संपादकीय

>> रविवार, 13 दिसंबर 2009



'कथा पंजाब' की संकल्पना को हिंदी और पंजाबी के लेखकों, पाठकों ने ही नहीं, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों, पाठकों ने भी सराहा है। किसी भाषा के श्रेष्ठ और उत्कृष्ट साहित्य की हिन्दी में अंतर्जाल पर इस प्रकार की प्रस्तुति पहलीबार देखकर बहुत से साहित्य प्रेमी पाठक, लेखक, पत्रकार इस क्षेत्र में अपने ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित हुए हैं। ऐसे ही जब मेरे एक मित्र अनुज ने पंजाबी की सम्पूर्ण प्रकाशित, अप्रकाशित कृतियों को हिन्दी में अनूदित करवा कर अंतर्जाल पर लाने की इच्छा मेरे सम्मुख रखी तो मुझे बहुत अच्छा लगा। अनुज स्वयं लेखक नहीं है पर किसी भी भाषा का अच्छा साहित्य पढ़ने में उनकी गहरी रुचि है। अनुज ने अपने इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए न केवल मुझसे विचार-विमर्श किया बल्कि इसका अधिकांश उत्तरदायित्व भी मुझे ही सौंप दिया। उनकी गहरी रुचि और लगन देखकर मैंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप 'अनुवाद घर'(www.anuvadghar.blogspot.com) जैसी साहित्यिक ब्लॉग पत्रिका का ब्लॉग की दुनिया में गत 1 दिसम्बर 2009 को पदार्पण हुआ। इसमें पंजाबी साहित्य की प्रमुख विधाओं यथा- कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, संस्मरण/रेखाचित्र आदि की श्रेष्ठ कृतियों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करने की उनकी योजना है। उनकी इस महत्वपूर्ण योजना का नि:संदेह स्वागत किया जाना चाहिए। मेरा तो मानना है कि अन्य भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य के अनुवाद को लेकर भी अंतर्जाल पर ऐसे कार्य किए जाने चाहिएं। कुछ लोग अपने सीमित समय और संसाधनों के चलते इस प्रकार का कार्य कर भी रहे हैं पर उनकी गिनती अभी नगण्य है। डा. दुष्यंत का ब्लॉग 'रेतराग' (www.retrag.blogspot.com) इसी प्रकार का एक महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें राजस्थानी साहित्य और संस्कृति से जुड़ी सामग्री का वह हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। भाई दिनेश कुमार माली अपने ब्लॉग -'सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियाँ (www.sarojinisahoostories.blogspot.com) में अंग्रेजी और ओडिया की प्रख्यात लेखिका सरोजिनी साहू की कहानियाँ नियमित रूप से हिन्दी में अनूदित करके प्रस्तुत करते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जब किसी भाषा का साहित्य दूसरी भाषा में अनुवाद के माध्यम से पहुँचता है तो उसका विस्तार होता है, उसे एक नई धरती और नया आकाश मिलता है। न केवल दो भाषाओं के लेखकों के बीच संवाद की प्रक्रिया प्रारंभ होती है वरन भाषाएँ भी एक-दूजे के बहुत करीब आती हैं। शब्द और संस्कृति का पारस्परिक आदान-प्रदान होता है और वे और अधिक समृद्ध और शक्तिशाली होती चली जाती हैं। अन्य भारतीय भाषाओं की अपेक्षा हिन्दी के पाठक का दायरा बहुत विशाल है। हिन्दी ही एक ऐसी सम्पर्क भाषा है जिसमें किसी भी भाषा का साहित्य अनूदित होकर अन्य भारतीय भाषाओं में सरलता और सहजता से पहुँचने की राह पाता है। जिस प्रकार अनेक विदेशी भाषाओं के साहित्य के लिए हम अंग्रेजी भाषा पर निर्भर हैं और अंग्रेजी के माध्यम से ही अधिकांश पाठक उस भाषा के साहित्य को जान पाते हैं, ठीक इसी प्रकार हिन्दी के माध्यम से भारतीय भाषाओं के पाठक, लेखक अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य तक सुगमता से पहुँच पाते हैं। मेरे द्वारा संपादित व अनूदित पंजाब आतंक पर पंजाबी कहानियों की पुस्तक ''काला दौर'' जब प्रकाशित हुई तो उसकी अनेक कहानियों का कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। तमिल, तेलगू, कन्नड़, बांग्ला, मलयालम, ओडिया भाषा में पंजाबी भाषा को जानने वाला शायद कोई विरला ही मिले, परन्तु हिन्दी का ज्ञान रखने वाले विद्वानों, चिंतकों, लेखकों का अभाव नहीं है। इसी के चलते हिन्दी में प्रकाशित किसी भी भारतीय अथवा विदेशी भाषा के साहित्य का अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर सहजता से उपलब्ध हो जाता है।
अत: यदि हमें अपनी भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को परस्पर एक दूसरे में रचाना-बसाना है और उसे और अधिक व्यापकता देनी है तो इस प्रकार के कार्य हमें स्वयं ही करने होंगे, बजाय इसके लिए हम अपनी-अपनी भाषाओं की अकादमियों का मुंह जोएं। यहाँ मुझे मज़रूह का यह शे’र याद आ रहा है-
‘मैं अकेला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।’

कारवां तभी बनता है जब कोई एक व्यक्ति पहल करता है। हिन्दी में पहला ब्लॉग न जाने किसने शुरू किया होगा, यह शोध का विषय है, पर जिसने भी शुरूआत की, यह उसी का परिणाम है कि आज अंतर्जाल पर ब्लॉग और वेब साइटों के माध्यम से हिन्दी का परचम लहरा रहा है।
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‘कथा पंजाब’ के ताज़ा अंक में आप “पंजाबी कहानी : आज तक” के अन्तर्गत आप पढ़ेंगे – वरिष्ठ कहानीकार गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बहुचर्चित कहानी “भाभी मैना”, “पंजाबी लघुकथा : आज तक” के अन्तर्गत दर्शन मितवा की लघुकथाएं और “नई किताबें” स्तम्भ के तहत हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार- उपन्यासकार डॉ रूपसिंह चंदेल द्वारा हरजीत अटवाल के उपन्यास ‘रेत’ के हिन्दी संस्करण की समीक्षा।
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आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी…
सुभाष नीरव
संपादक - कथा पंजाब

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पंजाबी कहानी : आज तक


पंजाबी कहानी : आज तक(3)

गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी ( 1895 - 1977)

गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी का जन्म 26 अप्रैल 1895 में स्यालकोट(पाकिस्तान) में हुआ था और इन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की थी। पंजाबी कहानी की प्रारंभिक कथा पीढ़ी के ये एक मजबूत स्तम्भ माने जाते हैं। इनकी सभी कहानियों में 'प्रेम' विषय प्रमुख है। यूँ तो गुरबख्श सिंह जी ने अनेक नाटक भी लिखे लेकिन जाने वह एक महान कहानीकार के रूप में ही हैं। 'राजकुमारी लतिका', 'प्रीत मुकट', 'पूरब-पश्चिम', और 'प्रीतमणि' इनके प्रमुख नाटक हैं। सन् 1947 के बाद इनके 'भाभी मैना', 'नवें खंडर दी उसारी', 'शबनम', 'आखरी सबक', 'प्रीतां दे पहरेदार' और 'इश्क जिन्हां दे हड्डीं रचया' कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। गुरबख्श सिंह के पास कहानी कहने का अपना निजी दृष्टिकोण था और थी भावुक संवेदनशीलता और रसिक शैली। कई कहानियों में मनौवैज्ञानिक चित्रण गहरा विश्लेषण लिए हुए है और जीवन यथार्थ को नया अर्थ भी प्रदान करता प्रतीत होता है। 10 कहानी संग्रह, एक उपन्यास, 7 बाल साहित्य की पुस्तकें तथा अनेक लेख संग्रह इनके नाम हैं। कुछ पुस्तकों का अनुवाद भी किया। 'प्रीतलड़ी' मासिक पत्रिका के संस्थापक रहे गुरबख्श सिंह जी प्रीत नगर की स्थापना भी की। सन् 1977 में निधन।
संपादक - ‘कथा पंजाब’



