह मेरी माँ को न बताये कि मैं आज नहर में डूब चला था। यदि उसको पता चल गया तो वह मुझे मुर्गों वाले दड़बे में बन्द कर देगी।
हाँ तो, मुझे मुर्गों का भी बहुत शौक था। मुर्गे लड़वाने का नहीं, मुर्गे पालने का, चूजे निकलवाने का। हमारे गाँव में एक मास्टर था जो हमें पढ़ाता भी था और हमारी नज़रों में वह पूरे गाँव से कुछ आगे भी था। एक तो वह कुछ पढ़ा-लिखा था, दूसरा वह हमारा मास्टर था। तीसरा उसके कपड़े धोबी द्वारा धुले और इस्तरी किए होते थे। चौथा, वह कोई न कोई काम ज़रूर करता रहता था जिससे वह गाँव के लोगों की नज़रें अपनी ओर खींचे रखता था।
एक बार वह मिलेट्री में से नीलाम हुआ एक पुराना मोटर साइकिल उठा लाया। वह सारे दिन में मुश्किल से एक बार ही स्टार्ट होता और उसमें से धुआँ निकलता और घर्र...घर्र की आवाज़ आती तो हम इतने में ही बहुत खुश होते। जब मोटर साइकिल स्टार्ट न होता तो मास्टर हमें धक्के लगाने के लिए कहता। हम कई बार घंटों उसके मोटर साइकिल को धक्के मारते रहते। वह मौज से ऊपर बैठा रहता। हम इतनी बात पर ही खुश होते रहते और इस तरह वह हमें पूरे गाँव से अनौखा, बड़ा और सयाना लगता रहता।
फिर वह तवे वाला बाजा ले आया। सारा गाँव तो रहा एक तरफ, आसपास के गाँवों में से भी लोग तवे सुनने के लिए उसके घर आधी-आधी रात तक बैठे रहते। गर्मियों में वह बाजा कोठे पर लगाता और हम नीचे बाज़ार में जाकर सुनते। मुझे यह बाजा सुनने का भी बहुत शौक था।
'कंध टप्प के गुलाबी फुल्ल तोड़िया
आश्कां के बाग विचों...'
यह रिकार्ड वह बहुत बजाता और मुझे यह पूरा का पूरा जबानी याद हो गया। फिर इस मास्टर ने डेयरी खोल ली। एक मशीन में दूध डालकर मशीन को चारा काटने वाली मशीन की तरह घूमाता तो झट से मक्खन बाहर आ जाता। मुझे यह मशीन देखने का भी बहुत शौक था। अपितु मैं चाहता था कि ऐसी मशीन हमारे घर में भी हो और मेरी माँ को सवेरे-सवेरे उठकर देर तक भैंसों का दूध चाटी में न बिलौना पड़े।
अब यह मास्टर कहीं से तिलोरें ले आया था। ये बहुत सुन्दर थीं। इनका कद तो मुर्गी जितना था, चाल तीतरों जैसी और चित-कबरे रंग में बहुत ही सुन्दर लगती थीं। मास्टर कहता था कि यदि ये अंडे देने पर आएँ तो दिए ही जाती हैं। मैं अक्सर सवेरे ये तिलोरें देखने के लिए उसके घर जा पहुँचता।
हाँ, मुझे मुर्गे रखने और अंडों से चूजे निकलवाने का शौक तो बहुत ही ज्यादा था। मुझे चूजे मुर्गों से भी अधिक प्यारे लगे थे। एक बार मेरी माँ ने मुर्गी के नीचे अंडे रख दिए। मैं माँ से छिपकर रोज अंडे उठा उठाकर देखता कि इनमें अभी चूजा बोलने लगा था कि नहीं।
मुझे बिल्लियाँ पालने का शौक मुर्गों से भी अधिक था। मुझे अधिक रंगों वाली बिल्ली बहुत पसंद थी। बिल्ली भी वह जो मेरे साथ सोये और मेरी गोद में बैठे। मेरे इस शौक को पूरा करने के लिए बापू ने जब मंडी में आढतियों के घर बिल्ली ब्याई तो एक बच्चा लाकर दिया। बिल्ली का यह खूबसूरत बच्चा मेरा सबसे बड़ा दोस्त था। मैं स्कूल जाता पर मेरा ध्यान उस बिल्ली के बच्चे में होता। मैं दूध पिला कर उसका पेट भरे रखता। मेरा मन करता कि जल्दी से जल्दी यह बड़ा हो जाए। इतना बड़ा कि सारी दुनिया के बिल्लियों-बिल्लों का मुकाबला किया जाए और यह बिल्ला उनमें पहले नंबर पर आए।