कहानी

भाभी मैना
गुरबख्श सिंह
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

शहर की एक गली में आमने-सामने दो घरों के बीच मुश्किल से तीन-साढ़े तीज गज़ का फासला होगा। दो खिड़कियाँ भी पहली मंजिल पर आमने-सामने ही खुलती थीं। एक खिड़की में से सामने दीवार पर बड़ा-सा शीशा टंगा हुआ दीखता था। इस कमरे में बाकी चीजें भी कम ही थीं। एक चारपाई, एक पीढ़ा, एक आले में दो-चार किताबें, तेल की शीशी, दीवार पर एक-दो तस्वीरें और टोकरी में दो-चार कपड़े।
यह एक छोटा-सा कमरा था। इसमें सिवाय एक स्त्री के कोई दूसरी सूरत कम ही दिखाई देती थी। वह कभी कसीदा काढ़ती, कभी किताब पढ़ती, कभी सिर झुकाये बैठी रहती और कभी शीशे के सामने खड़ी होकर कितनी-कितनी देर तक बालों में कंघी करती। वह दिन में कई बार कंघी किया करती थी। घरवालों का ख़याल था कि वह कंघी के पीछे दीवानी है।
उसके बाल लम्बे भी बहुत थे। जब वह गर्दन घुमाकर बालों की लम्बाई देखती तो उसे अपने बाल टखनों को छूते दिखाई देते थे। और अगर किसी ने उजाले में देखे होते तो उनकी चमक को वह भूल न पाता। इसमें भी कोई शक नहीं कि उसे अपने बालों पर बड़ा नाज था।
वह जवान थी, बेहद खूबसूरत और लम्बी। उसकी आँखों का रंग सामने वाली खिड़की में से नहीं देखा जा सकता था लेकिन उसकी छवि बड़ी मीठी और उदास थी।
वह कितनी कितनी देर तक अपनी खिड़की में बैठी आँसू बहाती रहती। उसे कभी किसी ने खिड़की में से बाहर सिर निकालकर झाँकते नहीं देखा था। लेकिन गली की औरतों को उसके बैठे होने का अहसास ज़रूर होता था और कभी कोई वहाँ से गुजरते हुए उसे आवाज़ भी दे लेती थी। और वह प्रत्युत्तर में बड़े मीठे लहजे में ज़रा झुककर जवाब दे देती थी।
जब वह कमरे में नहीं होती थी तो खिड़की बन्द हो जाती थी। किन्तु, जाड़ों में तीसरे पहर, और गर्मियों में करीब बारह बजे उसकी खिड़की अवश्य खुलती थी। इस समय वह खिड़की में थोड़ा-सा घूमकर बैठी होती और कभी-कभी गली में झाँक भी लिया करती।
उस वक्त, एक लड़का जो देखने में बच्चा-सा ही लगता था, बस्ता उठाये गली के मोड़ से आता दिखाई देता। वह सब काम छोड़कर खिड़की की दरारों में से उधर ताकती रहती। वह लड़का भी कभी कभी ऊपर देखता और फिर अपने घर में घुस जाता। लड़के के सीढ़ियाँ चढ़ने की खट-खट स्त्री के कानों में सुनाई देती। वह कभी उस घर में नहीं गयी थी पर, उसे घर के जीने की सीढ़ियों की गिनती याद थी। हर सीढ़ी पर पड़ते कदमों को उनकी आवाज़ के साथ उसने कई बार अपनी छाती से दबाया था।
दूसरे के घर में कोई दरवाजा खुलता, वह बगैर देखते जान लेती कि सामने वाली बैठक में कोई आया है।
बस्ता एक ओर रखकर वह लड़का कुछ देर के लिए अपनी खिड़की खोलकर सामने वाली खिड़की की ओर देखता। स्त्री उधर नहीं देखती थी पर, उसे पता रहता था कि उसकी तरफ वे आँखें लगी हुई हैं जिसकी राह वह रोज़ देखा करती थी। और अगर किसी दिन उसे स्कूल से लौटने में देर हो जाती थी तो वह आ रहे लड़कों से पूछना चाहती थी - ''काका, क्यों नहीं आया ?'' लेकिन पूछा उसने कभी नहीं था।
काका आता और बैठक का दरवाजा बन्द करके कोठे पर चढ़ जाता।
इसी तरह बहुत-सा समय गुजर गया। काका अब तेरह बरस का हो रहा था। सामने वाली खिड़की में अब उसे कुछ अधिक ही स्वाद आने लगा था। एक दिन उसने माँ से पूछा, ''हमारे घर सभी आते हैं पर, सामने वाले घर से कभी कोई क्यूँ नहीं आता?''
''काका, हमारी गली में यही अकेला जैनियों का घर है। ये लोग माँस से बहुत परहेज करते हैं, इसलिए ये सिक्खों से कोई व्यवहार नहीं रखते।''
''पर माँ, हम तो माँस नहीं खाते।''
''ये समझते हैं कि सारे सिक्ख माँस खाते हैं।''
''तो क्या ये लोग घर से भी बाहर नहीं निकलते ?''
''निकलते हैं, लेकिन यह बड़ा दु:खी घर है। मौत ने इस घर को उजाड़कर रख दिया है। एक ही बेटा बचा था, उसकी शादी की लेकिन दो ही सालों में वह भी मर गया। मरने के बाद एक बच्चा हुआ, वह भी साल भर जिन्दा न रह सका। अब तीनों विधवा औरतें रोने-धोने को रह गई हैं।''
''वह बच्चा किसका था ?''
''मैना का, जिसे तुमने कई बार खिड़की में बैठे देखा होगा।''
''माँ, वह हर समय खिड़की में क्यों बैठी रहती है ?''
''ये लोग जवान विधवा बहुओं की बड़ी रखवाली करते हैं। और इस घर में काम भी ज्यादा नहीं है।''
''रखवाली क्यों करते हैं ?''
''यूँ ही, किसी के साथ घर की कोई बात कर बैठेंगी। खुश जो नहीं रहतीं।''
''माँ, हमारे घर जितनी औरतें आती हैं, किसी को आप कहते हो चाची कहूँ, किसी को मौसी, किसी को बुआ कहूँ। अगर वह कभी मुझे मिले तो मैं उसे क्या कहकर बुलाऊँ?''
''कौन ? मैना ?''
''हाँ, जो खिड़की में बैठी रहती है।''
''यह तुम्हारी भाभी है। इसका घरवाला, गली के नाते तेरा भाई लगता था। बड़ा अच्छा लड़का था।''
''यह मैना किस तरह का नाम हुआ ?''
''तुझे अच्छा नहीं लगा ?''
''नहीं, बड़ा अच्छा लगा है। लेकिन इससे पहले मैंने कभी इस तरह का नाम नहीं सुना। मैना वही होती है न, जो मामाजी के घर पिंजरे में बैठी बहुत प्यारी बातें करती है? तोता इतना अच्छा नहीं बोलता।''
''हाँ, वही।''
''माँ, मुझे एक मैना ले दोगी ?''
''काका, तू अपने मामा से ही कहना।''

कुछ दिनों बाद काके की बैठक में एक पिंजरा टंगा हुआ था। जब वह छत पर जाता तो इस पिंजरे को भी संग ले जाता।
अपनी मैना को काके ने सिखलाया, ''भाभी मैना खिड़की में बैठी है।''
खिड़की वाली मैना ने काके के साथ बात नहीं की थी लेकिन उसे बड़ा अच्छा लगता था जब पिंजरे वाली मैना कहती थी- ''भाभी मैना खिड़की में बैठी है।''
जाड़े की रातों में भाभी मैना अपने कमरे में सोती थी। इम्तिहान नज़दीक होने के कारण काका भी कुछ दिनों से बैठक में सोने लग पड़ा था। भाभी मैना को कई बार सोये हुए काके की साँसों की आवाज़ सुनाई देती थी। वह बिस्तर से उठकर बहुत देर तक इस आवाज़ को सुनती रहती थी।
उसकी उम्र अब पच्चीस बरस की होने लगी थी। काका अभी पूरे तेरह बरस का भी नहीं हुआ था। वह मन ही मन कहती थी, ''काश ! कभी मुझे इस बच्चे के संग बोलने की आजादी हो, जब वह स्कूल से लौट रहा हो, उस वक्त मैं खिड़की में से झांक कर उसे देख सकूँ, उसके साथ बातें कर सकूँ ! और अगर वह बीमार पड़े तो मैं उसके घर जाकर उसकी चारपाई पर बैठ सकूँ। बीमारी में भला किसी को किसी खराबी का क्या डर हो सकता है !''
फिर स्वयं ही कहती, ''मुझे इतनी आज़ादी कौन देने वाला है ? मैं तो इसी कमरे में बूढ़ी हो जाऊँगी, मेरे बाल मेरी सास के बालों की तरह उड़ जाएँगे... काके का विवाह हो जाएगा... यह खिड़की फिर इस तरह खुली नहीं रहेगी... फिर मैं किस इन्तज़ार में इस अंधेरी ज़िन्दगी के लम्बे दिन और लम्बी रातें काटा करूँगी ?''
यह सब सोचते सोचते उसका दिल बैठने लगा। वह बिस्तर पर से उठकर खिड़की में चली गई। चाँदनी रात थी। खुली खिड़की में से हल्की हल्की चाँदनी काके के चेहरे पर पड़ रही थी। काका गहरी नींद में सोया हुआ था। वह तेज तेज साँसें ले रहा था। मैना के मन में एक उबाल सा उठा। उसे दो घरों के बीच का फासला बहुत कम लगा। कितना अच्छा हो अगर वह दोनों खिड़कियों के बीच चारपाई डालकर पुल बना ले। वह सोचने लगी- काश! वह काके के पास चली जाए। वह उसे जगाएगी नहीं, उसका मुख दूर से ही चूमकर अपने कमरे में लौट आएगी।
लेकिन न तो वह फासला इतना कम था और न ही उसके चाव जितनी हिम्मत उसके अन्दर थी। वह चारपाई पर आकर लेट गई। कुछ देर बाद काके की बैठक में से आवाज़ आई, ''भाभी मैना !'' वह चौंक कर फिर उठी। लेकिन वह तो पिंजरे की मैना की आवाज़ थी। काका उसी तरह सोया पड़ा था।
उसी समय मैना की सास शायद शौच के लिए उठी थी। उसे मैना के कमरे में से खटर-पटर सुनाई दी। साथ ही उसे 'भाभी मैना' की आवाज़ का भ्रम-सा हुआ। उसने मैना को आवाज़ दी। मैना अन्दर से तुरन्त बोल पड़ी।
सास का शक पक्का हो गया, ''तू सोयी नहीं थी, मैना ? रात तो आधी गुजर चुकी है।''
''यूँ ही नींद खुल गई थी।''
सास कमरे में आ गई। उसे सामने वाली खिड़की में कोई सोया हुआ दिखाई दिया- आदमी का चेहरा !
''तू किससे बातें कर रही थी?''
''मैंने भला किससे बातें करनी थी।''
सास ने पुन: सामने वाली खिड़की की ओर देखा।
''वह तो सरदारों का काका है, गहरी नींद में सो रहा है।'' मैना ने कहा।
सास चली गई। लेकिन बेशक काका अभी बच्चा था और अपनी उम्र से भी अधिक भोला, पर था तो आखिर मर्द-बच्चा। विधवाओं का भला क्या काम कि वे बच्चों की ओर भी इस तरह देखें।
मैना स्कूल से लौटते काके की ओर देखती है। काका भी आते ही पहले ऊपर की बैठक में जाता है और खिड़की खुली रखता है। पिछले साल की बनिस्पत वह इस साल कुछ बड़ा-सा भी मालूम होता है।
ये बातें सुनने वाली नहीं थी। यही छोटी-छोटी बदलियाँ कई बार काली घटाएँ बन जाती हैं।
आज जब काका स्कूल से लौटा, मैना की खिड़की बन्द थी। यह खिड़की रात में भी अब बन्द रहने लगी। यह खिड़की काके की ज़िन्दगी का भी एक हिस्सा बनती जा रही थी। उसका मन अब खेलों में भी इतना नहीं लगता था। माँ से पूछने का कोई लाभ नहीं था क्योंकि उस घर से माँ का कोई वास्ता नहीं पड़ता था। बस, शादी-ब्याह के अवसर पर ही भाजी देने-दिलाने के लिए दहलीजें लाँघी जाती थीं।
आज अंधेरी रात थी। मैना की खिड़की में से खटर-पटर सुनाई दी जैसे कोई चाबियाँ बदल-बदल कर ताला खोलने की कोशिश कर रहा हो। फिर, आहिस्ता से खिड़की खुली। मैना ने उठकर दरवाजे से कान लगाये, कहीं कोई जाग तो नहीं रहा ?...फिर गली में झांका, फिर काके के साँस की आवाज़ सुनी। काका सो रहा था, उस अंधेरे में किसी को कुछ दिखाई नहीं देता था। लेकिन मैना की प्यार भरी निगाहें काके का अंग-अंग देख रही थीं।
दूसरे ही पल उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह काके की चारपाई पर बैठी हो, उसके कोमल बालों में उँगुलियाँ फेर रही हो और उसे जगा रही हो ! मैना के कानों में उसकी अपनी ही आवाज़ सुनाई दी, ''काका... काका...काका...''
काका हड़बड़ाकर उठ बैठा।
मैना को बड़ी शर्म आयी। उसे अब मालूम हुआ कि वह मन में नहीं मुँह से बोल रही थी। और काका जाग उठा था। अगर कोई और भी जाग उठा हो तो ?
काका अपनी खिड़की में आ बैठा। वह भी महसूस कर रहा था कि खिड़की के अंधेरे में भाभी मैना बैठी थी। उसने कई बार चाहा था कि वह भाभी मैना के गले में बाँहें डाल दे। जब से खिड़की बन्द रहने लगी थी, वह बेहद उदास रहता था।
''भाभी मैना... भाभी मैना...''
''हाँ, काका, मेरा सुन्दर काका... लेकिन जरा धीमे। मैं धीमी से धीमी बात भी सुन लूँगी।''
''मुझे भी आपकी आवाज़ साफ सुनाई दे रही है। आप बहुत धीमा बोलते हो।''
''हाँ, मेरे प्यारे काके !''
''आप इतने दिन कहाँ चले गए थे ?''
''मेरा कमरा हवालात बना दिया गया है। इस खिड़की को ताला लगा दिया गया है।''
''सो क्यों ?''
''उस दिन तेरी मैना ने मुझे आवाज़ दी थी, मैं उठ गई थी। मुझे लगा, तुमने आवाज़ दी है। मेरी शामत आयी थी, मेरी सास भी उसी वक्त उठ बैठी। उसे लगा, मैं तुझसे बातें कर रही थी।''
''तो फिर क्या हुआ ? माँ ने बताया था, आप मेरी भाभी हो।''
''काका, बहुत कुछ हो गया। फाटकों को ताले लग गए, इसलिए अब मैं यहाँ से चली जाऊँगी। इस घर में यह मेरी आखिरी रात है। मैं तुझसे मिलकर जाना चाहती थी, तुम किसी को बताओगे तो नहीं ?''
''मैं नहीं बताऊँगा, भाभी मैना पर, आप क्यों जा रहे हो ? न जाओ। मैं बड़ा होऊँगा, मेरा विवाह होगा, मैं अपनी बीवी को आपके पास भेजा करूँगा। वह आपको बुलाया करेगी। आप उससे मिलने आया करना। फिर कोई कुछ नहीं कहेगा। आप न जाओ।''
''लेकिन काका, अभी तुम बहुत छोटे हो। तुम्हारी शादी दूर है। इतने बरस इस कैदखाने में कैसे काटे जाएँगे जबकि तेरी ओर देखना भी मेरा बन्द हो गया है।''
''आप कहाँ जाएँगी ? मैं वहाँ आपसे मिलने आऊँगा।''
''नहीं काका, जहाँ मैं जा रही हूँ, वहाँ मुझसे कोई मर्दजात बात नहीं कर सकेगा।''
''आप वहाँ न जाओ।''
''मेरे लिए और कोई रास्ता नहीं बचा। मैंने पूजनी बनने का फैसला किया है।''
''पूजनी क्या होती है ?''
''ऐसी औरतें जिनके सिर मुंडे होते हैं, मुँह पर पट्टियाँ बंधी होती हैं और पैर नंगे होते हैं।''
''ना भाभी मैना, आप कभी वैसी मत बनना। मुझे उनसे बहुत डर लगता है। उनकी आँखों पर बंधी पट्टियाँ कुछ और ही तरह की लगती हैं।''
''काका, मेरे सामने कोई और रास्ता नहीं रहा।'' उसने एक गेंद सी बनाकर खिड़की में से उसकी बैठक में फेंकी और कहा, ''मेरी यह निशानी रखना- सुबह ढूँढ़ लेना। इस वक्त खटर-पटर सुनकर कोई जाग न जाए।'' और मैना की खिड़की बन्द हो गई। काके ने ताले में चाबी घुसाने की आवाज सुनी। शेष रात वह सो नहीं सका।
दूसरे दिन जब वह स्कूल से लौटा तो उसकी माँ ने बताया कि मैना बड़ी दुखी थी। रोज उसकी सास उससे लड़ती थी और ताने देती थी। मैना तंग आकर घर से निकल गयी है और लिखकर छोड़ गई है कि वह पूजनी बनने जा रही है।
''लेकिन माँ, वह यहाँ रहकर पूजनी नहीं बन सकती थी ?''
''नहीं, जिसे पूजनी बनना हो वह अपना शहर छोड़कर किसी दूसरे शहर के मन्दिर में जाकर रहने लगती है। वे लोग उसकी जाँच-पड़ताल करते हैं। अगर उसकी नीयत पर यकीन हो जाए तो उसकी पूरी हिफाजत करते हैं, अच्छा खाने-पहनने को देते हैं और कुछ दिनों के लिए उसे जो चाहे सो करने देते हैं। फिर उसका सर मूंड कर उसे पूजनी बना देते हैं। उसके बाद न वह अच्छा खा सकती है, न अच्छा पहन सकती है, न ही मर्दों से बातचीत कर सकती है।''
''भाभी मैना गई कहाँ होगी ?''
''पता चल जाएगा।''