मैंने एक छोटी-सी ढोलकी भी घर में रखी हुई थी। यह ढोलकी मुझे बापू ने 'सच्चे सौदे' की अमावस पर लाकर दी थी। हर अमावस पर ढाडी आते थे और मैं अपने बापू के साथ जब अमावस नहाने जाता तो दीवान में ढाडियों को बड़े शौक से सुनता और फिर वही 'शबद' अपनी ढोलकी पर गा गाकर अपने बिल्ले को गोद में बिठाकर सुनाता। एक बार दीवान में ढाडियों ने शबद सुनाया –

'चलो सिंघो रल दरशन करिये
गुरू गोबिन्द सिंघ आए ने...।'
(चलो सिंहों, मिलकर दर्शन करें, गुरू गोबिन्दर सिंह आए हैं)

मैं घर आकर बिल्ले को गोद में बिठाकर कहा-
'नीला घोड़ा,बांका जोड़ा,
हथ विच बाज सुहाए ने।
चल बिलिया रल दर्शन करिये
गुरू गोबिन्द सिंह आए ने।'

फिर मेरी माँ का ख़याल था कि यह बिल्ला जैसे-जैसे बड़ा होता जा रहा है, हमारी मुर्गियों और चूजों की खैर नहीं। मैं चूजों को बिल्ले पर चढ़ाकर सवारी कराता।
चूजों और बिल्ले की दोस्ती इतनी बढ़ गई कि मजाल थी कि कोई बाहर का बिल्ला या कुत्ता चूजों की ओर झपटता। हाँ, एक बार चील अवश्य हमारे चूजों को उठाकर ले गई थी। तब से बिल्ला अब आसमान की ओर भी ध्यान रखता।
एक हमारा डब्बू था। इस बिल्ले की डब्बू के साथ भी गहरी दोस्ती थी। डब्बू बापू का कुत्ता था। मैं डब्बू को इतना पसंद नहीं करता था। डब्बू को हर चीज़ मुँह में डालने की आदत थी। एक बार डब्बू ने मेरी रोटी जूठी कर दी। मैं डंगरों वाली कोठरी में से फावड़ा उठा लाया और जब वह आराम से सो रहा था, मैंने डब्बू के सिर में वह फावड़ा दे मारा। डब्बू मर गया था और मैं डरकर घर से भाग गया। डब्बू के मरने पर बापू की पिटाई का भय मुझे बहुत परेशान कर रहा था।
रात को अँधेरे में मैं घर लौटा तो डब्बू अच्छा-भला था, पर कुछ सुस्त था।
मैं माँ से छिपाकर डब्बू को बहुत सारी रोटियाँ डालीं और हाथ जोड़कर उससे अपनी गलती और ज्यादती की माफ़ी मांगी। मुझे घरवालों ने बहुत डरा रखा था कि बेजबान पशु को मारने का बहुत ही पाप लगता है।
डब्बू बापू का कुत्ता था और मेरा मन करता था, पतली कमर और पतली टांगों वाले शिकारी कुत्तों के लिए।
हमारे गाँव में मेहरों के पास ऐसे कुत्ते थे जिनसे वह अक्सर खरगोश का शिकार किया करते। मैं कई बार माँ से चोरी इन शिकारियों के साथ शिकार खेलने गया था। तीतरों, बटेरों, रोड़ुओं और भट्टिरों का शिकार वे भगवे से करते या फिर उन बटेरों और तीतरों से जो उन्होंने पाल रखे थे। पैली के एक तरफ जाल लगाकर और फिर भगवे डालकर या बटेरे बुलाकर वे शिकार को फंसा लेते।