''अगर वह किसी नज़दीक के शहर में होगी तो मुझे दिखा लाओगे ?''
''पिंडी में इनका बहुत बड़ा मन्दिर है। वहाँ तेरी मौसी भी रहती है। अगर वहाँ होगी तो दो दिन के लिए हो आना। तुम्हारी मौसी तुम्हें दिखा देगी। जब कभी कोई पूजनी बनती है, सारे शहर में बड़ी रौनक होती है।''
काके ने अपनी मौसी को लिख दिया कि वह उसका पता लगाएँ।
दो हफ्तों में ही सबको पता चल गया। सारी गली में मैना की ही बातें हो रही थीं। बड़ी अच्छी औरत थी। किसी ने उसका माथा तक नहीं देखा था। कितने खूबसूरत बाल थे। बालों की देखभाल भी कितना करती थी। उसे रुंड-मुंड कर दिया जाएगा। नोंच-नोंच कर सारे बाल उखाड़ लिए जाएंगे। बेचारी !
काका मौसी के पास पहुँच गया। उसकी मौसी आज मैना को देखकर आयी थी। उसने बहुत सुन्दर वस्त्र पहन रखे थे, गहने भी। ये गहने लोगों ने उसे उधार में दिए थे। वे लोग गाना-बजाना भी करवा रहे थे। जब मौसी को यह मालूम हुआ कि मैना काके की गली में ही रहती थी तो उसकी दिलचस्पी और ज्यादा बढ़ गई थी। वह हर रस्म पर जाती रही। उसने काके को बताया कि मैना को बड़ा रूप चढ़ा हुआ था। कल उसे डोली में बिठाकर शहर में घुमाया जाएगा। लोग उस पर फूल बरसाएँगे, गुलाब जल छिड़केंगे।
काका अपनी भाभी को देखने के लिए बड़ा बेताब था। उसने उसे हमेशा एक ही पोशाक में देखा था। वह उन कपड़ों में भी बड़ी अच्छी लगती थी। गहने उस पर कैसे फबते होंगे ?... काके ने उसे कभी हँसते हुए नहीं देखा था। मौसी उसका जिक्र करते हुए बताती थी कि मैना की मुस्कराहट बड़ी ही मनमोहक थी।
मैना का दिया हुआ रूमाल, उसकी निशानी काके की भीतरी जेब में थी। उसने यह बात किसी को नहीं बतायी थी। लेकिन वह उस रूमाल को रोज देखता था। उसने हिन्दी के अक्षर सीख लिए थे क्योंकि रूमाल पर मैना ने हिन्दी में कढ़ाई की थी- 'बहुत प्यारे काके को, उसकी भाभी की ओर से...'
उसकी मौसी ने बताया कि अगले दिन दुपहर के बाद मैना की डोली निकलेगी। वह सब बाजारों में घूमेंगी। हर कोई उसे देख सकता है।
काके ने दूसरे दिन मौसी के बाग में से बहुत सारे फूल तोड़कर रूमाल में बाँध लिए थे। और जब डोली उनके चौक के नज़दीक से गुजरी तो वह जान-बूझकर घर के लोगों से अलग हो गया। वह डोली देखकर ही लौटना नहीं चाहता था बल्कि पूरे रास्ते डोली के साथ रहना चाहता था।
वर्दी पहने लोग बाजे बजा रहे थे। जैनी लोग रुपये-पैसों की वर्षा कर रहे थे। डोली में उसकी भाभी गहनों से लदी बैठी थी। बेशक उसका चेहरा कुछ और ही तरह का लग रहा था लेकिन उसमें पहले वाली झलक भी थी। इस हँसते हुए चेहरे से कहीं अधिक काके को उसकी उदास आँखें प्यारी लगती थीं। लोग कहते थे कि इस पूजनी को बेइन्तहा रूप चढ़ा है। लेकिन इस आडम्बर में काके को मैना भाभी के वे प्यारे नक्श पूरी तरह से दिखाई नहीं दे रहे थे।
उसे जब भी लगता कि भाभी उसकी ओर देख रही है, वह उस पर फूल फेंक देता था। वह हाथ जोड़ देती थी। लेकिन वे हाथ काके के लिए नहीं थे। वह सोच रहा था कि इतनी बड़ी भीड़ में छोटा-सा काका मैना भाभी देख भी कैसे सकती थी।
एक मोड़ मुड़ते समय अचानक डोली उसके बहुत करीब आ गई। जब फूलों की वर्षा हुई तो मैना ने हाथ जोड़ दिए। उसी वक्त काका फूल बरसाने वाला था। तभी मैना ने उसे पहचान लिया। उसकी अधमुंदी आँखें खुलकर चौड़ी हो गईं। उसने ध्यान से देखा। फिर हिम्मत करके डोली रोकने के लिए कहा, ''यह काका हमारी गली का है। मुझ पर फूल फेंकना चाहता है... उसके हाथ डोली तक नहीं पहुँच सकते... उसे एक मिनट के लिए मेरे पास ला दो।''
एक अजब बात थी यह। लेकिन, पूजनी बनने वाली की बात टाली नहीं जाती।
''ला काका, तेरे ये फूल मैं ले लूँ, तू बड़ी दूर से आया है, मेरी गली के काके...''
काका बहुत खुश हुआ कि भाभी मैना ने उसे पहचान लिया। पास बुलाकर हाथों की अँजुरी बनाकर फूल ले लिए। रूमाल भी नहीं लौटाया, शायद, भाभी निशानी रखेगी।
जुलूस मन्दिर पर पहुँच गया। लोग विदा हो गए। मैना और उसके साथ की कुछ स्त्रियाँ मन्दिर में चढ़ गईं। सीढ़ियों पर पैर रखने से पहले मैना ने देखा, काका सामने वाली एक दुकान के तख्ते पर खड़ा था।
मन्दिर में बड़े पुजारी के सामने उसे बिठा दिया गया।
''क्या तुमने दृढ़-निश्चय कर लिया है ?'' बड़े पुजारी ने पूछा।
''जी महाराज, कर लिया है।''
''तुम्हें सारे कपड़े-गहने उतार देने होंगे, और फिर ज़िन्दगी में तुम इन्हें अंगीकार नहीं कर सकोगी।''
''जी महाराज, मुझे इनकी कोई चाह नहीं।''
''तुम वही कुछ खा-पी सकोगी जो हमारी श्रेणी के नियमानुसार होगा।''
''जी महाराज, मुझे अच्छे भोजन की कोई ज़रूरत नहीं।''
''मर्दों को छूना तो दूर रहा, उनका ख़याल भी उस धर्म में विघ्न डालेगा जिसे इस वक्त तुम चुन रही हो।''
मैना ने लम्बी साँस ली। उसे जेब में रखा काके का रूमाल खुलता महसूस हुआ। उसे लगा जैसे रूमाल के छोर छोटी-छोटी बाँहें बनकर उसकी कमर के गिर्द लिपट गए हैं। कुछ सम्भलकर उसने उत्तर दिया, ''हाँ महाराज, यह भी कुबूल...''
''अब तू उस कमरे में जाकर ये कपड़े उतार दे। जो कपड़े तुझे दिए जाएँ, वे पहन ले। इसके बाद तुझे अपने केश कटवाने होंगे। और उसके बाद तुझे तेरी पूजनी माता बताएगी कि किस तरह उँगलियों की पोरों से एक एक बाल नोंचा जाता है।''
बालों के काटने-उखाड़ने का जिक्र सुनकर वह अपनी आह न रोक सकी और साहस करके बोली, ''पूज्य पिताजी, क्या आप मुझे बाल रखने की आज्ञा नहीं दे सकते?''
''यह कैसे हो सकता है ?'' बड़ा पुजारी बेहद हैरान होकर बोला।
''मैं जानती हूँ, मेरी यह माँग अनौखी है।'' मैना को एकाएक अपने अन्दर एक ताकत-सी महसूस हो रही थी, ''लेकिन अगर आप मान लें, मैं कभी आपसे शिकायत नहीं करूँगी... मेरे अन्दर न जाने कौन सी गाँठ है। मैं आपकी ऐसी सेवा करूँगी कि सारी कौम दंग रह जाएगी। मेरे बाल न काटे जाएँ।''
''लेकिन यह कदापि नहीं हो सकता। तुम्हें पता नहीं था ?''
''मुझे पता था। मैं बाल कटवा लूँगी... लेकिन... काटने का समय अभी नहीं आया है। मुझे लग रहा है कि मेरे बाल जिन्दा हैं, ये मेरे प्राणों में से उगे हुए हैं। जब मैं इनमें कंघी करती थी तो ये एक झटके में ही मेरी टांगों को छू लेते थे। इनमें काई जिन्दा स्पर्श था। कई बरसों से मैंने सिवाय इन बालों के किसी से बात तक नहीं की है।'' फिर वह माथा टेक कर बोली, ''हे परम पूज्य ! एक बार अनहोनी भी करके देख लीजिए। आपको अपने निर्णय पर कभी पश्चाताप नहीं होगा।''
बड़े पुजारी का दिल पसीज तो गया लेकिन पूजनी स्त्री के सिर पर बाल देखकर लोग क्या कहेंगे ?
''नहीं, तुम्हारी यह बात नहीं मानी जाएगी।''
''तो फिर, हे पूज्य, मुझे पाँच मिनट का समय दीजिए ताकि मैं एकान्त में अपने मन को समझा लूँ।'' मैना ने मन मज़बूत करके कहा।
''हाँ, जाओ, सामने चबूतरे पर बैठकर सोच लो।''
मैना उठी और धीमे लेकिन मज़बूत कदमों से सामने वाले चबूतरे पर जा बैठी।
''यह कोई अनोखी औरत है। मैंने कई औरतों की यह रस्म अदा की लेकिन इस औरत की हर बात सोच में डाल देती है। अगर यह पूजनी बन गई तो बड़ी शोहरत हासिल करेगी।''
''लेकिन यह चबूतरे पर खड़ी क्यों हो गई है ?'' दूसरे आदमी ने घबराकर पूछा।
बड़े पुजारी ने भी देखा। मैना चबूतरे पर खड़ी हो गई थी। उसने अपनी उँगलियाँ जूड़े में फेरीं, जूड़ा खुल गया, बाल कमर से नीचे तक गिरने लगे। मद्धम हवा के झोंकों में बालों की रेशमी जुल्फें सरसरा रही थीं।
''कितने लम्बे...''
''ओह !'' सब उठकर सीढ़ियों की ओर दौड़ पड़े। छज्जे पर कोई औरत नहीं खड़ी थी।
सब लोग नीचे पहुँच गए। बाजार में हाहाकार मचा हुआ था। एक लड़का क्षत-विक्षत मैना के सिरहाने बैठा था। उसने बिखरे हुए बालों को माथे पर से हटाकर मांग सीधी कर दी थी। काले बालों में जगह-जगह सिन्दूर की तरह लहू चमक रहा था। लड़के की आँखों से जार-जार आँसू बह रहे थे और वह नीचे पड़ी औरत की आँखों में देख रहा था, आँखें खुली हुई थीं।
काके ने इन आँखों का रंग पहले कभी नहीं देखा था। वे उस काली रात जैसी स्याह थीं जिस रात आखिरी बार उसने काके को जगाया था। लेकिन उस रात की गहराइयों में कोई सूरज छिपा हुआ था। तभी तो उस रात वह अँधेरे में भी देख सकती थी।
वे अब भी उतनी ही काली और उतनी ही रौशन थीं। वे खुली हुई थीं। लेकिन इस समय उनमें कोई सूरज नहीं था।
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पंजाबी लघुकथा : आज तक

पंजाबी लघुकथा : आज तक(3)
'पंजाबी लघुकथा : आज तक' के अन्तर्गत पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के कथाकार भूपिंदर सिंह और हमदर्दवीर नौशहरवी की चुनिंदा लघुकथाएं आप पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत हैं- पंजाबी लघुकथा की अग्रज पीढ़ी के ही एक और सशक्त और बहुचर्चित लेखक दर्शन मितवा की पाँच चुनिंदा लघुकथाएं... दर्शन मितवा का जन्म पंजाब के मानसा जिले में 5 अप्रैल 1953 में हुआ था और 13 मई 2008 को उनका निधन हो गया। मितवा हिन्दी और पंजाबी में समान रूप से पढ़े जाने वाले लेखक रहे। लघुकथाओं के अलावा उन्होंने अनेक कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे। 'नंगे सिर वाली औरत', 'इक रात का जख्म', 'चुप रात का सिवा' उनके प्रमुख उपन्यास हैं और 'छिलकों का घोड़ा', 'बर्फ़ का आदमी', 'दस गिट्ठ धरती', और 'ऊँचे चढ़कर देखा' कहानी संग्रह। इसके अतिरिक्त 'जनाब, हम हाजिर हैं', 'इश्क अल्ला की जात' दो नाटक तथा 'इधर-उधर कहाँ तक' और 'कथा एक मृत की' दो एकांकी संग्रह। प्रस्तुत लघुकथाओं पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं का स्वागत है।
सुभाष नीरव
संपादक : कथा पंजाब