मैं दिनभर उनके साथ दिहाड़ी तोड़ता परन्तु मुझे ये महरे पता नहीं बच्चा समझकर शिकार में से कोई हिस्सा न देते, और मैं लौटते हुए छोटी नहर के घाट पर से छोटी छोटी मछलियाँ पकड़कर झोली भर लाता और माँ उनको देखकर गालियाँ निकालती, पाप का भय दिखाती और बाहर बाज़ार या पोखर में ये छोटी छोटी मछलियाँ फिकवा देती।
डब्बू बाप का कुत्ता था और बापू ने मुझे समझाया था कि शिकारी कुत्ते पालना नीची जाति के लोगों का काम था और मुझे इस तरह के ख़याल छोड़ देने चाहिएँ।
मुझे ये ख़याल छोड़ देने चाहिएँ या नहीं, इस बात का पता मुझे काफी समय तक नहीं लगा। पर मुझे शिकार के ख़याल से, कुत्ते, बिल्ले और चूजों को प्यार करने से, नहर में गोते लगाने, ताया के खेत में से हल्दी के बूटे उखाड़ने, बाग में से चोरी से आड़ू तोड़ने से कोई भी न रोक सका। और एक दिन स्कूल से छुट्टी होते ही हम बहुत सारे लड़के बाग में आड़ू तोड़ने चल गए। कुछ लड़के बड़े गेट की ओर से गए जहाँ से उन्होंने माली से कुछ आड़ू पैसे देकर खरीदने थे।
हम उस पाड़ की तरफ चले गए जहाँ बाग को पानी लगाने के लिए खाल अन्दर आता था। वहाँ से अन्दर घुसकर हमने कुछ नीचे गिरे आड़ू उठाए और कुछ पेड़ों से लगे आड़ू तोड़कर जेबें भर लीं।
पता उस समय ही चला जब माली ने आकर रंगे हाथ हमें पकड़ लिया। सभी को डांटा-फटकारा।
मुझसे पूछा, ''तू किसका लड़का है ?''
''जत्थेदार का।'' मैंने कहा।
उसने मुझे भविष्य में यह काम न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया और मेरे पास से आड़ू भी नहीं छीने। मैंने वे आड़ू बाग में ही फेंक दिए। मारे डर के मेरी जान काँप रही थी कि माली बापू को इस चोरी के बारे में अवश्य बताएगा।
जब मैं घर पहुँचा तो माँ ने हुक्म दिया-
''जा, अपने बापू की रोटी खेत में दे आ। कामगर कहीं भाग गया है और तेरे बापू को रात में पानी भी लगाना है। तू अपने बापू के साथ नाके पक्के करवाने में हाथ भी बंटाना।''
हमारा खेत नहर के साथ लगता होने के कारण मोघे के पानी के तेज़ बहाव से कोई-कोई रोक बह जाती या नाली टूट जाती तो अकेले आदमी के लिए दोबारा रोक को पक्का करना आसान काम नहीं था। मुझे याद है कि कई बार बहती जाती रोक में बापू मुझे बिठाकर फावड़े से आसपास की खाल की मिट्टी निकालकर डाले जाता था और जब मुँह पूरी तरह बन्द हो जाता तो मैं बीच में से उठ खड़ा होता। इसलिए पानी लगाना, नाके पक्के करना और मोघे तक चक्कर लगाना, ये सभी काम कठिन थे। मुझे पानी मोड़ने के काम से अधिक प्यार नहीं था। मैं जानता था कि बापू की खेत में रोटी ले जाने का अर्थ था, सारी रात बापू के साथ पानी लगवाना। मैं रूठ गया और जिद्द पकड़ बैठा कि मैं बापू की रोटी खेत में लेकर नहीं जाऊँगा।
मेरी माँ ने मुझे बहुत समझाया, बहुत मिन्नतें कीं, कई लालच दिए, पर मैं कहाँ मानने वाला था। जब मिन्नतें कर करके माँ हार गई तो मैंने कहा-
''एक शर्त पर मैं बापू की रोटी खेत में ले जाऊँगा।''
''वो क्या ?'' माँ ने पूछा।
''मुझे कुम्हारों का गधा ला दे, उस पर चढ़कर रोटी लेकर जाऊँगा।''