दर्शन मितवा की पाँच लघुकथाएं
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

(1)
कुत्ते का खाना
आयकर अधिकारी को तीन-चार मातहतों के संग अपनी दुकान की ओर आता देख दुकानदार ने अपनी ऐनक ठीक की और तेजी से गद्दी से उठकर खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर उसने नमस्ते की और उनको बिठाने के लिए अपनी धोती के पल्लू से कुर्सियाँ साफ करने लगा। जब तक वे लोग कुर्सियों पर सजें, तब तक खाने के लिए काजू और पीने के लिए फलों का जूस आ गया। खाने-पीने के उपरांत आयकर अधिकारी ने अपनी मूंछों पर हाथ फिराते हुए दुकानदार से हिसाब-किताब की किताबें लीं और औपचारिकतावश उनको उलटने-पलटने लगा। एक पन्ने पर उसकी नज़र अटक गई। वह हैरान भी हुआ और मुस्कराया भी। उसने वह पन्ना अपने मातहतों को दिखाया। वे भी मुस्कराये बिना न रह सके - ''कैसे-कैसे लोग हैं जो आयकर बचाने के लिए कुत्ते को डाली गई रोटी के टुकड़े का खर्च भी किताबों में डाल देते हैं।''
खुले हुए पन्ने पर खर्च वाली लाइन इस प्रकार लिखी हुई थी-
'तारीख 17-2-89
कुत्ते का खाना - पचास रुपये।'

खर्च की लाइन पढ़कर दुकानदार भी 'ही-ही' करता हुआ उन सबके साथ हँसने लगा।
थोड़ी देर बाद वे सब चले गए। दुकानदार ने अपने हिसाब-किताबवाली किताब खोली। काजू से लेकर जूस का सारा खर्च जोड़ा और किताब में उसने एक नई लाइन लिखी - 'तारीखी 29-8-89, कुत्तों का खाना -एक सौ पचास रुपये।'
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(2)
मायाजाल
वह अपनी धुन में चला जा रहा था। सामने सड़क पर गिरे पड़े पैसों पर अकस्मात् उसकी नज़र पड़ी तो उसने चारों ओर से चौकस होते हुए झट से उन्हें उठाकर अपनी मुट्ठी में भींच लिया। चाल पहले से कुछ तेज कर ली। थोड़ा आगे जाकर उसने अपनी बन्द मुट्ठी को खोलकर देखा तो दो रूपये थे। एक-एक के दो नोट !
क्षणभर के लिए वह खुश हुआ और रुपये पैंट की जेब में डालकर आगे चल दिया। फिर अचानक जैसे उसे कुछ याद आया। वह पहले से धीमी गति में चलने लगा।
''अगर कहीं ये दोनों दस-दस के नोट होते... बात बन जाती।'' यह सोचकर वह उदास हो गया, ''कम से कम कुर्ता-पाजामा... और अगर कहीं सौ-सौ के नोट होते तो नज़ारा बँध जाता। वाह रे खुदा ! जब देने ही लगा था तो कुछ अधिक दिए होते। किसी काम तो आ जाते। हजार-पाँच सौ से कोई कामकाज ही शुरू कर लेता। तू देता तो है मगर मुट्ठी भींच लेता है देते वक्त...। कभी दस-बीस हजार इकट्ठे ही दे दे, हम भी जीकर देख लें।'' सोचते-सोचते उसने फिर से अपनी जेब में हाथ डाला जैसे रुपये सचमुच ही दो से बढ़कर हजार-दो हजार बन गए हों।
मगर, उसका कलेजा धक्क् से रह गया।
उसका हाथ जेब के आर-पार था। दो रुपये भी फटी हुई जेब में से कहीं गिर गए थे।
''बस...!'' वह रुआँसा-सा हो गया, ''वे भी गए ससुरे ! और नहीं तो शाम की रोटी का ही जुगाड़ हो जाता।'' वह अपनी फटी जेब में हाथ डाले वहीं खड़ा रह गया और चारों तरफ ऐसे देखने लगा जैसे वह अपनी गुम हो गई किसी वस्तु को ढूँढ़ रहा हो।
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(3)
धंधा
वह भिखारी एक लम्बे अरसे से परेशान था। उसका धंधा बिलकुल चौपट होता जा रहा था। पहले वह कभी-कभार दारू का पेग भी लगा लिया करता था, पर अब उसे दो वक्त की रोटी कमाना भी मुश्किल हो गया था। उसने अंधा होने का नाटक किया, गूंगा-बहरा भी बना। कोढ़ी बनकर भी भीख मांगी, मगर उसे कोई कुछ नहीं देता था। शायद उसे सभी पहचानने लगे थे और चालबाज कहने लगे थे।
एकाएक उसने अपने पिछले सभी ढोंग बन्द कर दिए। अब मैं कुछ दिन से सुन रहा हूँ कि वह कहीं पर किसी भगवान का घर बनवा रहा है और इस काम के लिए शहर भर से चंदा एकत्र कर रहा है। अब भी सभी लोग उसे जानते-पहचानते हैं मगर फिर भी जोर-शोर से रुपये देते जा रहे हैं।
उसका धंधा फिर से चल निकला है।
अब दारू और मुर्ग-मुसल्ल्म की तो बात ही क्या है !
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(4)
औरत और मोमबत्ती
''अच्छा तो इधर आ।'' वह औरत को घर के अन्दरवाले कमरे में ले गया।
''देख, यहाँ कितना अँधेरा है... और जब मुझे उजाले की ज़रूरत पड़ती है...'' उसने जेब से दियासलाई निकाली और सामने कार्निश पर लगी मोमबत्ती जला दी।
कमरे में उजाला बिखर गया।
''देख, जब तक मुझे उजाला चाहिए... यह जलती रहेगी।''
वह औरत उसकी ओर देखती रही।
''जब मुझे इसकी ज़रूरत नहीं होती तो...'' कहते ही उसने मोमबत्ती को फूंक मार दी।
कमरे में अँधेरा पसर गया।
उस औरत ने उसके हाथ से दियासलाई की डिबिया ली और सामने कार्निश पर लगी मोमबत्ती फिर से जला दी।
आदमी उसकी ओर देख रहा था।
''पर, औरत कभी मोमबत्ती नहीं होती।'' उस औरत के होंठ हिले, ''जिसे जब जी चाहा, जला लो और जब जी चाहा, बुझा दो...।''
दोनों की नज़रें मिलीं।
''समझे !... और मैं भी एक औरत हूँ, मोमबत्ती नहीं।''
अब आदमी चुप था।
औरत के चेहरे पर अनोखा जलाल था।
और, अब मोमबत्ती जल रही थी।
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(5)
झिझक
उस पढ़े लिखे नौजवान ने कहीं जाना था।
वह बस-अड्डे पर बसों के बोर्ड पढ़ता घूम रहा था। मूर्ख कहलाये जाने के डर से उसने किसी से भी बस के बारे में नहीं पूछा।
बस, वह घूमता रहा। एक बस से दूसरी और दूसरी से तीसरी।
एक कोई अनपढ़-सा आया।
उसने बस में बैठी सवारी से बस के बारे में पूछा और झट से बस में सवार हो गया।
बस चल पड़ी थी।
पर वह पढ़ा-लिखा नौजवान अभी भी बसों के बोर्ड पढ़ता हुआ अड्डे का चक्कर काट रहा था।
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नई किताबें

समीक्षा
रेत(उपन्यास)
लेखक : हरजीत अटवाल
अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशक : यूनीस्टार बुक्स प्राइवेट लिमिटेड
एस सी ओ 26-27, सेक्टर -37 ए
चण्डीगढ़-160022
पृष्ट- 322, मूल्य : 400 रूपये।




बनते - बिगड़ते संबन्धों की कहानी
रूपसिंह चन्देल

प्रवासी भारतीय साहित्यकारों की विशेषता यह है कि वे अपनी जमीन से जुड़े अनुभवों के साथ-साथ नई जमीन के अनुभवों को भी अपनी रचनात्मकता का आधार बना रहे हैं। दूसरे शब्दों में उनका अनुभव क्षेत्र व्यापक है और पूरी कलात्मकता और प्रामाणिकता के साथ रचनाओं में उद्धाटित हो रहा है। हिन्दी, पंजाबी और उर्दू साहित्य पर चर्चा करते समय प्रवासी लेखकों के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
प्रसंगत: एक बात कहना अनुपयुक्त नहीं होगा। विदेशों में बसे भारतीयों को यह शिकायत है कि उन्हें अमुक भाषा का प्रवासी साहित्यकार कहा जाता है। उनका प्रवासी होना एक वास्तविकता है। किसी भाषा के साहित्यकार की चर्चा के समय उसकी क्षेत्रीय पहचान बताना जब अपरिहार्य हो तब यह उल्लेख शायद अनुचित नहीं, लेकिन जब भाषा विशेष के साहित्य की चर्चा का प्रश्न हो तब यह उल्लेख अनावश्यक ही नहीं अनुचित भी है, क्योंकि साहित्यकार किसी भाषा विशेष का होता है।

एक बात और। यह आवश्यक नहीं कि हिन्दी, पंजाबी या उर्दू में लिखने वाला भारतवंशी ही हो। वह किसी भी देश का मूल निवासी हो सकता है। जापान, रूस, जर्मनी आदि कई देशों के अनेक विद्वानों ने हिन्दी में भी लिखा और उन्होंने जो कुछ भी हिन्दी में लिखा वह हिन्दी साहित्य का अकाटय अंश है। एक विद्वान कई भाषाओं में समान अधिकार के साथ लेखन कर सकता है। अनेक विद्वानों ने किया भी है। अत: उन भाषाओं में लिखी उनकी चीजें उन भाषाओं के साहित्य को समृद्ध कर रही होती हैं। यहां यह विचारणीय हो सकता है कि अनेक भाषाओं में समान रूप से कार्य करने वाला सभी भाषाओं का साहित्यकार माना जाएगा या नहीं। प्राय: विभिन्न भाषाओं में अपना साहित्यिक योगदान देने के बाद भी लेखक अपनी मातृभाषा का ही रचनाकार माना जाता है। इसका कारण यह है कि अपनी मातृभाषा में ही वह अपनी रचनात्मकता को सार्थकता प्रदान कर सकता है। लेकिन कामिल बुल्के जैसे विद्वान इसका अपवाद भी हैं।
उपरोक्त बातें मैंने लंदन प्रवासी पंजाबी लेखक हरजीत अटवाल के उपन्यास 'रेत' के संदर्भ में कहीं हैं, जिसका अनुवाद हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार- कवि सुभाष नीरव ने किया है। 'रेत' इंदर और कंवल के माध्यम से ब्रिटेन, विशेषरूप से लंदन और उसके आसपास बसे पंजाबी परिवारों की कहानी कहता है। इंदर अर्थात रवि (उपन्यास की नायिका कंवल उसे इसी नाम से पुकारती है) की आकांक्षा विदेश जाकर कुछ कर गुजरने की थी। भारत में जीवन संघर्ष उसे परेशान करता था और वह ऐन-केन प्रकारेण विदेश जाना चाहता था। वह एक ऐसे पंजाबी युवक के प्रतिनिधि के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है जिसकी चाह बाहर जाकर न केवल पैसा कमाने की है बल्कि वहीं बस जाने की भी है। परिवार की आर्थिक स्थितियां भी उसे विवश करती हैं और इसका उसे अवसर भी सहजता से मिल जाता है जब उसके समक्ष लंदन में रह रही कंवल के साथ विवाह का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है। विवाह के पश्चात लंदन में उसे ससुराल में रहना पड़ता है, जबकि वह रहना नहीं चाहता। पैर जमते ही वह पत्नी के साथ अलग रहने का निर्णय करता है, लेकिन कंवल मां-पिता का घर छोड़ना नहीं चाहती। यहीं से दोनों के मध्य द्वंद्व(टकराव) की स्थिति उत्पन्न होती है। संबन्धों में रेत की किरकिराहट उत्पन्न हो जाती है जो तलाक पर जाकर समाप्त होती है। यहीं से प्रारंभ होता है इंदरपाल का चारित्रिक स्खलन। बीटर्स, जूडी सहित कुछ औरतों का उसके जीवन में आगमन होता है। बीटर्स का साथ उसे भाता है। उसे सुकून देता है। लंदन में व्यवस्थित होने के बाद वह अपने भाई प्रितपाल को बुला लेता है। दोनों में एक समानता है .... शराब दोनों को पसंद है। औरत इंदरपाल की जहां कमजोरी बन जाती है उसके भाई का आचरण लेखक ने उसके विपरीत चित्रित किया है। सुबह उठने के साथ दोनों शराब पर टूटते हैं और रात देर तक वे पीते रह सकते हैं। दोनों, भाई से अधिक एक दूसरे के साथ मित्र-सा व्यवहार करते हैं। प्रितपाल इंदरपाल के सभी अवैध संबन्धों के विषय में जानता है और अनेकश: उसे इस बात के लिए समझाता है। अंतत: प्रितपाल के सुझाव और घरवालों के दबाव में इंदरपाल पुन: भारत आकर किरन नाम की लड़की से दूसरा विवाह कर लेता है। दूसरी पत्नी किरन से उसे एक पुत्री और एक पुत्र की प्राप्ति होती है, जबकि कंवल से भी उसे एक बेटी प्रतिभा अर्थात परी थी।