''मरजाणे, मिरासियों के यहाँ पैदा होना था, रे कामचोर ! घोड़ी से गिरा बंदा तो बच जाता है, खोती से गिरा नहीं बचता।''
पता नहीं, माँ ने मुझे कितनी गालियाँ दीं। वह कब मान सकती थी कि मैं कुम्हारों के गधे पर चढ़कर रोटी लेकर खेत में जाऊँ।
दरअसल, कुम्हारों का बशीरा मेरा यार था और उसके साथ मिलकर मुझे गधे की सवारी करना आ गया था। बग़ैर काठी वाले गधे पर चढ़ना, ऊँठ, घोड़ी, हाथी या पहाड़ पर चढ़ने से भी कठिन था। यह बात केवल उस पर चढ़ने वाला ही जान सकता है।
कुछ देर बाद माँ का गुस्सा कुछ कम हो गया तो वह कहने लगी, ''खोते पर चढ़कर रोटी तो तू दे आएगा, पर तुझे पता नहीं रोटियाँ अपवित्तर हो जाएँगी।''
''मैं रोटियों वाला कपड़ा एक हाथ में पकड़कर ऊँचा करके रखूँगा, खोते के साथ लगने नहीं दूँगा।''
''अच्छा, फिर जा, खोता मांग ला।''
माँ के कहने भर की देर थी कि मैं कुम्हारों के घर से गधा खोलकर उसके मुँह में झब्बू देकर अपने घर ले आया।
माँ ने रोटियाँ कपड़े में बाँधीं। मेरे हाथ धुलाए और मैं उछलकर गधे पर चढ़ बैठा और रोटियों वाला कपड़ा एक हाथ से ऊँचा करके पकड़ लिया और दूसरे हाथ से झब्बू वाला रस्सा और गधे की बगलों में ऐड़ियाँ मारकर उसे भगा लिया।
जब गाँव की सीमा पार कर गधा बड़े अस्तबल के पास से गुजरा तो आगे बड़ा खाल पानी से भरा बह रहा था। यह खाल इतना चौड़ा ज़रूर था कि यदि आदमी खाली हाथ हो तो छलांग लगा कर उसे पार कर सकता था और छलांग भी पीछे से दौड़ते हुए आकर लगानी पड़ती थी।
मैं मुश्किल में फंस गया। गधे को बहुत ऐड़ियाँ मारीं, झब्बू वाला रस्सा भी खींचा, पर गधा था कि खाल में घुसने का नाम ही नहीं लेता था। यूँ तो नहीं कहावत बनी थी कि गधे का अड़ियलपन बुरा होता है। दूसरा हाथ ऊँचा उठाकर मैंने रोटियों वाला कपड़ा पकड़ा हुआ था कि कहीं रोटियाँ गधे की कमर से लग कर अपवित्र न हो जाएँ।
फिर गधे को पीछे से भगाकर खाल को फाँदने के बारे में मैंने सोचा। मुझे उम्मीद थी कि एक ही छलांग में गधा खाल पार कर जाएगा। यदि मैं गधे पर से उतर कर खाल पार करता तो एक तो दुबारा गधे पर एक हाथ में रोटी वाला कपड़ा पकड़े उस पर चढ़ना कठिन था और दूसरा गधे के भाग जाने पर दुबारा बैठने न देने तथा रोटियों का गधे से छूकर अपवित्र होने का बड़ा डर था।
ख़ैर ! मैं गधे को पीछे से भगाकर लाया और रोटियों वाला कपड़ा हाथ में ऊपर उठाए रखा। दूसरे हाथ से झब्बू को थोड़ा सा खुला छोड़ते हुए गधे द्वारा खाल फाँद जाने की आस रख मैंने उसकी कमर में ज़ोर से ऐड़ी मारी। गधा तो छलांग लगाकर खाल पार कर गया, पर मेरे हाथ से झब्बू वाला रस्सा छूट गया और मैं भरे हुए खाल में जा गिरा। मैंने रोटी वाला कपड़ा अभी भी दायें हाथ में ऊपर उठा रखा था।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

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समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
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