कंवल का झुकाव ब्रैडफील्ड, जहां वह काम करती है, के अपने अंग्रेज सुपरवाइजर ऐंडी के प्रति होता है। वह उसके साथ डिनर पर जाती है और लौटते समय उसके फ्लैट में जाने के उसके प्रस्ताव को ठुकराकर उससे इसलिए अलग हो जाती है - ''क्योंकि ऐसा भारतीय संस्कार के विरुद्ध है .'' लेखक कुशलतापूर्वक कंवल के चारित्रिक पतन को बचा देता है। लेकिन उपन्यास में रानी चङ्ढा, रंजना बिजलानी जैसी भारतीय पात्र भी हैं जिनके भारतीय संस्कार उनके अवैध संबन्धों में बाधक नहीं होते। तरसेम फक्कर यदि कैथी के साथ संबन्ध बनाकर दैहिक सुख प्राप्त करता है तो उसकी पत्नी का भी का कोई ब्वॉय फ्रेंड है। एक प्रकार से उपन्यास शराब और सेक्स के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। भारतीय संस्कारों की दुहाई देनी वाली कंवल भी अपने स्खलन को रोक नहीं पाती। वह इंदरपाल को पुन: प्राप्त करना चाहती है और अपने प्रयास में सफल भी रहती है। इंदर की दूसरी पत्नी किरन से उसे सदैव के लिए अलग कर देने का प्रयास करती है और अपने प्रयास में वह सफल भी रहती है। उससे वह अपने लिए मकान, गाड़ी तथा अन्य आवश्यक चीजें उपलब्ध कर लेती है। रवि यानि इंदर कर्ज में डूब कर भी वह सब करता है लेकिन किरन और उसके बच्चों के प्रति उसका प्रेम और मोह कभी नहीं मरता। वह तिहरी जिन्दगी जीता है .... किरन, कंवल और बीटर्स के बीच फंसा इंदर तनावग्रस्त होता जाता है। व्यवसाय की स्थिति खराब हो जाती है और जब किरन को कंवल के साथ उसके संबन्धों की प्रामाणिक जानकारी हो जाती है, वह इंदर के लिए घर के दरवाजे सदैव के लिए बंद कर देती है। किरन और कंवल से दूर इंदर भयानक तनावपूर्ण जीवन जीने लगता है और अंतत: मैसिव हार्ट अटैक का शिकार होता है।

लेखक ने कंवल और किरन के चरित्रों को बहुत बारीकी से उद्धाटित किया है। कंवल अपनी शर्तों पर जीना चाहती है और जीती है। लंदन में पली-बढ़ी होने के कारण उसके भारतीय संस्कारों में आधुनिकता का प्रभाव स्पष्ट है। कहना उचित होगा कि कंवल आत्म-केन्दित चरित्र है जो केवल अपने विषय में सोचती है। एक उदाहरण ही पर्याप्त है। इंदरपाल के हार्ट अटैक की सूचना के बाद वह सोचती है : ''अगर रवि मर जाए तो मुझे कोई नफा-नुकसान नहीं होने वाला, विधवा होगी तो किरन होगी। मैं तो जो हूँ वही रहूंगी। हां , परी का नफा-नुकसान अवश्य उससे बंधा हुआ था। रवि की जायदाद में परी बराबर की हिस्सेदार थी। अगर रवि ने वसीयत करवा रखी होगी तो भी परी का नाम उसमें ज़रूर होगा। अगर नहीं होगा तो फिर भी वह हिस्सेदार है ही।''

लेकिन इसके विपरीत किरन विशुद्ध भारतीय संस्कारों में जीती है। इंदरपाल को बीटर्स के घर में रंगे हाथों पकड़ लेने के बाद भी कुछ समय की बेरुखी के बाद वह सामान्य हो जाती है। लेकिन अपने जीवन में इंदर की पहली पत्नी कंवल का हस्तक्षेप जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता है, तो वह अपने घर के दरवाजे उसके लिए बंद कर देती है। ऐसा वह तब करती है जब उसके पास जीने का कोई आधार नहीं है, मात्र इंदर द्वारा गुजारे के लिए दिए जाने वाले पोंड्स के अतिरिक्त। जबकि कंवल ब्रैडफील्ड में नौकरी करती है अर्थात आर्थिक रूप से सुरक्षित है।

लेखक ने इंदरपाल की वही स्थिति प्रस्तुत की है जो ऐसी स्थिति में ऐसे लोगों की होती है। अटवाल लंदन में बसे भारतीय परिवारों के जीवन की वास्तविक झांकी प्रस्तुत करने में पूर्णतया सफल रहे हैं। उनके शिल्प में नवीनता है, लेकिन यह नवीनता उपन्यास के विस्तार का कारण बनी है। एक ही घटना दो पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। शिल्प का यह प्रयोग पाठक को उस घटना की पुनरावृत्ति की अनुभूति दिलाता है।

सुभाष नीरव ने अनुवाद में जिस कौशल का परिचय दिया है, वह यह प्रतीति होने नहीं देता कि यह पंजाबी का अनुवाद है। भाषा पर उनका अधिकार है लेकिन प्रकाशक की लापरवाही के कारण सर्वत्र 'फ्' की अनुपस्थिति के कारण 'फ्लैट' ,'फ्लाइट' जैसे शब्द केवल 'लैट' और 'लाइट' होकर रह गए हैं। लंबे समय तक पाठक इस भ्रम में रहता है कि शायद लंदन में प्रचलित ये कुछ ऐसे शब्द हैं जिनसे वह परिचित नहीं। लेकिन ऐसे शब्दों की निरंतरता से जल्दी ही उसकी अक्ल के बंद दरवाजे खुल जाते हैं।

उपन्यास में एक प्रसंग हिन्दी वालों के लिए अटपटा हो सकता है जिसमें प्रितपाल अपने पिता के साथ मित्रों जैसा हंसी मजाक करता है जिसे अमर्यादित कहा जा सकता है। संभव है पंजाबी संस्कृति में ऐसा होता हो।

उपन्यास में किंचित सम्पादन से घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचा जा सकता था। लेकिन उपन्यास की भाषा में सहजता और प्रवाहमयता है और घटनाओं की एकरसता भी पाठक के औत्सुक्य को प्रभावित नहीं कर पाती। आद्यन्त उपन्यास पाठक को बांधे रखता है और आज जब किस्सागोई शिल्प मृतप्राय: स्थिति में है तब लेखक का यह शिल्प आश्वस्त करता है। कुल मिलाकर यह एक बेहद पठनीय उपन्यास है।
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समीक्षक
संपर्क:
बी-3/230, सादतपुर विस्तार
दिल्ली-110 094
दूरभाष : 011-22965341
09810830957(मोबाइल)
ई-मेल :
roopchandel@gmail.com

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

सर्वाधिकार सुरक्षित

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